जीवन बीमा है पर्यूषण पर्व

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महावीर दीपचंद ठोले ,छत्रपतीसंभाजीनगर नगर औरंगाबाद (महाराष्ट्र)7588044495
आज चारों और अनैतिकता का कड़वा विष व्याप्त है। नैतिक मूल्यों पर भयावह संकट है। हिंसा, झूठ, चोरी, भ्रष्टाचार, आदी का बोलबाला है ।विज्ञान के आविष्कारों ने और भौतिकवाद ने,पाश्चिमात्य संस्कृति ने लोभ, लालच ,और मिथ्याकर्षणो को भरपूर पनपा दिया है। ऐसी स्थिति में आशा की कोई किरण है तो वह धर्म है ।धर्म ही मनुष्य के जीवन में प्रकाश भर सकते हैं ।धर्म से जीवन धन्य होता है। यह धर्म पालन करने के लिए दस सोपान बताए गए हैं ।इसे दशलक्षण धर्म कहते हैं ।जो उत्तम क्षमा,मार्दव, आर्जव, सत्य,शौच, संयम ,तप, त्याग, अंकिचन्य और ब्रह्मचर्य है।इसका पालन हम दशलक्षण पर्व मे करते है।ईसे हम पर्यूषण पर्व भी कहते हैं ।ईन दस दिनोमे हम इसकी आराधना करते हैं। इनको अपने आचरण में उतारने के लिए जो साधना करता है वह निर्विकार हो जाता है। अपने व्यक्तित्व को समुन्नत बनाने का यह पर्व सर्वोत्तम साधन है। जिससे अपने भीतर छिपे सदगुणोको विकसित करने का पुरुषार्थ किया जाता है ।
ईन दशधर्म का सार तत्व है समता भाव रखना, मन वचन काय से मान का परित्याग करना, सहज सरल व्यवहार का पालन करना, लोभ लालच का त्याग करना, हित मित, प्रिय, सत्य बोलना ,मन इंद्रियों को संयमित रखकर अहिंसा का पालन करना, कर्मनाश के लिए अंतरंग बहिरंग तप करना, स्व-पर कल्याणार्थ दान देना, परिग्रह का त्याग करना, तथा ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए शील सदाचार का पालन करना। यह सभी जीवन के कल्याणार्थ अत्यंत हितकारी है। वास्तव में यह पर्व हमें जीवन जीने का सही सलीका सीखाता है ।इसे ही हम आर्ट ऑफ लिव्हिग भी कहते हैं।
यह पर्यूषण पर्व वर्ष में तीन बार आता है ।परंतु मुख्य रूप से यह भाद्रपद माह में विशेष रूप से बड़ी भक्तिभाव से, उत्साह से , उमंग से मनाते हैं । यह पर्व त्रिकालिक अनादिकालसे चला आ रहा है।
पर्यूषण पर्व का मूल आशय है मन के सारे विकारों को नष्ट करना ।दसदिन हम संयम, समता सरलता और त्याग मय जीवन बिताए। जिससे हमारे परिणामो में सरलता आती है । अपने आप हमारा जीवन धर्म मय बनता है। और यह जीवन का अंग बनकर हमे बेहतर से बेहतर बना देता है ।अहिंसा परमो धर्म के सिद्धांत को प्रतिपादन करने वाला तथा जियो और जीने दो का संदेश देने वाले ईस पर्वराज को मनाने से हमारे लिए मोक्ष प्राप्ति के द्वार खुलते हैं ।यह पर्व हमें सीख देता है कि संसार में रहते हुए कैसे और कितनी सीमा तक हम आध्यात्ममय हो सकते है।इस संसार में जीवन की सच्ची राह यदि कोई है तो वह समत्व की राह जिस पर चलकर हम स्व- पर कल्याण कर सकते हैं। वास्तव मे ईसपर्व के दस दिन हमारे पुण्य के पालक और पाप की प्रक्षालन के होते हैं ।यह पर्व आत्मावलोकनका, आत्मलोचनका, आत्मनिरीक्षणका, आत्मजागृति का एवं आत्मोपलब्धी का महान पर्व है ।इसमें विकृति का विनाश और विशुद्धि का विकास मुख्य ध्येय है।
