जो वस्तु अपनी नहीं है, उसमें ‘मेरा’पना छोड़ना, त्याग कहलाता है। वह त्याग जब सम्यग्दर्शन के साथ होता है, तब ‘उत्तम त्याग धर्म’ कहलाता है।
प्रातः 7:00 बजे बहुत ही भक्ति भावपूर्ण से अभिषेक एवं शांतिधारा की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। भगवान को अपने मस्तक पर रख कर लेकर जाने एवं पांडुशीला पर विराजमान कर अभिषेक एवं
शांतिधारा के पश्चात बड़े ही भक्ति भाव से दसलक्षण मंडल विधान की श्रावकों द्वारा पूजा की गई मंदिर समिति के अध्यक्ष सिद्धार्थ हरसोरा एवं महामंत्री पारस जैन ने बताया कि
सायकालीन बेला में आरती के पश्चात पंडित सुनील कुमार जैन शास्त्री घुवारा ने अपने प्रवचन में उत्तम त्याग के बारे में बताया की जीवन में जो ग्रहण किया है उसको छोड़ना आवश्यक है यदि सांस ली है तो छोड़ना ही पड़ेगा आचार्य धन की तीन गति कहीं हैं दान ,भोग ,नास, व्यक्ति ने अपने जीवन में जो भी कमाया है उसका भोग कर लेना चाहिए यदि नहीं कर पाओ तो दान कर लेना चाहिए यदि दान भी नहीं कर पाए तो वह संपत्ति सुताई नष्टता को प्राप्त हो जाएगी क्योंकि बिना छोड़ें कुछ मिलता नहीं है या तो स्वयं छोड़ दो नहीं तो सुता ही छूट जाती है इस आत्मा को परमात्मा बनाने के लिए त्याग आवश्यक है क्रोध आदि कषाय,पांच पाप ,आदि का त्याग कर लेना यही वास्तव में उत्तम त्याग धर्म कहलाता है। इसलिए इन सब का त्याग कर देना चाहिए तभी हमारे जीवन का कल्याण हो सकता है। इस अवसर पर मंदिर समिति के पदाधिकारी संजय जेठानीवाल, महेंद्र जी लांबावास , निर्मल कुमार सेठी ,
प्रकाश चंद पाटनी, रोहित खटोड़, अंकुश आदि उपस्थित रहे