बिल्कुल ऐसा लग रहा है न कि अधर अभी बोलना शुरू कर देंगे। हाथ आशीर्वाद को उठने ही वाले हैं। हमने बहुत सी मूर्तियां देखी हैं लेकिन ऐसी सजीव देव प्रतिमा आज ही देख रहे हैं।‘ ऐसा कहते हुए दर्शनार्थियों ने उस मूर्ति के शिल्पकार से उसकी प्रशंसा करते हुए कहा कि आपके हाथों में अद्भुत जादू है। तभी तो ऐसी उत्कृष्ट प्रतिमा बनाई है।
शिल्पकार ने अत्यंत विनम्रता से कहा कि -आप सब व्यर्थ ही मेरी प्रशंसा कर रहे हैं। मैंने कोई प्रतिमा नहीं बनाई है। प्रतिमा तो पत्थर के शिलाखंड में पहले से ही विद्यमान थी। मैंने तो बस इतना किया है कि उस शिला में प्रतिमा के अलावा जो भी अतिरिक्त पत्थर था वह हटा दिया है। उस अतिरिक्त के हटते ही पत्थर की शिला में छिपी हुई प्रतिमा साकार हो गई। हम भी अगर अपने अंतर में उस शिल्पी की दृष्टि से झांक कर देखें तो हमारे हृदय में भी भगवान उस शिलाखंड में छिपी प्रतिमा की तरह विराजमान हैं। लेकिन हमने उन्हें मोह, माया और आडंबरों से ढक रखा है।
तीर्थंकर पद पूर्णतया अपरिग्रह महाव्रत के धारण करने पर ही प्राप्त होता है। अतएव तीर्थंकर की प्रतिमायें भी प्रज्ञा की छेनी और आचरण की हथोड़ी से अतिरिक्त परिग्रह को अलग कर, त्याग कर के बनाई जाती है। जिस दिन हम इन गुणों की छैनी, हथौड़ी से अपने हृदय के आस-पास के अतिरिक्त मिथ्या आवरणों को अलग कर देंगे हम में भी वीतरागी की छवि दिखने लगेगी। जैसे ही हम अपने हृदय रूपी शिलाखंड से यह सब अतिरिक्त, सांसारिक बंधनों को अलग कर देंगे हमारा हृदय भी पूर्ण रूप से परमात्मा का स्वरूप ले लेगा।
तीर्थंकर नेमिनाथ जी और राजुल जी के विवाह भोज में पशु हिंसा की जानकारी होने पर पशुओं को बंधन मुक्त करा कर नेमि प्रभु ने दीक्षा ग्रहण कर ली। नव–नव भवों में नेम–राजुल की प्रेम कहानी दाम्पत्य जीवन जीती रही। नेमिनाथ के वैराग्य धरण करते ही राजुल ने भी दीक्षा ग्रहण कर मोक्ष प्राप्त किया। राम के साथ सीता को वन में जाते देख माता कौशल्या ने कहा – सीता! वनवास जाने का आदेश तो राम के लिए है। तुम क्यों अयोध्या छोड़ कर उनके साथ जा रही हो? सीताजी ने कहा – हे मां, मेरा विवाह अयोध्या के सुख से नहीं अपितु मेरे सौभाग्य ‘राम‘ से हुआ है। मैं अयोध्या के सुख के लिए अपने सौभाग्य राम को नहीं छोड़ सकती।हमारे सामने भी एक ओर हमें भ्रमित करने वाले संसार के सुख हैं और दूसरी ओर वीतरागता का सौभाग्य। हम इन प्रसंगों की दोहराते रोज हैं। लेकिन आचरण के प्रश्न पर सब कुछ जानते हुए भी सांसारिक सुखों को पाने की भाग-दौड़ में अपने शाश्वत सौभाग्य को भूलते जा रहे हैं। यह तो तब है जब यह सौभाग्य हमसे बदले में न वनवास को कहता है न हमारी कोई ऐसी कीमती वस्तु या हमारे सुविधा-उपकरण मांगता है, जिसे देकर हम अपंग हो जाएं या कोई असुविधा का अनुभव करें। वह तो हमसे बस हमारा हृदय चाहता है। निश्छल हृदय। जो हम सब के पास है। उसे देने से हम में कोई कमी भी नहीं आने वाली है। क्योंकि वो हृदय की धड़कन नहीं वो तो हम से हृदय की सरलता, वाणी की मधुरता चाहता है। कर्तव्य-परायणता, जीव-मात्र के प्रति प्रेम, दया, करुणा, सहिष्णुता की मांग करता है।
जज (से.नि.)
डॉ. निर्मल जैन