अहिंसा, क्षमा, सत्य,तप,त्याग जैसे सद गुण किसीएक संप्रदाय या विशेष व्यक्तियो के गुण नहीं है । यह सभी के है।कोई भी व्यक्ति सदा हिंसा कर, क्रोध कर, झूठ बोलकर नहीं रह सकता। इन दुर्गणो को नाश कर सद्गुणों की प्राप्ति पर्यूषण पर्व के माध्यम से ही हो सकती है । यह पर्व किसी संप्रदाय विशेष का नहीं या मात्र जैनो का ही नहीं यह जन-जन का पर्व है ।सभी ने आदर पूर्वक ईसे मनाना चाहिए ।
परंतु आजकल वैचारिक प्रदूषण, जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, भू प्रदूषण के कारण मानव ही क्या पूरी प्रकृति का स्वास्थ्य बिगड़ रहा है। और कोरोना जैसे वैश्विक सक्रामक रोग की तरह सारे विश्व को प्रभावित कर रहा है ।बाहर का वातावरण प्रदुषित हो तो एक बार आदमी जिंदा रह सकता है, किंतु मन ही प्रदूषित हो तो पूरी मानव जाति के लिए एक खतरा बन जाता है। आतंकवादी, नक्सलवादी भी केवल वैचारिक प्रदूषण के कारण ही मानव जाति के संहारक बन गए है। जिसके कारण मानव जाति की दुर्दशा हो रही है ।और इसी वैचारिक प्रदूषण को मिटाने के लिए, शिक्षा देने के लिए प्रतिवर्ष अनादिकाल से नियमित रूप से यह पर्व आता है ।
यह पर्व हमारे जीवन के हिसाब किताब का, वार्षिक लेखा जोखा का पर्व है ।यह पर्व वर्ष भर में की गई पढ़ाई की परीक्षाका पर्व है जिसमें परीक्षक भी हमें स्वयं ही बनना पड़ता है।
पूर्व मे ईस पर्व को पुरे भक्तिभाव से एवं श्रद्धापूर्वक मनाकर वर्षभर धर्म की आराधना करते थे। परंतु काल के प्रभाव से ईस पर्व का स्वरूप ही बदल गया है।इस पर्व के दस दिनों में जो वर्ष भर कभी मंदिर नहीं आते ,कभी स्वाध्याय नहीं करते,प्रवचन नही सुनते, पूजा पाठ नहीं करते, जो जैन धर्म का पालन नहीं करते, भक्ष अभक्ष का ध्यान नहीं रखते ऐसे बच्चे, युवा बूढ़े सभी के भाव बन जाते हैं ,और वे धर्म से जुड़कर नियमों का पालन करने लगते हैं ।रात्री भोजन नहीं करते, पूजा पाठ करते हैं, स्वाध्याय करते हैं, व्रत उपवास करते हैं, सात्विक शुद्ध भोजन करते हैं, होटल में नहीं जाते ।और केवल दस दिन के धर्मात्मा बनकर दिखावा करते है और दुसरे दिनसे पुनः वैसे के वैसे बनजाते है। यह धर्म मात्र दस दिनके लिए नही वर्ष भर पालन करने के है।
