धर्म की महिमा जानना है तो तीर्थकर भगवान को देखो !

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भावलिंगी संत आचार्य श्री विमर्श सागर जी

एटा – कोई पूछे – धर्म करने से क्या होता है? धर्म की जीवन में क्या महत्ता है? तो उनसे कह देना – लोक में सर्वोत्कृष्ट तीर्थकर अरहंत परमात्मा धर्म के ही सर्वोत्कृष्ट फल को प्राप्त हुए हैं। धर्म को धारण -पालन करने से टी हमारे बीच रहने वाले सामान्य मनुष्य भी पूज्यता – पवित्रता – पावनता को प्राप्त होते हुए देखे जाते हैं।
संसारी जीव संसार में परिभ्रमण करते हुए अनेक प्रकार के दुःखों को प्राप्त होता रहता है। संसार में प्राणियों को कभी भी कहीं पर भी सुख प्राप्त नहीं होता अपितु तीव्र धोर दुःखों में ही अब कमी होती है उन दुःखों की हीनता को ही, भ्रमवश अल्प दुःख को ही सुख मान बैठता है और उस भ्रमित सुख में मरागूल हो जाता है। अरहंत परमात्मा और सद्‌गुरु भव्य जीवों को समझाते हैं कि भो भव्यात्माओ ! अपने जीवन में धर्म की महत्वता समझो, धर्माचरण को स्वीकार करो, सच्चे सुख की पहिचान करना सीखो और सांसारिक भ्रमित सुख जो ययार्य में दुःखरूप ही हैं ऐसे भ्रमजाल से बाहर निकलकर आत्मा के वास्तविक, शाखत सुख, परमात्म सुख को प्राप्त करने का पुरुषार्य करो । ऐसे शाश्वत सुख को प्राप्त करना ही, धर्म के फलों को प्राप्त करना ही इस जीवन का ध्येय
होना चाहिए। तीर्थकर भगवान के 46 मूलगुणों में एक अतिशय होता है “उपसम् का अभाव ” अर्थात अरहंत परमात्मा पर कभी उपसर्ग नहीं होता। बन्धुओ तीर्थकर भगवान को तो ऐसी महिमा है कि बैर-कूर प्राणी भी बैर भाव को त्यागकर मैत्रीभाव को प्राप्त होते हैं तब कोई भी प्राणी उनके समीप आता है स्वयमेव ही भावों की शुद्धि को प्राप्त करता है अत: उपसर्ग का अभाव रह है। त्रिलोक पूज्य ऐसे तीर्थकर भगवान को जो भवा प्राणी अपने हृदय में धारण कर है वह भी अपने जीवन में आने वाले अनेक उपसर्ग संकटों का निवारण सहज ही क देता है!

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