गर्भाशय तक पहुंच रहे प्लास्टिक के कण।

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विजय कुमार जैन राघौगढ़ म. प्र.
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मानव प्रतिदिन विभिन्न माध्यमों से प्लास्टिक खा रहा है। यह समस्या भारत की न होकर दुनिया की जटिल समस्या बन गई है। प्लास्टिक के अति सूक्ष्म कण भोजन, अल्पाहार एवं पानी के साथ हमारे शरीर में जा रहे हैं। जिससे हमारे शरीर में अनेक बीमारियां जन्म ले नहीं है। गंभीर बीमारियों से घिरकर असमय में मौतें हो रही है। वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर ( डब्ल्यू डब्ल्यू एफ)के ताजा शोध से पता चला है कि एक आदमी अति सूक्ष्म कणों के रूप में प्रतिदिन प्रतिमाह 21 ग्राम प्लास्टिक खा जाता है प्रति छै माह में लोग 125  ग्राम प्लास्टिक विभिन्न स्रोतों से खा लेते हैं। डब्ल्यू  डब्ल्यू ऑफ की रिपोर्ट में यह उल्लेख किया गया है एक आदमी तिल से भी छोटे कणों के रूप में न सिर्फ प्लास्टिक खा रहा है। बल्कि विभिन्न पेयों कोल्ड ड्रिंक्स,जूस,चाय एवं पानी के रूप में पी रहा है। डब्ल्यू डब्ल्यू ऑफ ने इस अध्ययन के लिए दुनिया भर में 50 से अधिक अध्ययनों के आंकड़े जुटाये हैं ।इस अध्ययन में 5 किलोमीटर आकर के प्लास्टिक तक के सेवन की बात सामने आई है। प्लास्टिक प्रदूषण अब नए चिंता जनक स्तर पर पहुंच गया है। टॉक्सियोलॉजीकल साइंसेज में प्रकाशित अध्ययन में बताया गया है कि प्लास्टिक के सूक्ष्म कण अब माता के गर्भ तक पहुंच गए हैं। अध्ययन के अनुसार शोधकर्ताओं ने 62 प्लेसेंटा (भ्रूण तक पोषण पहुंचाने वाला गर्भाशय का हिस्सा) नमूनों का अध्ययन किया। सभी 62 नमूनों में 6.5 से 790 माइक्रोग्राम तक माइक्रो प्लास्टिक मिला ।अध्ययनकर्ता अमेरिका स्थित यूनिवर्सिटी आफ न्यू मैक्सिको हेल्थ साइंसेज के वैज्ञानिकों ने चेताया है कि प्लास्टिक की यह मात्रा कम लग सकती है पर दो कारणों से चिंता जनक है। पहला हमारे आसपास लगातार प्लास्टिक प्रयोग बढ़ रहा है ऐसे में प्रदूषण के आगे और बढ़ने की आशंका से इन्कार नहीं किया जा सकता। दूसरा प्लेसेंटा माता के गर्भ में 8 महीने के लिए ही बनता है, इस 8 माह के अल्प समय में ही गर्भाशय के इस हिस्से पर प्लास्टिक के कणों का पहुंचना बताता है कि हमारे आसपास किस कदर प्लास्टिक प्रदूषण पैर पसार चुका है। हर 10 से 15 साल में प्लास्टिक प्रदूषण की मात्रा दो गुनी हो रही है। इसका आशय यह है कि अगर हम इसको आज रोक भी दें तो 2050 तक आज से 3 गुना प्लास्टिक के साथ जी रहे होंगे। अध्ययन कर्ता  ने दान किए गए प्लेसेंटा उत्तकों का विश्लेषण किया।सेपोनिफिकेशन नामक प्रक्रिया में उन्होंने नमूने का पहले केमिकल उपचार किया। फिर उन्होंने प्रत्येक नमूने को एक अल्ट्रासेंटीफ्यूज में घुमाया, जिससे एक ट्यूब के नीचे प्लास्टिक के छोटे कण शेष रह गए। इसके बाद टीम ने पायरोलिसिस नामक तकनीक का इस्तेमाल किया। उन्होंने प्लास्टिक कणो को एक धातु के कप में 600 डिग्री सेल्सियस तक गर्म किया। इस दौरान गैस उत्सर्जन के रूप में अलग-अलग तापमान पर निकलने वाले विभिन्न प्लास्टिक के कणों को जमा किया गया। प्लेसेंटा में सबसे अधिक पॉलिएथिनलीन  नमक पॉलीमर पाया गया। इसकी मौजूदगी 54% रही। यह प्लास्टिक की थैलियां और बोतलें बनाने के लिए उपयोग में आता है इसके बाद पॉलिविनाइल क्लोराइड (पीवीसी) और नायलॉन के कणों की मौजूदगी 10-10% रही 309 अन्य पॉलीमर शामिल है। शोध के मुख्य लेखक  मैथ्यू कैंपेन के अनुसार मानव उत्तकों में माइक्रो प्लास्टिक की मौजूदगी से संभवत: ये समझा जा सकता है कि  हम 50 से कम उम्र के लोगों में कुछ खास रोग जैसे इन्फेलेटरी बाउल डिसीज, कोलोन कैंसर महिलाओं में गर्भाशय में बीमारी के साथ शुक्राणुओं के घटने की समस्या को बढ़ते देख रहे हैं। गौरतलाप है कि माइक्रो प्लास्टिक 10 माइक्रोन आकर (0.01 एमएम) के सूक्ष्म कण होते है। यह इतने छोटे होते हैं कि आसानी से हमारी नसों में खून के प्रवाह के साथ प्रवेश कर सकते हैं कोई हैरानी नहीं कि यह गर्भ में मौजूद शिशु तक भी पहुंच गए हों। पर हम इसका अध्ययन नहीं कर सके। इस तरह के अध्ययन पहले भी हुए हैं जिनसे प्लेसेंटा में प्लास्टिक के कण पाए गए थे पर यह पहला मौका है जब इतनी अधिक संख्या में नमूनों का अध्ययन किया गया। साथ ही यह भी देखा गया कि प्लेसेंटा में कौन से प्लास्टिक कण हैं।
नोट :- लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं भारतीय जैन मिलन के राष्ट्रीय वरिष्ठ उपाध्यक्ष हैं।
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