गणेशप्रसाद वर्णी जी की 150 जन्म जयंती वर्ष पर विशेष

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संस्कृति उन्नायक गणेशप्रसाद वर्णी जी और उनका अवदान
                   -डॉ. सुनील जैन संचय, ललितपुर
गणेशप्रसाद वर्णी जी एक ऐसा नाम जिन्होंने अनेक संघर्षों से जूझते हुए शिक्षा की अनोखी अलख जगाई। उनका जीवन अनेक उतार -चढ़ाव से युक्त विविध दृष्टियों से बहुरंगी रहा। एक सामान्य से अति-सामान्य युग-पुरुष के रूप में उभरे वर्णी जी का जन्म सन् 1874 में उत्तर प्रदेश में ललितपुर जिला अन्तर्गत हंसेरा ग्राम (मड़ावरा के निकट) में एक वैष्णव परिवार में हुआ। आपकी धर्ममाता चिरोंजाबाई थीं । वे बहुत धर्मात्मा और त्याग की मूर्ति थीं । अपनी निरीह और कष्ट -सहिष्णु वृत्ति के बलपर गणेशप्रसाद जी वर्णी ने चिरोंजा बाई को धर्ममाता के रूप में और उनकी लाखों की संपत्ति सुलभ हो जाने पर भी वे उससे दूर ही रहे।इतना ही नहीं वर्णी जी न्यायाचार्य होते हुए ही त्याग की ओर कदम बढ़ाते हैं और आजीवन ब्रह्मचर्य की विधिवत दीक्षा भी लेते हैं। नागरिक क्षेत्र सुलभ होते होने पर भी गणेशप्रसाद जी वर्णी ग्रामों को अपना कार्यक्षेत्र बनाते हैं और सैकड़ो ग्रामों में पाठशालाएं स्थापित करा देते हैं। आपकी जैनधर्म में श्रद्धा का कारण महामन्त्र णमोकार था, क्योंकि णमोकार मन्त्र ने उन्हें बड़ी—बड़ी आपत्तियों से बचाया था तथा आपने पद्मपुराण ग्रंथ से प्रभावित होकर रात्रि भोजन का त्याग किया ।
आपने 1947 में जैन श्रावक के उत्कृष्ट व्रत स्वरूप ग्यारह प्रतिमा (क्षुल्लक दीक्षा) धारण की थी । वर्णीजी ने 5 सितम्बर, 1961 को ईसरी में सल्लेखनापूर्वक देह का त्याग किया ।
अजातशत्रुता लोकोत्तर है :
वर्णी जी की प्रेरणा और मार्गदर्शन से सैंकड़ों पाठशालाएँ, विद्यालय और महाविद्यालय खुले। वर्तमान में जितने भी विद्वान् देखे जाते हैं, वह उनके अज्ञान अन्धकार मिटाने के प्रयास का सुफल है ।
पूज्य वर्णी जी के दयालुता, निर्लोभता, दृढ़ता आदि गुणों की अपेक्षा उनकी अजातशत्रुता लोकोत्तर है। पूरे जीवन संघर्ष करके भी इन महानुभाव ने किसी के प्रति द्वेषभाव अपने मन में कैसे नहीं आने दिया? यह एक रहस्य है।’दोष से घृणा करो, दोषी से नहीं’ इसका कार्यरूप देखना है तो वर्णी जी के जीवन को देखना चाहिए।  पूज्य वर्णी जी जैन प्राच्य विद्याओं, विद्यालयों के महान उद्धार कर्ता थे। इन्होंने शिक्षा जगत में महान क्रांति की। इन्होंने बुंदेलखंड की अवनत दशा को बड़ी गहराई से देखा -परखा और समझा था।
वर्णी जी कथनी और करनी एक थी :
