*साधना साहित्य सदाचरण की त्रिवेणी का* *समाधिमरण, अवदान अमर।*
*वेदचन्द जैन*
जैन धर्म के वर्तमान युग के श्रेष्ठ श्रमण संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर महाराज की छत्तीसगढ़ के डोंगरगढ़ में समता पूर्वक समाधि हो गई। लगभग माह भर से अस्वस्थ अंतिम तीन दिन पूर्व ही उन्होंने आहार जल त्याग दिया था। सत्तावन वर्षों से जैन मुनि चर्या की कठिन साधना का पूर्ण पालन करते हुये अनेक मुनियों और आर्यिकाओं को दीक्षा देकर अहिंसा पथ को आलोकित किया। उनकी समाधि से जैन धर्मावलंबियों सहित दर्शन जगत में शोक की लहर है।
कर्नाटक के बेलगाम जिला के ग्राम सदलगा में 10 अक्टूबर 1946 शरद् पूर्णिमा को एक धार्मिक परिवार में द्वितीय संतान के रूप में जन्म लेकर अपने आचरण साधना लोकोपकारी उपदेशों साहित्य सृजन से अद्वितीय स्थान बनाया। बाल्यकाल से ही वैरागी प्रवृत्ति के बालक विद्याधर में जैन दर्शन के पथानुरागी होने के लक्षण दिखने लगे थे।21वर्ष की आयु में राजस्थान के अजमेर नगर में आचार्य श्री ज्ञान सागर महाराज से जैनेश्वरी दिगंबर मुनि दीक्षा लेकर अहिंसा के पथ पर बढ़ गये।बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री विद्यासागर महाराज ने दीक्षा लेते ही नमक और शक्कर का आजीवन त्याग कर अपनी साधना की दृढ़ता का आभास करा दिया। 1972 में उनके दीक्षा गुरू ने मुनि श्री विद्यासागर को आचार्य पद देकर दीक्षा गुरू ने नवीन आचार्य की चरण वंदना कर साधना जगत का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया,मान निवृत्ति की ऐसी घटनाएं दुर्लभ हैं जब अपने ही शिष्य को आचार्य पद देकर उनके चरणों में नमोस्तु कर निवेदन करे।
ज्ञान दर्शन और आचरण की त्रिवेणी उनमें समाहित थी। निस्पृह प्रवृत्ति रखते हुये जगत के किसी भी कार्य से जुड़े बिना जगत का कल्याण करने की उनकी विशेषता ही संत शिरोमणि की उपाधि को सार्थक करती है।उनका न तो किसी के प्रति राग था न किसी के प्रति द्वेष था।सभी जीवों के लिये करुणा और वात्सल्य का सागर लहराता था। उनकी वाणी और साधना का ऐसा प्रभाव था कि दर्शनार्थी सम्मोहित हो जाता था। विशिष्ट और सामान्य सब सम थे उनका आशीर्वाद सब के लिये बराबर था। अपनी काया से उन्हें कभी राग नहीं रहा,काया को साधना का साधन मानकर चौबीस घंटे में एकबार नीरस आहार और गर्म जल ग्रहण करते थे। उनकी ही पंक्तियां हैं
काया का कायल नहीं काया में हूं आज,
कैसे कायाकल्प हो ऐसा कर तप काज।
जैन धर्म के वर्तमान युग के श्रेष्ठ श्रमण संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर महाराज की छत्तीसगढ़ के डोंगरगढ़ में समता पूर्वक समाधि हो गई। लगभग माह भर से अस्वस्थ अंतिम तीन दिन पूर्व ही उन्होंने आहार जल त्याग दिया था। सत्तावन वर्षों से जैन मुनि चर्या की कठिन साधना का पूर्ण पालन करते हुये अनेक मुनियों और आर्यिकाओं को दीक्षा देकर अहिंसा पथ को आलोकित किया। उनकी समाधि से जैन धर्मावलंबियों सहित दर्शन जगत जैन जगत में शोक की लहर है।
कर्नाटक के बेलगाम जिला के ग्राम सदलगा में 10 अक्टूबर 1946 शरद् पूर्णिमा को एक धार्मिक परिवार श्री मल्लप्पा जी श्रीमती जी अष्टगे की द्वितीय संतान के रूप में जन्म लेकर अपने आचरण साधना लोकोपकारी उपदेशों साहित्य सृजन से अद्वितीय स्थान बनाया। बाल्यकाल से ही वैरागी प्रवृत्ति के बालक विद्याधर में जैन दर्शन के पथानुरागी होने के लक्षण दिखने लगे थे। बाल्यकाल में ही बालक विद्याधर ने आचार्य श्री देशभूषण महाराज से आजीवन ब्रम्हचर्य का व्रत लेकर अपना मार्ग प्रशस्त कर लिया । 21वर्ष की आयु में राजस्थान के अजमेर नगर में आचार्य श्री ज्ञान सागर महाराज से जैनेश्वरी दिगंबर मुनि दीक्षा लेकर अहिंसा के पथ पर बढ़ गये।बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री विद्यासागर महाराज ने दीक्षा लेते ही नमक और शक्कर का आजीवन त्याग कर अपनी साधना की दृढ़ता का आभास करा दिया था। 1972 में उनके दीक्षा गुरू ने मुनि श्री विद्यासागर को आचार्य पद देकर दीक्षा गुरू ने नवीन आचार्य की चरण वंदना कर साधना जगत में एक अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया,मान निवृत्ति की ऐसी घटनाएं दुर्लभ हैं जब अपने ही शिष्य को आचार्य पद देकर उनके चरणों में नमोस्तु कर निवेदन करे।
