पुरातन काल से ही गुरु की महिमा अनुपम, अनूठी अतुलनीय व जीवन को नूतनता की ओर ले जाने वाली रही है।भारतीय संस्कृति में गुरु को भगवान से पहले पूज्यनीय बताया गया है क्योंकि गुरु ही गोविंद को प्राप्त करने का सदमार्ग बताते हैं। वर्तमान में गुरु के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने या उनके उपकारों को याद करने के लिए जैन,बौद्ध व हिन्दू धर्म मे गुरु पूर्णिमा मनाने की परंपरा है। इस महान दिवस पर हिन्दू धर्म मे आदि गुरु ऋषि व्यास का अवतरण दिवस, बौद्ध धर्म में भगवान बुद्ध ने सारनाथ में अपने शिष्यों को पहला उपदेश दिया था और जैन परंपरा मे अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने इंद्रभूति गौतम को अपना पहला शिष्य बनाने का उल्लेख मिलता है।
गुरु से पूर्व प्रत्येक जीव की प्रथम गुरु जननी अर्थात जन्म देने वाली मां होती है जो प्रसव पीड़ा सहन कर, वात्सल्य भाव पूर्वक अपनी कुक्षी से पुत्र पुत्री को जन्म देकर उन पर बहुत बड़ा उपकार करती है मां शब्द को परिभाषित करना कठिन ही नहीं अपितु अति कठिन प्रतीत होता है। इसका मुख्य कारण आप सब समझ सकते हैं कि जिसके उपकार को जीवन भर भुलाया नहीं जा सकता। उसे हम शब्दों से परिभाषित कैसे करें? मां शब्द जो की संस्कृत के मातृ शब्द से बना है एक प्रमुख किवदंती यह भी है कि यह शब्द गौ द्वारा बछड़े बछडी को जन्म देने के बाद ही उद्घाटित हुआ है।
भारतीय संस्कृति तथा कुछ गर्न्थो के अनुसार मां शब्द की उत्पत्ति गोवंश से हुई है। गाय का बच्चा बछड़ा जब जन्म लेता है तो वह सर्वप्रथम अपने रंभाने में जो स्वर निकालता है वह मां होता है यानी कि बछड़ा अपनी जन्मदात्री को मां के नाम से पुकारता है। मां शब्द ही अपने आप में पूर्ण है। माता शब्द में “मां” का अर्थ है ममतामयी तथा “ता” का अर्थ है तारक अर्थात तारने वाली। मां इस संसार रूपी भंवर से रक्षा करने वाली होती है। मां के स्मरण मात्र से ही एक भावभीनी सुगंध से मन का हर कोना महक उठता है।
यदि विचार करें तो मां को जहां प्रथम गुरु की उपमा दी गई है वहीं पर गुरु को पूर्ण मां की उपमा दी गई है। और वहीं से यह गुरु पूर्णिमा पर्व प्रारंभ हुआ है। गुरु लौकिक जिन्हें अकादमिक या शैक्षणिक कहते व अलौकिक जिन्हें आध्यात्मिक कहते हैं जो सांसारिक शिक्षा प्रदान करें वह लौकिक और जो संसार चक्र से मुक्ति का मार्ग बताएं वह अलौकिक गुरु होते हैं। यह पर्व अपने आराध्य, पूज्य जिन्होंने हमें सद मार्ग दिखाया है। ऐसे गुरु के प्रति कृतज्ञता जाहिर करने का सबसे बड़ा दिवस है गुरु पूर्णिमा का यदि संधि विच्छेद करें तो गुरु+ पूर्ण + मां अर्थात गुरु पूर्णिमा जिस प्रकार पूनम का चांद स्वयं में पूर्ण व बृहद होता है। तन- मन दोनों को शीतलता प्रदान करता है। उसी प्रकार गुरु भी हमें बुराइयों से निकालकर अच्छाइयों की ओर ले जाते हैं अर्थात हमारे सारे पापों को हर लेते हैं और हमें सद मार्ग रूपी शीतलता प्रदान करते हैं।
वर्तमान समय में इस पर्व को मनाने की परंपरा जैन संप्रदाय के साथ-साथ सभी संप्रदायों में अब बढ़ने लगी है। एक समय था जब गुरु द्रोणाचार्य के प्रति एकलव्य ने गुरु दक्षिणा के रूप में कृतज्ञता प्रकट की थी और आज इस स्वरूप को लेकर हम सबको भी गुरु के प्रति सच्ची श्रद्धा रखते हुए इस पावन पर्व को मनाना चाहिए किंतु यदि हम केवल दिखावे वह होड़ (जिसे हल्की भाषा में नंबर बढ़ाना कहते हैं) की दृष्टि से इस पर्व को मना रहे हैं तो फिर सार्थकता से परे है। गुरु वचन को प्रमुखता से पालन करना चाहिए ऐसा हम कर पाते हैं या नहीं कर पाते, यह तो स्वयं ही विचार करने का विषय है। यह पर वास्तविक रूप से बड़ा ही अनूठा अद्भुत मन के विकारों को दूर कर गुरु उपकार दिवस है।
*न हताश न निराश न थका हुआ हूँ*,
*उम्मीद का दिया जलाए हर पल आगे बढ़ा हूँ*।
*जब भी डगमगाए कदम गुरु ने थाम लिया*,
*चुनोतियों से अटे जीवन मे बड़ी दृढ़ता से डटा हुआ हूँ*।।
संजय जैन बड़जात्या कामां,राष्ट्रीय प्रचार मंत्री धर्म जागृति संस्थान