प्रो अनेकान्त कुमार जैन,नई दिल्ली
जो धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं वे तीर्थंकर कहलाते हैं किंतु आज के समय में उस धर्म तीर्थ का संरक्षण करने वाले तीर्थंकर प्रकृति का पुण्य कमाने का कार्य करते हैं ।
प्रायः जब तीर्थ की चर्चा करते हैं तो हमारा ध्यान भी मात्र सम्मेदशिखर आदि तीर्थ स्थानों पर ही जाता है किन्तु जैन परंपरा में श्रुत,आगम आदि भी उसी तरह तीर्थ स्वीकार किये गए हैं । इतना ही नहीं बल्कि आचार्य कुंदकुंद यहाँ तक कहते हैं कि –
जं णिम्मलं सुधम्मं सम्मत्तं संजमं णाणं।
तं तित्थजिणमग्गे हवेइ जदि संतिभावेण।।
अर्थात् जिनमार्ग में उत्तम क्षमादि धर्म,सम्यक्त्व,संयम और यथार्थ ज्ञान – ये तीर्थ हैं। ये भी जब शांत भाव सहित हों तब निर्मल तीर्थ है। अन्य शास्त्रों में भी कहा है –
श्रुतं गणधरा वा तीर्थमित्युच्यते।-(भगवती आराधना / विजयोदया टीका 302/516/6)
तीर्थमागम:।-(समाधिशतक/ टी./2/222/24
बोधपाहुड/27)
आगम और श्रुत भी तीर्थ हैं ।
आज समयसार ,रत्नकरंड श्रावकाचार ,द्रव्यसंग्रह ,तत्त्वार्थसूत्र इष्टोपदेश आदि- ये ग्रंथ तो मंदिरों ,शिविरों में भी पढ़े और पढ़ाये जाते हैं । आधुनिक रीति से MA जैन विद्या में भी यत्किंचित इनका या इनके विषयों का अध्ययन अध्यापन हो जाता है ।
लेकिन षटखंडागाम,कसायपाहुड, प्रवचनसार, आप्तमीमांसा,प्रमेयरत्नमाला,न् यायदीपिका,परीक्षामुखसूत्र , प्रमाणमीमांसा,प्रमेयकमल मार्त्तण्ड,स्याद्वाद मंजरी,षड्दर्शनसमुच्चय, अष्टसहस्त्री जैसे ग्रंथ मूल रूप से शास्त्री और आचार्य की कक्षाओं में संस्कृत और प्राकृत भाषा की रीति से पढ़े और पढ़ाये जाते हैं ।
इनके बिना विद्यार्थी प्रवचनकार,विधानाचार्य,प्रतिष् ठाचार्य आदि तो बन सकता है लेकिन जैन दर्शन का अधीत अधिकारी विद्वान् दार्शनिक मनीषी नहीं बन सकता – यह एक यथार्थ तथ्य है ।
परंपरागत संस्कृत शिक्षा में रुचिवंत विद्यार्थियों की निरंतर कमी के कारण अध्यापकों और विद्यार्थियों के अभ्यास की कमी के चलते अष्टसहस्री,प्रमेयकमलमार्त्तण् ड,तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार आदि कई महत्त्वपूर्ण वृहत्काय दुरूह लगने वाले ग्रंथ पाठ्यक्रम से दूर करने पड़े – यह एक प्रायोगिक यथार्थ है ।
सुविधा की दृष्टि से
जो आरंभिक ग्रंथ पाठ्यक्रमों में रखे गए – सर्वत्र उदासीनता के कारण वे भी कठिन लगने लगे हैं ।
“जब कि मेरा मानना है कि जैन परंपरा में आचार्य उमास्वामी,समन्तभद्र,सिद्धसेन, पूज्यपाद,अकलंक,विद्यानंद,मणिक् यनंदी,प्रभाचंद्र,हरिभद्र,हेमचं द्र जैसे दिग्गज आचार्य न होते और इन्होंने संस्कृत में तार्किक और दार्शनिक ग्रंथों का प्रणयन न किया होता तो जैन धर्म मात्र धर्म बनकर रह जाता वह दर्शन की श्रेणी अपना स्थान नहीं बना पाता ।
आज यदि अन्य भारतीय दर्शनों के साथ कदम से कदम मिलाकर जैनदर्शन चल रहा है तो इन आचार्यों का बहुत बड़ा योगदान है ।”
