मुरैना (मनोज जैन नायक) वर्तमान में सांसारिक प्राणी आध्यात्मिक एवं लौकिक ज्ञान प्राप्त तो करता है, लेकिन उस पर अमल नहीं करता । केवल ज्ञान को रटने या पढ़ने से कुछ नहीं होता, उसे अपनाना पड़ता है, उसे स्वीकारना पढ़ता है । केवल शास्त्रों के अध्ययन करने से, कथा सुनने से या रामायण का पाठ करने से कुछ नहीं होगा, आपको शास्त्रों, कथाओं एवं रामायण के सूत्रों को, उसके सिद्धांतों को आत्मसात करना होगा, तभी आपके ज्ञान की सार्थकता होगी । आप लोग रट्टू तोते की तरह हो गए हैं। केवल ज्ञान की बातें, धर्म के सिद्धांत, शास्त्रों की गाथाओं को सुनते हैं, रटते हैं लेकिन उन सिद्धांतों को आत्मसात नहीं करते । ज्ञानार्जन करना ही आपने मूल ध्येय बना लिया है । इस तरह का ज्ञान कोरा ज्ञान कहलाता है । ज्ञान को केवल रटने या बोलने मात्र से कुछ नहीं होने बाला । इस ज्ञान को स्वीकार करना होगा, इसे आत्मसात करना होगा, तभी आपका कल्याण संभव है । ये तो सभी जानते है कि चोरी करना, असत्य बोलना, हिंसा करना पाप है, लेकिन इसे स्वीकार कितने लोग करते है । इन बातों का ज्ञान तो सभी को है, सभी अन्य लोगों को इन बातों की शिक्षा, उपदेश भी देते है, लेकिन स्वयं नहीं अपनाते। सिगरेट की डिब्बी, तंबाखू या अन्य मादक पदार्थों पर लिखा होता है कि ये शरीर के लिए हानिकारक है, इसका सेवन करने से केंसर जैसी बीमारी हो सकती है, फिर भी लोग इनका सेवन करते हैं। ऐसे कोरे ज्ञान से क्या फायदा । पूर्वाचार्यों ने कहा है “ज्ञान बोलता है और चारित्र मौन रहता है” ज्ञान को बोला जाता है, फिर भी व्यक्ति उसे आत्मसात नहीं करता लेकिन चारित्र मौन रहकर भी बहुत कुछ सिखा जाता है । केवल मात्र जानकारी से कुछ नहीं होगा, उसे स्वीकार करो, उसे आत्मसात करो तभी आपका कल्याण होगा । उक्त उद्गार जैन संत मुनिश्री विलोकसागरजी महाराज ने बड़े जैन मंदिर में धर्मसभा को संबोधित करते हुए व्यक्त किए।
कोरा ज्ञान किसी काम का नहीं !
मुनिश्री विबोधसागर महाराज ने बताया कि कोरा ज्ञान किसी काम का नहीं होता, क्योंकि यह केवल सैद्धांतिक होता है। सफलता तभी मिलती है जब ज्ञान को व्यवहार में लाया जाए और उसका सही उपयोग किया जाए। ये धर्म ही है जो मानव को मानव बनाता है । किसी ने कहा भी है कि धन गया तो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो कुछ गया। चरित्र गया तो सब कुछ गया।
जैन दर्शन में, ज्ञान और चरित्र एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं । सम्यक् ज्ञान (सही ज्ञान) और सम्यक् चरित्र (सही आचरण) मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक हैं। ज्ञान आत्मा का स्वभाव है, जो कर्मों के कारण ढका रहता है, और चरित्र उस ज्ञान को प्रकट करने और सही आचरण को बनाए रखने का मार्ग है। मोक्ष मार्ग के लिए तीन रत्न – सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र – महत्वपूर्ण हैं। इनके बिना इस संसार सागर से मुक्ति मिलना संभव नहीं हैं।
चारित्रवान व्यक्ति मौन रहकर भी देता है संदेश
कोई व्यक्ति कितना भी ज्ञानी हो, शास्त्रों का ज्ञाता हो, उसके उपदेशों को इतना प्रभाव नहीं होता, जितना एक चरित्रवान व्यक्ति के उपदेशों का प्रभाव पड़ता है । ज्ञानी की बात कम और चरित्रवान व्यक्ति की बात सहज ही मान ली जाती है । इसीलिए साधु संतों के प्रवचनों का, उनकी सीख का, उनके उपदेशों का तुरंत प्रभाव होता है और मनुष्य उन्हें स्वीकार भी करता है । क्योंकि ज्ञानी व्यक्ति उन सिद्धांतों को स्वीकार नहीं करता, सिर्फ उपदेश देता है और साधु संत कोरा उपदेश नहीं देते बल्कि उन सिद्धांतों का पालन करते हैं । वे अपने चारित्र से ही बहुत कुछ सिखा देते है ।
Unit of Shri Bharatvarshiya Digamber Jain Mahasabha