चलिए, बिना लाग-लपेट के बात करते हैं — समस्या क्या है और इलाज क्या हो सकता है।
1. धर्म की तरफ उदासीन होती नई पीढ़ी
पहले घरों में धार्मिक संस्कार थे, तप-तपस्या का माहौल होता था। आज मोबाइल है, नेट है… और जाने क्या-क्या है। बच्चे धर्म को बोरिंग मानने लगे हैं और बड़े भी शायद इसे ज़रूरत नहीं समझ रहे।
क्या करें?
धर्म को बोरिंग नहीं, रोचक बनाना होगा। धार्मिक एप्स, यूट्यूब शॉर्ट्स, गेम्स, स्टोरीबुक्स — सब कुछ मॉडर्न टच के साथ। मुनियों और साध्वियों को भी अब युवाओं की भाषा में बात करनी होगी।
2. संप्रदायों में खींचतान— श्वेतांबर बनाम दिगंबर
मूर्तिपूजक-स्थानकवासी, तेरापंथी-बीसपंथी … दर्जनों टुकड़े कर दिए हमने अपने ही धर्म के, समाज के। ऐतिहासिक मतभेद और धार्मिक आचार्यों की अलग-अलग व्याख्याएँ, सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए प्रतिस्पर्धा, शादी-ब्याह, भोज और अनुष्ठानों में भिन्नता के कारण आपस में मिलना-जुलना भी कम हो गया है। कोई शादी वहां नहीं करता, कोई भोज यहां नहीं खाता।
क्या करें?
समझना होगा —पहले हम जैन हैं, बाकी सब बाद में। मतभेद छोड़कर मिल-बैठकर बात करें, एक-दूसरे के साथ त्योहार मनाएं। हर शहर में जैन एकता सम्मेलन जैसी पहल हों।
3. घटती जनसंख्या घटने से सिमटता रहा समाज
देश में हमारी गिनती 0.4% से भी कम है और वो भी हर साल और कम होती जा रही है। शादी देर से, बच्चे कम…. समाज सिकुड़ रहा है।
क्या करें?
देर से शादी की जगह समय पर विवेकपूर्ण निर्णय लें। शादी के लिए सिर्फ हमारे पंथ का हो जैसी बातें थोड़ी ढीली करनी होंगी।
4. धर्म और करियर के बीच संतुलन नहीं
बच्चे इंजीनियर बन रहे हैं, डॉक्टर बन रहे हैं, लेकिन धर्म की एबीसीडी भी नहीं जानते। ऐसे में उनका करियर अच्छा है, पर ज़िंदगी के सवालों के जवाब नहीं है।
क्या करें?
धर्म को भी एक ‘लाइफ स्किल’ की तरह पढ़ाया जाए। धार्मिक लीडरशिप प्रोग्राम चलें और सबसे जरूरी — परिवार में सिर्फ डांट नहीं, धर्म की चर्चा हो।
5. समाज से दूर हो रहे हैं युवा
ज्यादातर युवा जैन समाज की बैठकों, कार्यक्रमों से कटे हुए हैं। उन्हें लगता है — ये सब बड़े-बूढ़ों का काम है और सच कहें, तो कई बार हमने उन्हें मंच बहुत ही कम दिया है।
क्या करें?
युवाओं के लिए खास कार्यक्रम बनें — जैसे जैन यूथ आइकन, इन्फ्लुएंसर्स मीट, जैन धर्म पर स्टार्टअप आइडिया कॉम्पिटिशन। इंस्टाग्राम, यूट्यूब, स्पॉटीफाई.. जहां भी युवा हैं, वहां जैन धर्म को ले जाना होगा।
6. भौतिकता बनाम अपरिग्रह — उलझन में समाज
हमारा धर्म सिखाता है —जितना जरूरी है, उतना ही लो। लेकिन आज समाज में बड़ा घर, बड़ी कार, बड़ा नाम ही पहचान बन गया है। दान भी होता है, पर अक्सर दिखावे वाला।
क्या करें?