पूज्य वर्णी जी का पूरा जीवन कथनी और करनी की एकरूपता का साक्षी है।एक ही जीवन में  साधारण से असाधारण कैसे बना जा सकता है इसको देखना है तो वर्णी जी के जीवन को देखा जा सकता है। धर्म और समाज के नाम पर प्रचलित रूढ़ियों ने युवक गणेशप्रसाद के हृदय में धर्म के ज्ञान की ऐसी उत्कट इच्छा उत्पन्न की कि वे संस्कृत पढ़ने के लिए मुंबई, खुर्जा, जयपुर, मथुरा आदि नगरों को सब प्रकार के कष्ट उठाते हुए जाते हैं। हजारों मील पैदल चलते हैं तथापि ज्ञान-पिपासा शांत न हुई तो सम्वत 1961 में काशी पहुँचते हैं।
64 पोस्टकार्डों से काशी में खुला स्याद्वाद महाविद्यालय :
सर्व विद्या की राजधानी के रूप में प्रसिद्ध काशी में पूज्य वर्णी जी को अध्ययन के दौरान अनेक अपमान -जनक विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। पर उन्होंने हार नहीं मानी, उन्होंने जिस दृढ़ इच्छाशक्ति और दृढ़ संकल्प से काशी में 1905 में स्याद्वाद महाविद्यालय की स्थापना की, वह अपने आप में एक मिशाल है। उन्होंने प्रथम दान में प्राप्त मात्र एक रुपये के 64 पोस्टकार्डों में समाज के श्रेष्ठियों एवं विद्या-प्रेमियों को लिखकर इस महाविद्यालय की स्थापना कराई। वर्णी जी द्वारा स्थापित श्री स्याद्वाद महाविद्यालय से निकले स्नातकों ने ही जैनधर्म के प्रचार-प्रसार में जिस भूमिका का निर्वाह किया है, वह जैन इतिहास की महत्त्वपूर्ण धरोहर है।
वर्णी जी ने आजादी के लिए समर्पित की चादर :
वर्णीजी ने एकबार  जबलपुर में हो रही आमसभा में आजादी के पुजारियों की सहायतार्थ  अपनी चादर समर्पित की थी । इस चादर से उसी क्षण तीन हजार रुपये की मिली राशि ने सभा को आश्चर्यचकित कर दिया ।   भक्तों ने बोली लगाकर उस चादर को खरीदा और मिले पैसों को नेताजी सुभाषचंद बोस की आजाद हिन्द फौज को सौंप दिया। जो आज भी स्मरणीय है।
वर्णी जी की प्रेरणा  से खुले अनेक  विद्यालय :
समाजोद्धार और जिनशासन की प्रभावना हेतु वे लोगों में सत-शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना आवश्यक मानते थे, क्योंकि सत-शिक्षा ही उन्नति की ओर ले जाती है। इसलिये उन्होंने जगह-जगह पाठशालाएँ, विद्यालय, महाविद्यालय, छात्रावास, गुरुकुल आदि शैक्षणिक संस्थाओं को स्थापित करने की प्रेरणा दी।उन्होंने वाराणसी में 1905 में स्याद्वाद महाविद्यालय की स्थापना की, इसके साथ ही साढूमल, ललितपुर, बरुआसागर जिला झांसी, सागर, द्रोणगिरि, आहार जी, मड़ावरा, मलहरा, पटनागंज, शाहपुर, जबलपुर, कटनी, ललितपुर, नैनागिर, पपौरा जी आदि अनेक स्थानों पर पाठशालाएं, विद्यालय खुलवाए। इन संस्थाओं में जैनदर्शन, न्याय, साहित्य, व्याकरण, प्राकृत, संस्कृत आदि प्राच्य विद्याओं के विषयों में उच्च शिक्षा का अच्छा प्रबंध किया गया।  बुंदेलखंड के बाहर भी वर्णी जी की सत्प्रेरणा से अनेक विद्यालय और महाविद्यालय स्थापित हुए। जिनमें जैन गुरुकुल हस्तिनापुर, कुन्दकुन्द कालेज खतौली, महिला महाविद्यालय गया आदि प्रमुख हैं। दिल्ली, फिरोजाबाद, इटावा, सहारनपुर आदि अनेक स्थानों पर वर्णी जी की प्रेरणा से शिक्षण संस्थाएं स्थापित हुईं। आपने अपने सम्यक् पुरुषार्थ से बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में जैन विद्या सम्बन्धी पाठ्यक्रम प्रारम्भ कराया था ।
