जैनधर्म के प्रवर्तक तीर्थंकर ऋषभदेव के निर्वाण कल्याणक 28 जनवरी 2025 पर विशेष :

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कर्म और योग संस्कृति के आदि निर्माता तीर्थंकर ऋषभदेव ने स्वाभिमान और स्वावलंबन सिखाया
-डॉ. सुनील जैन संचय, ललितपुर
 शाश्वत जैनधर्म के वर्तमान प्रवर्तक प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव भगवान का जन्म  चैत्र कृष्ण नवमी को शाश्वत धर्म नगरी अयोध्या में हुआ था। वहीं माघ कृष्ण चतुर्दशी को इनका निर्वाण कैलाश पर्वत पर हुआ। आदिनाथ (ऋषभदेव) पूजन में लिखा है-
माघ-चतुर्दशि-कृष्ण की, मोक्ष गये भगवान।
भवि जीवों को बोध के, पहुँचे शिवपुर थान।।
भगवान् ऋषभदेव की यशोगाथा से जैनसंस्कृति के साथ-साथ वैदिक संस्कृति भी अनुप्राणित है । वेदों में और श्रीमद्भागवत में अनेक प्रसंगों में भगवान् ऋषभदेव का अतिशय गुणगान किया गया है। जैन पुराणों में भगवान् ऋषभदेव के चरित्र का प्रामाणिक वर्णन आचार्य जिनसेन(सातवीं शती ईस्वी) कृत संस्कृत आदिपुराण में प्राप्त होता है । भगवान् ऋषभदेव अवसर्पिणी सृष्टि के सुखमादुःखमा नामक तृतीयकाल में हुए थे। तीर्थंकर ऋषभदेव का जन्म अयोध्या में इक्ष्वाकु वंश में हुआ था । उनके पिता राजा नाभिराय और माता रानी मरुदेवी थी । युवा अवस्था में आपका विवाह नन्दा और सुनन्दा नामक दो कन्याओं से हुआ था । महारानी नन्दा से भरत चक्रवर्ती आदि निन्यानबे पुत्र और ब्राह्मी नामक पुत्री का जन्म हुआ था और रानी सुनन्दा से बाहुबलि नामक पुत्र और सुन्दरी नामक पुत्री का जन्म हुआ था । प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान को आदिनाथ, वृषभदेव आदि नामों से भी जाना जाता है ।
जिस समय तीर्थंकर ऋषभदेव राज्यपद पर आसीन हुए उस समय सृष्टि में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ था । भगवान ऋषभदेव को युग के निर्माता के रूप में जाना जाता है इससे पहले मनुष्य कोई भी कार्य अर्थात पढ़ना, लिखना ,खेती व्यापार आदि जाने नहीं जानते। उस समय तक मनुष्य की सभी इच्छाएं कल्पवृक्ष से पूरी हो जाती थी लेकिन धीरे- धीरे कल्पवृक्ष का प्रभाव घटते गया। भगवान ऋषभदेव ने संपूर्ण विश्व को जीवन जीने की कला सिखाई।
भारतवासियों में स्वाभिमान और स्वावलंबन की प्रेरणा जगाने में तीर्थंकर ऋषभदेव का अतुलनीय योगदान है। तीर्थंकर ऋषभदेव ने मानव को स्वावलंबी होना सिखाया।  अयोध्या के राजा ऋषभदेव ने लोगों को खेती करना और अन्न उपजाना सिखाया। इतना ही नहीं, उन्होंने षट्कर्म की शिक्षा दी-ऋषभदेव ने मनुष्य को अपना जीवन जीने के लिए 6 कार्य असि -रक्षा करने के लिए अर्थात सैनिक कर्म , मसि – लिखने का कार्य अर्थात लेखन, कृषि – खेती करना एवं अन्न उगाना, विद्या- ज्ञान प्राप्त करने से संबंधित कार्य, वाणिज्य- व्यापार से संबंधित कार्य एवं शिल्प मूर्तियों, नक्काशी एवं भवन का निर्माण करना सिखाया। मनुष्यों को सबसे पहले इन षट्कर्मों के माध्यम से उन्हें स्वावलंबी बनाया। उन्होंने स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में अद्भुत क्रांति की। वे जानते थे कि स्त्री शिक्षित होकर ही स्वावलंबी और सशक्त हो सकती है।
भगवान ऋषभदेव ने लोगों को सुनियोजित तरीके से भवन का निर्माण करना, नगर बसाना, खेती करना, अन्ना उगाना, भोजन करना शिक्षा प्राप्त करना और उससे समाज में नियमों की स्थापना करना , व्यापार करना,पैसे कमाना ,अपने परिवार एवं देश की रक्षा करना का उपदेश देने के साथ-साथ संयम का भी पाठ सिखाया। भगवान आदिनाथ ने राज -पाठ के सुख एवं धन वैभव को त्याग कर वन की ओर गमन किया एवं मोक्ष की प्राप्ति की लेकिन हम अपना सारा जीवन सुख एवं धन के संग्रह में लगे हुए हैं ।
 उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत के नाम से ही इस आर्यावर्त का नाम  भारत नाम पड़ा। तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र बाहुबली स्वामी का तपोयोग जगत विख्यात है, वे एक वर्ष तक अडिग – अचल ध्यान मुद्रा में खड़े रहे, जिसकी प्रतिकृति कर्नाटक के श्रवणबेलगोल में आज भी उनकी यशोगाथा का गुणगान कर रही है । भगवान ऋषभदेव ने ही सर्वप्रथम अपनी दोनों पुत्री ब्राह्मी और सुंदरी को अक्षर लिपि और अंक गणित का ज्ञान दिया, जो कालांतर में ब्राह्मीलिपि के रूप में जगत विख्यात हुई ।