पहले पूरे भारत में कुछ ऐसे जैन परीक्षा बोर्ड थे जो इन्हीं ग्रंथों की परीक्षा लेते थे और न्यायतीर्थ , न्यायदिवाकर , न्यायशिरोमणि आदि उपाधियाँ कठिन परीक्षा के बाद प्रदान करते थे , आपने पुराने विद्वानों के नाम के साथ इस तरह की उपाधियों को अवश्य सुना होगा | इसमें कलकत्ता , मुंबई आदि बड़े शहरों में ये परीक्षा बोर्ड संचालित होते थे और अन्यान्य साधु भी इन परीक्षाओं को उत्तीर्ण करते थे |
अब पाठ्यक्रम में युग की आवश्यकता ,रोजगार,कंप्यूटर ज्ञान,कौशल विकास आदि के आवश्यक संयोजन के कारण आरंभिक ग्रंथ भी धीरे धीरे हाशिये पर जा रहे हैं ।
संस्कृत-प्राकृत के मूल ग्रंथ का पारंपरिक अभ्यास संस्कृत भाषा के मात्र व्यावहारिक विकास के ग्लैमर के आगे उसकी चकाचौंध में मात्र टिमटिमा रहा है ।
अनेक संस्कृत विद्यालय और महाविद्यालय खाली पड़े पदों को ही स्थायी समझने लगे हैं । जो नियमित अध्यापक हैं उनमें से अनेक अपने कर्तव्य से विमुख होकर प्रवचन,पूजापाठ,ज्योतिष आदि सामाजिक कार्यों में अपनी अतिरिक्त आय के साधन तलाश रहे हैं ।
इन सबके बाद भी जो विद्वान् इन शास्त्रों के संरक्षण संवर्धन में लगे भी हैं उन्हें आधुनिक से तुलनात्मक न होने के कारण निरंतर हतोत्साहित होना पड़ रहा है ।
तर्क चाहें जो हों , परिस्थितियां चाहे जो हों लेकिन यह अवश्य विचार किया जाना चाहिए कि हम पुरानी पाण्डुलिपियों की खोज क्यों कर रहे हैं जबकि संपादित ,अनुवादित और प्रकाशित साहित्य ही घनघोर उपेक्षा का शिकार हो रहा है । व्यावसायिकता की मानसिकता से उनका पुनर्प्रकाशन दुर्लभ हो गया है । पीडीएफ जैसे मीठे जहर हमें कामचलाऊ समाधान तो दे रहे हैं लेकिन उनके मूल अस्तित्त्व को भी चुनौती दे रहे हैं ।
हम अपने गिरनार आदि तीर्थों के लिए चिंतित रहते हैं क्यों कि अन्य लोगों ने उस पर कब्ज़ा कर लिया है ,किन्तु ये ग्रन्थ भी हमारे श्रुत तीर्थ हैं ,इन पर तो किसी ने कब्ज़ा नहीं किया है , ये तो सिर्फ और सिर्फ स्वयं हमारी उदासीनता के कारण नष्ट हो रहे हैं । वर्तमान में कार्यरत तीर्थ सुरक्षा से सम्बंधित राष्ट्रिय अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं को श्रुत तीर्थ रक्षण का भी एक विभाग और एक पद अपनी संस्थाओं में स्थापित करना चाहिए और श्रुत विरासत को संभालने का भी दायित्व निभाना चाहिए ।
हम सभी की कोशिश होनी चाहिए कि थोड़ा ही सही पर भारतीय ज्ञान परंपरा की इस अमूल्य निधि का दीपक कम से कम जलता तो रहे ,क्या पता कलयुग के अंधकार से आगे कभी यही उबार दे । मुझे लगता है अगर इस दिशा में हम कुछ कर सकें तो इससे बड़ी श्रुत पूजा कुछ और नहीं हो सकती ।
Prof Dr Anekant Kumar Jain ,
Deptt of Jain Philosophy,
Shri Lalbahadur Shastri National Sanskrit University,
New Delhi 110016
Deptt of Jain Philosophy,
Shri Lalbahadur Shastri National Sanskrit University,
New Delhi 110016
9711397716