विनोबा भावे जी और वर्णीजी : विनोबा भावे जी ने वर्णीजी को अपना अग्रज माना और उनके चरण स्पर्श किए और अनेक बार उनका सान्निध्य प्राप्त किया ।
गणेश प्रसाद जी वर्णी जी की 150 वीं जन्म जयंती समारोह वर्ष:  यह वर्ष पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी जी की 150 वीं जन्म जयंती समारोह के रूप मनाया जा रहा है। मुख्य रूप से वर्णी संस्थान विकास सभा के द्वारा पूरे वर्ष वर्णी जी को समर्पित अनेक आयोजन तत्परता के साथ आयोजित किए जा रहे हैं जिसमें वर्णी जी की जन्म भूमि हँसेरा (मड़ावरा) में एक भव्य वर्णी स्मारक का निर्माण पूर्णता की ओर है साथ ही गणेश प्रसाद वर्णी जी की 4 फुट की प्रतिमा भी स्थापित की जा रही है, स्थापित होने से पूर्व यह प्रतिमा वर्णी ज्ञान प्रभावना रथ के माध्यम से बुंदेलखंड के विभिन्न स्थानों से होकर गुजरेगी। यह  मूर्ति न्यायमूर्ति विमला जी जैन, सुरेशचंद जी जैन आईएएस भोपाल के सहयोग से बनवाई गई है। हम सभी का दायित्व है कि इस कार्य में तन, मन, धन से अपना योगदान दें।
प्राच्य भाषाओं एवं विद्याओं का संरक्षण-संवर्धन :
आज जो प्राच्य भाषाओं एवं विद्याओं के अध्ययन अध्यापन में रुचि बड़ी है, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि प्राच्य विद्याओं को पढ़ने की रुचि जाग्रत हुई, यह सब पूज्य वर्णी जी की ही अमूल्य, अनमोल देन है। पूज्य वर्णी जी का भारतीय प्राच्य विद्याओं के संरक्षण और सम्बर्धन में अनुकरणीय योगदान सदैव इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित रहेगा। आज जरूरत है उनके पद चिन्हों पर चलने की और उनके द्वारा स्थापित संस्थाओं के संरक्षण और संवर्धन की।
पूज्य गणेशप्रसाद जी  वर्णी जी ने जो हमें दिया उसे हम कभी भी भुला नहीं सकते। भले ही मैंने पूज्य वर्णी जी को प्रत्यक्ष देखा न हो पर उनकी ‘मेरी जीवन गाथा’ पढ़कर उनके विशाल, बेमिसाल और अद्भुत व्यक्तित्व ने मुझे बहुत प्रभावित किया है।मेरा सौभाग्य रहा है कि  मैंने अपनी शिक्षा पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी द्वारा स्थापित विद्यालयों-छात्रावासों में ही पूर्ण की है, मैं आज जो कुछ हूँ इन्हीं विद्यालयों के कारण ही हूँ।   हम सभी के ऊपर उनका बड़ा ऋण है।
            वर्णी जी ने बहुत कुछ दिया,
            हम भी तो कुछ देना सीखें।
            बनें कृतज्ञ , कृतघ्न नहीं,
          अर्जन के साथ विसर्जन सीखें।।
-डॉ. सुनील जैन संचय
गांधीनगर, नईबस्ती
ललितपुर 284403 उत्तर प्रदेश
9793821108

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