ज्ञान दर्शन और आचरण की त्रिवेणी उनमें आचार्य श्री विद्यासागर महाराज में समाहित थी। निस्पृह प्रवृत्ति रखते हुये जगत के किसी भी कार्य से जुड़े बिना जगत का कल्याण करने की उनकी विशेषता ही संत शिरोमणि की उपाधि को सार्थक करती है।उनका न तो किसी के प्रति राग था न किसी के प्रति द्वेष था।सभी जीवों के लिये समान करुणा और वात्सल्य का सागर लहराता था। उनकी वाणी और साधना का ऐसा प्रभाव था कि दर्शनार्थी सम्मोहित हो जाता था। विशिष्ट और सामान्य सब समान थे उनका आशीर्वाद सब के लिये बराबर था। अपनी काया से उन्हें कभी राग नहीं रहा,काया को साधना का साधन मानकर चौबीस घंटे में एक बार नीरस आहार और गर्म जल ग्रहण करते थे। उनकी ही पंक्तियां हैं
काया का कायल नहीं काया में हूं आज,
कैसे कायाकल्प हो ऐसा कर तप काज।
आचार्य श्री विद्यासागर महाराज स्वपर हितकारी साधक थे,उनका लक्ष्य आत्मा का शोधन कर सिद्धत्व की प्राप्ति था । अपनी साधना से आत्मशोधन करते हुये पर कल्याण पर भी ध्यान रखा। सूक्ष्म और स्थूल सभी जीवों के प्रति उनकी करुणा अवर्णनीय है।आचार्य महाराज समाज सुधारक थे।पद दलित माटी के उद्धार पर उन्होंने मूकमाटी महाकाव्य की रचना की,जो कि शांत रस की अनुपम कृति है।पददलित माटी कुंभ रूप में शीर्ष पर विराजमान होने की यात्रा मूकमाटी की विषय वस्तु है। दलित उत्थान की शोधन कर पूज्य बनने की यात्रा पर रचित महाकाव्य पर शताधिक शोध संपन्न हो चुके हैं। नर्मदा के नरम कंकर,तोता क्यों रोता ,दोहा शतक सहित अनेक ग्रथों की रचना कर अध्यात्म और साहित्य को अनमोल कोष दिया है। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री सहित अने शीर्षस्थ राजनेता ,सभी विचारधाराओं के चिंतक विभिन्न धर्मों के शीर्षस्थ संत उनके दर्शन करने भिन्न भिन्न स्थलों पर आते रहे हैं।
भारत में हथकरघा की प्रेरणा देकर हजारों महिला पुरुषों को व्यवसाय उपलब्ध कराया।आत्मनिर्भर बनने की दिशा में आगे बड़ाया।उनकी प्रेरणा से सैकड़ों गोशालायें चल रही हैं और लाखों गोवंश का पालन संरक्षण हो रहा है। आचार्य श्री विद्यासागर महाराज ने भारत के समकालीन समाज को प्रभावित किया है। कुछ न कर भी जीव कल्याण और समाज का हित सतत करते थे आचार्य श्री विद्यासागर महाराज।उनकी पंक्तियां हैं
किस किस का कर्ता बनूं, किस किस का मैं कार्य,
किस किस का कारण बनूं, किस किस का मैं कार्य।
महिला शिक्षा के लिये भारत के विभिन्न नगरों में प्रतिभास्थली उनकी प्रेरणा से स्थापित होकर सफलता पूर्वक संचालित हो रही हैं। अनियत विहारी,पदयात्री, करपात्री,सांसारिक आलंबनों के पूर्ण त्यागी,भूशयनी,अभिमान शून्य,विनय संपन्न वीतरागी, करुणामयी मनमोहक मुस्कान, न कोई अपना न कोई पराया,पथिक भी पथ प्रदर्शक भी,निर्मोही, निस्पृह, अनासक्त, अनाकांक्षी आदि अने दुर्लभ गुणयुक्त आचार्य श्री विद्यासागर महाराज का बढ़ती आयु के साथ तन तो शिथिल हो रहा था मगर चेतन और अधिक जागृत।
डोंगरगढ़ में अस्वस्थ देह देख छै फरवरी को आचार्यत्व के कर्तव्यों से मुक्ति लेकर अंतिम तीन दिन पूर्व ही आहार जल का त्याग कर मौन धारण कर लिया था।उत्कृष्ट समाधि लेकर समतापूर्वक आकुलरहित देह को 17 फरवरी की रात्रि 2.30 बजे त्याग दिया।अब तक संसार उनकी कायिक आचरण चर्या से आलोकित था,अब उनके विचार उपदेश युगों तक आलोकित करते रहेंगें।
इस पथ का उद्देश्य नहीं है श्रान्त भवन में टिक रहना
किंतु पहुंचना उस मंजिल तक जिसके आगे राह नहीं है।
*वेदचन्द जैन*
*गौरेला(छ.ग.)*