मानव जीवन में अध्यात्म का बहुत महत्व है। जो व्यक्ति आध्यात्मिक जीवन के साथ आगे बढ़ता है, उसका जीवन सफल हो जाता है। डॉ. ‘चंद्रा बड़जात्या” जैनाचार एवं धर्मशास्त्रीय आचार में लिखते हैं – धर्म और आचार का मिश्रण ही अध्यात्म है। जो व्यक्ति इंद्रियों और विवेक का प्रयोग कर सरलता और निर्मलता सिखाकर “शरीर तो नश्वर है तथा स्वात्मा ही अपनी है” इस भेदभाव से अवगत कराता है। वह अध्यात्म है। अध्यात्म वह मार्ग है जो जीवन के प्रत्येक पल को आनंद और अनाशक्ति के साथ जीवन व्यतीत करने का पाठ पढ़ाता है, न सुख में अहंकार हो न दुख में व्याकुलता। अतः शरीर या अन्य पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट की कल्पना को त्यागकर तथा उनसे मोह को छोड़ता है वही सुखी रह सकता है। वस्तु स्वरूप का ज्ञान होने पर घोर कठिनाइयों में भी हम आकुलित न होकर संकटों को सहन कर सकते हैं।
आचार्य कुंदकुंद स्वामी कहते हैं- जिन्होंने निज शुद्धात्मादि पदार्थो व सूत्रों को भली भांति जान लिया है, जो संयम और तपयुक्त है तथा वीतराग है और जिन्हें सुख-दुःख समान है, ऐसे श्रमण शुद्धोपयोगी हैं । श्रमण संस्कृति व्यक्ति को इस भेद विज्ञान का दर्शन कराकर उसे निःश्रेयस के मार्ग पर चलने के लिए प्रवृत्ति करती है। अध्यात्म के धरातल पर जीवन का चरम विकास श्रमण संस्कृति का अंतिम लक्ष्य है। जिसकी प्राप्ति के लिए प्रत्येक साधक को रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन समयग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र के मार्ग पर चलना होता है। इस मार्ग पर चलने के लिए एक समग्र आचार संहिता बनाई गई।
आध्यात्मिक विकास के लिए आचार की प्रथम सीढ़ी सम्यग्दर्शन है । इसके बिना ज्ञान, विकास का साधन नहीं हो सकता है और साधना भी सम्यक नहीं हो सकती। इसलिए श्रावक और श्रमण दोनों के लिए सम्यग्दर्शन अनिवार्य रूप से आवश्यक है। इसके बाद ज्ञान स्वतः विकासन्मुख हो जाता है, किंतु ज्ञान की समग्रता साधन के बिना संभव नहीं। सम्यग्दृष्टि व्यक्ति आचार मार्ग में प्रवक्ता होने के लिए क्रमशः श्रावक और श्रमण के आचार को स्वीकार करता है। अपनी शक्ति के अनुसार श्रमण धर्म स्वीकार कर लेता है।
आध्यात्मिक जगत में जीने वाला व्यक्ति यह जानता है कि एक मात्र आत्मतत्व ही मेरा है। शरीर, धनादि पर पदार्थ है, अतः वह आत्महित के लिए शरीर का उपयोग साधना के लिए करता है। संयम और तप साधना में लगकर पर पदार्थ में आसक्ति नहीं रखता तथा तन और धन का उपयोग आत्महित में करता है। श्रावक देवपूजा और दान देता है तथा शील उपवास करता है। आंतरिक शुद्धि में समता भाव का महत्व है। मुनि के पास बाहय परिग्रह तो होता नहीं है आंतरिक शुद्धि के लिए वह मन से क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक भय, जुगुप्सा, स्त्री वेद, नपुंसक वेद, पुरुष वेद इस तरह कषाय और नोकषाय भाव के त्याग की कठिन तपस्या करता है। आचार में अहिंसा, विचारों में अनेकांतवाद समाज में समता और अपरिग्रह और भाषा में स्यादवाद पद्धति को अपनाकर जीवन मुक्त होने का प्रयास करता है। समता की साधना से उसमें समत्व भाव जागृत होता है, जिससे वह अपनी आत्मा में ही आत्मस्थ होने का प्रयास करता है। निर्मल परिणाम होने के कारण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र की आराधना करते हुए आत्मा के अत्यंत निकट रहता है। अध्यात्म आत्मा के निकट रहकर राग, द्वेष,मोहादि भावों को जीवन से दूर हटाने के लिए पुरुषार्थ करने की प्रेरणा देता है। जैन साधना पद्धति में तप, ध्यान और अनुप्रेक्षाओं का महत्व इसलिए है क्योंकि इसके द्वारा आत्मिक विकास होता है। कर्मों की निर्जरा होती है तथा परिणाम अंत समय तक निर्मल बने रहते हैं।
आज स्थिति यह है कि मानव धर्म में क्रियाकाण्ड को ज्यादा महत्व देता है तथा आत्मा के स्वरूप और आत्मानुभव पर ध्यान नहीं देता। समयग्ज्ञान यह बताता है कि आत्मा के निकट रहना है तो पर पदार्थ रूप राग, द्वेष, मोह भाव का त्याग कर स्वसन्मुख रहो इसी में आत्मा का हित है। धर्म में बाह्य क्रियाओं का महत्व आत्म शुद्धि के लिए है। अतः धर्म क्रिया आत्म शुद्धि का साधन बने यह प्रयास मानव जीवन में होना चाहिए।