 तीर्थंकर ऋषभदेव ने दर्शन और अध्यात्म के क्षेत्र में एक व्यवस्थित स्वाधीनता की अवधारणा प्रस्तुत की और वह थी आत्मा को ही परमात्मा कहने की। ‘अप्पा सो परमप्पा’उनका उद्घोष वाक्य था। उसके बाद शेष 23 तीर्थंकर इसी दर्शन को आधार बनाकर स्व-पर का कल्याण करते रहे। उनका मानना था कि प्रत्येक मनुष्य जीवन में तप के माध्यम से स्वयं अपने समस्त दोषों को दूर कर भगवान बन सकता है अर्थात कोई भी आत्मा, परमात्मा का अंश होने के बावजूद उसके अधीन नहीं है। वह आत्मा पूर्ण स्वतंत्र है और मुक्ति प्राप्त कर सकता है।  ऋषभदेव के बाद के भारतीय दर्शन में उनका यह स्वर प्रमुखता से मुखरित हुआ है। उसकी चर्चा संसार का प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद इन शब्दों में करता है:  त्रिधा बद्धोवृषभोरोरवीतिमहादेवोमत्यां आ विवेश॥
इस मंत्र का सीधा शब्दार्थ है-तीन स्थानों से बंधे हुये वृषभ ने बारंबार घोषणा की कि महादेव मनुष्यों में ही प्रविष्ट हैं। यह घोषणा आत्मा को ही परमात्मा बनाने की घोषणा है। आत्मा में परमात्मा के दर्शन करने के लिए मन, वचन, काय का संयम आवश्यक है। यह तृप्ति ही वृषभ का तीन स्थानों पर संयमित होना है। उपनिषदों ने भी घोषणा की- अयम् आत्मा ब्रह्म। वेदांत ने तो इतना भी कह दिया कि सब शास्त्रों का सार यही है कि जीव ही ब्रह्म है- जीवो ब्रह्मैव नापरः:।
 ऋषभदेव के दो पुत्रों चक्रवर्ती भरत और बाहुबली के बीच जब युद्ध की नौबत आ गई और दोनों ओर सेनाएं खड़ी थीं, तब यह विचार हुआ कि विवाद भरत और बाहुबली के बीच है तो सेना युद्ध करके क्यों मरे? जन-धन की हानि क्यों हो? संवाद के माध्यम से यह तय हुआ कि युद्ध भरत और बाहुबली के बीच ही होगा, वह भी बिना किसी अस्त्र- शस्त्र के उपयोग के। निर्णयानुसार जल युद्ध, मल्लयुद्ध और दृष्टि युद्ध हुआ और बाहुबली विजयी हुए। बाहुबली ने जीतने के बाद भी राज्य भरत को दे दिया और स्वयं दीक्षा ग्रहण करके तपस्या करने चले गए। आज विश्व में युद्ध का वातावरण है, नि:शस्त्रीकरण की अवधारणा सिर्फ इसलिए आई थी कि शस्त्र होगा तो कभी न कभी युद्ध भी होगा और तबाही मनुष्य की ही होगी। इतिहास के अनेक युद्धों में हिंसक युद्ध का और निरस्त्रीकरण का पहला उदाहरण भी ऋषभदेव के समय में ही मिलता है।
तीर्थंकर ऋषभदेव का मानव सभ्यता के विकास में अतुलनीय योगदान था। इसी कारण इस देश का नामकरण ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम पर भारत रखा गया। सिर्फ जैन ग्रंथों में ही नहीं, बल्कि वैदिक परंपरा के अनेक पुराणों में कई स्थान पर इस बात की उद्घोषणा भी की गई है। अग्निपुराण (10/11) में उद्धरण है :ऋषभ दाता श्री पुत्रे शाल्यग्रामे हरिं गत:। भरताद भारतं वर्षं भरतात सुमति स्त्वभूत्।।
तीर्थंकर ऋषभदेव ने स्वयं अयोध्या में राजपाठ तो किया ही, किंतु बाद में विरक्त होकर दीक्षा ग्रहण कर जंगलों में जाकर तपस्या की और कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति कर मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त किया। ‘कृषि करो या ऋषि बनो’ इस सूत्र के मंत्र दाता के रूप में उन्होंने जीवन जीने की कला सिखलाई। उन्होंने न सिर्फ कृषि करना सिखाया, बल्कि ऋषि बनाना भी सिखाया।
आज भी हमारा देश और कृषि और ऋषि प्रधान माना जाता है। तीर्थंकर ऋषभदेव के जीवन और उपदेशों में प्रवृत्ति और निवृत्ति का अद्भुत समन्वय था, शायद इसीलिए  वैदिक परंपरा और  श्रमण परंपरा दोनों के ही वे आराध्य हैं। दोनों के ही शास्त्रों में उनका पुण्य स्मरण अत्यंत श्रद्धा के साथ किया गया है। इस दृष्टि से भारतीय संस्कृति को जोड़कर रखने वाले भगवान ऋषभदेव के मोक्ष कल्याणक को सभी मिलकर मनाएं तो भारतीय संस्कृति का नया मार्ग प्रशस्त होगा।
भगवान् ऋषभदेव अपने लोकव्यापी प्रभाव और उपदेशों के कारण भारतीय जनमानस के हृदय में सदैव श्रद्धास्पद रहेंगे । आज के भोगप्रधान वातावरण में भगवान् ऋषभदेव की योगप्रधान शिक्षाएं मानवजाति के कल्याण के लिए अत्यधिक प्रासंगिक हैं ।

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