जरा सोचे दस दिन धर्म के नियमों का पालन करने से हमारा क्या घाटा होता है ।लाभ ही होता है ।जैसे बीमारी का इलाज करने के लिए डॉक्टर हमें परहेज देता है की रात्री में मत खाओ, धूम्रपान मत करो, शाकाहारी आहार करो,व्यसन मत करो। तो हम उसकी बात मानते हैं क्योंकि ऊससे हमारा स्वास्थ्य अच्छा बने।वैसे ही आत्मधर्म का पालन करने के लिए जैन धर्म के नियमों का पालन करना चाहिए ।हमारा प्रयोजन सुख शांति की प्राप्ति है ।तो इन दसधर्म के पालन करने में निश्चित सुख की प्राप्ति होती है। इसलिए यह दस दिन विशेष आराधना के दिन है इससे मानसिक शारीरिक लाभ होता है। यह धर्म पालन के पूर्व भूमिका बनाने के लिए दसदिन एकमात्र ट्रायल है।एक प्रयोग शाला है।

कई लोग कहते हैं कि हमारी मजबूरी है, हमें तो समय ही नहीं मिलता क्या करें? पर मैं उन्हें कहना चाहूंगा कि जिसकी दृढ़ इच्छा होती है उसे कोई भी मजबूरी नहीं होती। हम अपने दिन भर के कार्य में से एक-एक दो-दो मिनट बचाकर एक घंटे का समय निकालकर धर्म ध्यान, पूजा पाठ मंदिर जाना ,स्वाध्याय किया तो निश्चित ही हमें लाभ मिलेगा ।इस दसदिन में हमारी जो आदत बन जाती है ,हमें विशेष आनंद आता जो लाभ होता है वह हमेशा के लिए बना रहे इसलिए इस दस दिन को बंधन के दिन ना समझे ,उसे विस्मृति ना होने दे, वर्ष भर रूचि पुर्वक पालने का निश्चय करे। यह हमारे हित का ही है।
हमारे यह दस दिन हमारे लिए बहुत लाभ कारी है।ईसमे अच्छे से साधना कर ली तो यह समझना कि हमने अपना जीवन बीमा कर लिया है। यह लाइफ इंश्योरेंस की तरह है । हम जो घर में जीवन बीमा करते हैं उसका पैसा मरणोपरांत हमारे वारीस को ही मिलेगा,हमे जीवन मे उसका कोई लाभ नही। पर धर्म के पालन से जो जीवन बीमा हम निकालते हैं इसका लाभ हमें अपने वर्तमान में और मरणोपरांत भी होगा। यह पुण्य का जीवन बीमा है ।जिसका लाभ भवभवान्त मे भी प्राप्त होगा । यह हमारे जीवन की सबसे बड़ी कमाई है ।
प्रतिवर्ष पर्युषण के माध्यम से हम ऊसका नवीनीकरण करते है। बशर्तै इसमें कोई छल कपट नहीं हो।
जिनकी मजबुरी है,वे कुछ नहीं तो प्रतिदिन केवल देव दर्शन और स्वाध्याय भी कर लिया तो अपने आप आपको धर्म से लगन लग जाएगी ,सदा चरण का जीवन बनेगा। क्योंकि देव दर्शन से हमें प्रेरणा मिलती है और स्वाध्याय से आत्मज्ञान मिलेगा। वस्तु स्वरूप का दर्शन होगा ।
अतःआज की जीवन शैली सुविधा और स्वार्थप्रद होती जा रही है ।इसलिए आवश्यक हो गया है कि इस पर्व को वैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक ढंग से मनाया जाए ।आडंबर और प्रदर्शन से दूर रहकर इस पर्व की आध्यात्मिकता को नए संदर्भ में प्रस्तुत किया जाए। उपभोक्तावाद और आतंकवाद इन दोनों की जड़ में छुपी हिंसा और परिग्रह का समाधान अहिंसा और अपरिग्रह में खोजा जाए, क्योंकि यह महापर्व विश्व शांति का संदेश देने वाला है ।अतः विश्व में शांति का विस्तार करने वाले इस पर्युषण के क्रांतिकारी दस धर्म की शिक्षाओं को ग्रहणकर आत्म कल्याण का दीप प्रज्वलित करें ।मनके कषायो को दूर कर सभी से भाईचारे का सम्बंध बनाएं।

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