जैन समाज में बढ़ती विसंगतियाँ : एक दृष्टि -डॉ. सुनील जैन संचय, ललितपुर

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भारतीय संस्कृति की महानतम विरासतों में से एक है — जैन धर्म, जो अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह और आत्मसंयम के उच्चतम आदर्शों पर आधारित है। हजारों वर्षों से जैन समाज ने इन मूल्यों को न केवल अपनाया है, बल्कि समाज को भी प्रेरित किया है। परंतु वर्तमान समय में जैन समाज में कुछ ऐसी विसंगतियाँ उभर रही हैं, जो इसके मूल सिद्धांतों से भटकाव की ओर संकेत करती हैं।  कुछ बिंदु इस प्रकार से हैं –
1. धर्म का प्रदर्शनवाद बन जाना :
जहाँ जैनधर्म आत्मानुशासन, साधना और मौन , संयम, साधु जीवन की प्रेरणा देता है, वहीं आज कई स्थानों पर इसका व्यवहारिक रूप प्रदर्शन में परिवर्तित हो रहा है। धार्मिक अनुष्ठान, रथयात्राएँ और साधु-साध्वियों के चातुर्मास का आयोजन अब भव्यता और धनबल की होड़ बनते जा रहे हैं। साधना की शांति अब माइक और झांकियों की भीड़ में दब रही है।
2. मूल सिद्धांतों से भटकाव :
जैन धर्म के मूल सिद्धांत जैसे अहिंसा, अपरिग्रह और स्वावलंबन, अब केवल प्रवचन तक सीमित रह गए  प्रतीत होते हैं। कई जैन परिवारों में आज हिंसा पर आधारित व्यवसाय (मांस निर्यात, चमड़ा व्यापार, होटल इंडस्ट्री आदि) से जुड़ाव देखा जा रहा है। इसके साथ ही विलासिता की ओर बढ़ती प्रवृत्ति अपरिग्रह के विरुद्ध है।
3. साधु-साध्वियों के आचरण पर प्रश्नचिन्ह :
जैन परंपरा में मुनियों और आर्यिकाओं का स्थान सर्वोच्च होता है, परंतु वर्तमान में शिथिलाचार बढ़ता देखा जा सकता है । कुछ स्थानों पर इनसे जुड़े विवाद सामने आ रहे हैं — जैसे धन संचय, मोबाइल का उपयोग, प्रदर्शन, समाज के पैसे का अपव्यय, समाज के कार्यों में संलिप्तता इत्यादि। यह समाज में भ्रम की स्थिति पैदा कर रहे हैं और श्रद्धा में कमी ला रहे हैं।
4. शिक्षा व नवाचार से दूरी :
जहाँ अन्य समुदायों ने आधुनिक शिक्षा, विज्ञान व तकनीक में तेज़ी से प्रगति की, वहीं जैन समाज का बड़ा वर्ग अब भी पारंपरिक व्यापारिक सीमाओं में सिमटा हुआ है। युवाओं में धर्म के प्रति रुचि कम हो रही है क्योंकि उन्हें आधुनिक संदर्भों में जैन धर्म के दर्शन को समझाने का कोई प्रयास नहीं हो रहा।
5. सामाजिक बंटवारे और संप्रदायवाद :
श्वेतांबर, दिगंबर, तेरापंथ, स्थानकवासी आदि भेद जैन समाज में लंबे समय से हैं, परंतु अब यह भेद संवाद और आदान-प्रदान में बाधा बनने लगे हैं। एक ही समाज में धार्मिक आयोजन, मुनियों की मान्यता और धार्मिक ग्रंथों में मतभेद युवाओं को भ्रमित कर रहे हैं।
समाधान और सुझाव:
धर्म को व्यवहार में लाने की आवश्यकता है, केवल उपदेश तक सीमित न रखें। युवाओं को जैन दर्शन की तार्किकता से जोड़ें, संवाद, कार्यशालाओं, और डिजिटल माध्यमों द्वारा। सामाजिक सेवा के कार्यों को प्राथमिकता दें, जैसे अस्पताल, गौशाला, शिक्षा संस्थान। साधु-साध्वियों की पारदर्शिता और अनुशासन पर निगरानी रखें, ताकि समाज की श्रद्धा बनी रहे। महिलाओं और युवाओं को धार्मिक नेतृत्व में सम्मिलित करें, जिससे परंपरा में नवीनता बनी रहे।
निष्कर्ष :
जैन धर्म की आत्मा आज भी उतनी ही पवित्र है, जितनी महावीर स्वामी के समय थी। परंतु समय के साथ जो सामाजिक ढांचे बने हैं, उनमें कई विसंगतियाँ आ गई हैं। यह आवश्यक है कि जैन समाज आत्मनिरीक्षण करे, अपने मूल आदर्शों की ओर लौटे, और अपने धार्मिक मूल्यों को व्यवहार में लाने का साहस दिखाए। यही सच्चे अर्थों में “जीवों पर दया, आत्मा की रक्षा और मोक्ष की दिशा” में बढ़ने का मार्ग है।
– डॉ सुनील जैन संचय
9793821108

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