मृत्यु एक अनिवार्य घटना है जिससे कोई बच नहीं सकता। इस संसार रूपी रंगमंच पर दो ऐसे पात्र हैं, जिनको समझना बहुत जरूरी है , वह हैं जीव और अजीव। जिसमें जानने-देखने की शक्ति होती है वह जीव कहलाता है और जिसमें जानने-देखने की शक्ति नहीं होती है वह अजीव है। संसार में सारा का सारा खेल जीव-अजीव का है। जीव-अजीव आदि तत्वों को जानकर जो आत्मतत्त्व का चिंतन मनन करते हैं वही एक दिन परमात्म अवस्था को प्राप्त करते हैं।
मृत्यु दर्शन करने वाला व्यक्ति अहंकार नहीं करता, बैर-भाव की ग्रंथि नहीं बांधता। वह सोचता है कि सब कुछ छोड़कर जब इस दुनिया से जाना है तो फिर किस पर अहंकार करें। हम इतने अरमान संजोते हैं, ऐसा करूँगा, वैसा करूँगा , पर कभी भी यह नहीं सोचते कि मौत कभी भी आ सकती है। जिंदगी की शाम हो इसके पहले ही व्यक्ति को अपने जीवन रूपी आँगन में प्रभु भक्ति का दीप जला लेना चाहिए। स्वयं की आलोचना कर जीवन रूपी मैली चादर को साफ-सुथरा करना चाहिए तभी जीवन सफल हो सकता है। यह जीवन क्षण भंगुर है, पानी के बुलबुले की तरह यह कभी भी मिट सकता है। इसलिए मानव की यह अनमोल पर्याय पाकर अपने जीवन को अच्छे कार्यों में लगाएं। यदि हमें मृत्यु बोध रहे तो संसारी जीव कभी भी जीवन में पाप कार्य नहीं कर सकते। जीवन के विकास के लिए मृत्यु बोध होना भी जरूरी है।
पता नहीं कब किसका क्या हो जाए,
पता नहीं कब कौन विदा हो जाय ।
कल की आशा में जीने वालो,
पता नहीं कब जिंदगी की शाम हो जाय।।
जगत में जो कुछ भी दृष्टिगोचर होता है वह सब परिवर्तनशील है। दूसरे शब्दों में, वह सब काल के गाल में समाता जा रहा है। चहचहाट करते हुए पक्षी, भागदौड़ करते हुए पशु, लहलहाते हुए पेड़-पौधे, वनस्पति, प्रकृति में हलचल मचाकर मस्तिष्क को चकरा देने वाले आविष्कार करते हुए मनुष्य सभी एक दिन मर जायेंगे। कई मर गये, कइयों को रोज मरते हुए हम अपने चारों ओर देख ही रहे हैं और भविष्य में कई पैदा हो-होकर मर जायेंगे।
कोई आज गया कोई कल गया कोई जावनहार तैयार खड़ा ।
नहीं कायम कोई मुकाम यहाँ चिरकाल से ये ही रिवाज रहा ।।
पिछले दिनों एक समाचार पत्र में एक न्यूज प्रकाशित हुई थी कि अमेरिका में लगभग एक हजार ऐसी लाशें सुरक्षित पड़ी हैं, इस आशा में कि आगे आने वाले 20 वर्षों में विज्ञान इतनी प्रगति कर लेगा कि इन लाशों को जीवनदान दे सके। हर लाश पर 10000 रुपये दैनिक खर्च हो रहा है। बीस साल तक चले उतना धन ये मरने वाले लोग जमा कराके गये हैं।
कोई मरना नहीं चाहता। कब्र में जिसके पैर लटक रहे हैं वह बूढ़ा भी मरना नहीं चाहता। औषधियाँ खा-खाकर जीर्ण-शीर्ण हुआ रोगी मरणशय्या पर पड़ा अंतिम श्वासें ले रहा है, डॉक्टरों ने जवाब दे दिया है, वह भी मरना नहीं चाहता। लाशें भी जिन्दा होना चाहती हैं। प्रकृति का यह मृत्यु रूपी परिवर्तन किसी को पसन्द नहीं। यद्यपि यह सब जानते हैं,जो आया है सो जाएगा राजा, रंक, फकीर।