दिखावे की जगह सादगी को ट्रेंड बनाना होगा। शादी-ब्याह में खर्च की लिमिट तय हो, दान का हिस्सा शिक्षा और स्वास्थ्य में लगे और समाज उस परिवार को सम्मान दे जो सादा जीवन जिएं।
7. अभी भी सीमित भूमिका में हैं महिलाएं
जैन समाज में महिलाएं शिक्षित हैं, समर्थ हैं, फिर भी कई बार धर्म और समाज की मुख्य धारा से दूर रखी जाती हैं। मंदिरों में, ट्रस्टों में, सभा-निर्णयों में समाज की आधी आबादी की भागीदारी कम है।
क्या करें?
महिला लीडरशिप मंच बनें। साध्वियों की बातों को प्रमुखता दी जाए। बेटियों को मंच मिले, निर्णयों में वोट मिले और सबसे जरूरी — विश्वास मिले।
8. अकेले होते बुज़ुर्ग
बच्चे बाहर पढ़ने चले जाते हैं और फिर बाहर के होकर रह जाते हैं। पीछे रह जाते हैं -बुज़ुर्ग। वे किसी से दिल की बात नहीं कह कह पाते हैं। बुज़ुर्गों का अकेलापन एक मौन बीमारी बन चुका है।
क्या करें?
समाज वृद्ध सेवा केंद्र बनाए। धार्मिक यात्राओं, सत्संगों में बुज़ुर्गों को प्राथमिकता मिले और सबसे अच्छा — हर युवा महीने में एक दिन बुज़ुर्गों के नाम करे।
9. मंदिर और ट्रस्ट — सेवा या सत्ता का केंद्र?
कई बार देखा गया है कि मंदिर और ट्रस्टों में राजनीति घुस गई है। सेवा का काम होने की बजाय गुटबाज़ी और शो ऑफ होने लगता है।
क्या करें?
पारदर्शी व्यवस्था बने। चुनाव खुले हों, ऑडिट रिपोर्ट सार्वजनिक हो। ट्रस्ट में युवा और महिलाएं भी हों और मंदिर सिर्फ पूजा का नहीं, समाज सेवा का भी केंद्र बने।
10. दान — क्या बस मंदिर तक सीमित?
हमारे समाज में दान देने की परंपरा है — लेकिन अधिकतर दान मंदिर निर्माण, भोज या धार्मिक उत्सवों तक सीमित रह जाता है। शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण जैसे विषयों पर ध्यान कम है।
क्या करें?
दान का मतलब सिर्फ ईंट-पत्थर नहीं, ज्ञान और उपचार भी होना चाहिए। छात्रवृत्ति, हॉस्पिटल, रिसर्च सेंटर, वृक्षारोपण के क्षेत्रों में भी जैन समाज लीडर बने।
तो अब क्या करें?
समस्या है —जरूरत है सोच बदलने की, संवाद शुरू करने की। ये धर्म सिखाता है कि हर आत्मा परमात्मा बन सकती है तो समाज भी अपने भीतर के अंधेरों से बाहर निकल सकता है।
अब वक्त मतभेद और नफरत का नहीं, मिल बैठकर समाधान का है। हम युवाओं को मौका दें, महिलाओं को मंच दें, बुज़ुर्गों को सहारा दें… फिर देखो, जैन समाज कैसे दुनिया के लिए एक आदर्श बनकर उभरता है।
राजेश जैन, 3 ए 12 , महावीरनगर विस्तार, कोटा
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ढाई दशक के अपने करियर में राजस्थान पत्रिका में ट्रेनी जर्नलिस्ट से शुरुआत करते हुए रिपोर्टर, सब एडिटर से लेकर न्यूज एडिटर तक की जिमेदारियों का निर्वाहन किया। फिलहाल फ्रीलांस जर्नलिस्ट हैं और देशभर के हिंदी अख़बारों में समसामयिक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर लिखते हैं। )