आज यदि व्यक्ति को मृत्यु का बोध हो जाय तो बहुत सी समस्याओं का समाधान अपने आप हो जाएगा, व्यक्ति को यह पता है कि इस परिवर्तन शील संसार में कोई अमर नहीं है पर इसका उसे बोध नहीं है, मृत्यु पल-पल निकट आ रही है परन्तु उसके बोध के अभाव में उसे एक दिन मरना है यह आज का मानव भूलता जा रहा है तभी तो वह न जाने कितने पाप करने के लिए आतुर रहता है। जलन, द्वेष, मायाचारी, छल, अहंकार, व्यसन, पाखंड, ठगी आदि विकृतियां इसलिए पनप रही हैं क्योंकि मानव को मृत्यु का भान नहीं है। यह भी देखा जाता है कि अच्छे-अच्छे विद्वान जो कर्म सिद्धांत और मृत्यु की क्षणभंगुरता को जानते हैं फिर भी वह अपने व्यवहार और चरित्र में धवलता नहीं ला पाते क्योंकि शायद उन्हें भी मृत्युबोध नहीं होता है। जिस व्यक्ति को मृत्यु बोध हो जाता है उसका जीवन अपने आप ही अच्छा और सुंदर हो जाता है।
आज तो विडम्बना देखिए लोग शव यात्रा में भी हँसी ठिठोली करते नजर आते हैं, मुक्तिधाम में उधर शव की अंतिम क्रियाएं चल रहीं होती हैं और इधर लोग हंसी मज़ाक करते देखे जाते हैं। यदि संसार की सच्चाई को मन मस्तिष्क में अंदर तक पहुँचाना है तो कभी किसी शवयात्रा में सच्चाई से शामिल होकर देखिए, जीवन में आमूल- चूल परिवर्तन हो जाएगा।
अपना ही पता न चले, यह भी कोई जिंदगी हुई? चले, उठे, बैठे, उसका पता ही न चला जो भीतर छिपा था। अपने से ही पहचान न हुई, यह भी कोई जिंदगी है? अपने से ही मिलना न हुआ, यह भी कोई जिंदगी है? और जो अपने को ही न पहचान पाया, और क्या पहचान पाएगा? निकटतम थे तुम अपने, उसको भी न छू पाए, और परमात्मा को छूने की आकांक्षा बनाते हो? चांद-तारों पर पहुंचना चाहते हो, अपने भीतर पहुंचना नहीं हो पाता।
स्मरण रखो, निकटतम को पहले पहुंच जाओ, तभी दूरतम की यात्रा हो सकती है और मजा यह है कि जिसने निकट को जाना, उसने दूर को भी जान लिया, क्योंकि दूर निकट का ही फैलाव है।
आज जरूरत है मृत्यु दर्शन पर ईमानदारी से चिंतन की जिस दिन जिसने भी यह कर लिया उस दिन इस मानव पर्याय की सार्थकता को समझने में देर नहीं लगेगी।
विनम्र बनो, निरहंकारी बनो। अपने आपको बड़ा बताने की चेष्टा न करो। विनम्रता एवं निराभिमानता ही तुम्हें बड़ा बनायगी। विनम्रता मनुष्य का बहुत बड़ा भूषण है।बनिर्मल दृष्टि रखो। किसी के दोष देखना यह बहुत बड़ा दुर्गुण है। छिद्रान्वेषी न बनो। दूसरों के दोष देखना पाप अर्जन करना है। गुणग्राही बनो।
जीवन में जो भी हो बोधपूर्वक हो। जीवन में कुछ भी अबोधपूर्वक और अज्ञानपूर्वक न हो तो क्या होगा? तो यह होगा कि आपको चौबीस घंटे अपने शरीर के भीतर एक ज्योतिशिखा, एक विवेक की ज्योति अलग अनुभव होने लगेगी।