दसलक्षण (पर्यूषण पर्व) पर्व चौथा दिन -उत्तम शौच धर्म, 11 सितंबर पर विशेष :

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क्रोध कषाय का अभाव होना – क्षमा धर्म है। मान कषाय का अभाव होना – मार्दव धर्म है। माया कषाय का अभाव होना – आर्जव धर्म है । अब आगे धर्म के दसलक्षणों के क्रम में चौथा है “शौच धर्म” और चार कषायों के क्रम में चौथी है “लोभ कषाय”

यानि लोभ कषाय के अभाव होने को शौच धर्म कहते हैं ।जिस प्रकार समुद्र अनेक सरिताओं से भी तृप्त नहीं होता, उसी प्रकार इंसान विश्व की संपूर्ण दौलत को पाने के बाद भी तृप्त नहीं होता। सत्य के दर्शन करना चाहते हो तो अपने भीतर से लोभ कसाई को भी निकाल दो, आत्मा की वेदी को स्वच्छ कर लो बीजारोपण से पूर्व पृथ्वी को झांड़-झंकाड़, कंकड़-पत्थर से रहित कर दो ताकि आत्मा स्वच्छ, निर्मल हो जाये और सत्य का देवता आकर विराजमान हो जाये।
विषयों के प्रति आसक्ति, भोग की वस्तुओं के प्रति आवश्यकता से अधिक झुकाव को लोभ कहते हैं ।लोभ या लालच का संबंध केवल पैसे से ही नही है, अपितु किसी भी वस्तु के प्रति अधिक आसक्ति लोभ है। लोभ को “पाप का बाप” बताया है, सारे पापों की जड़ यह लालच ही है, कहा भी है कि “लालच बुरी बला है”।
दूसरे का वैभव, ऐश्वर्य, यश, ज्ञान, पुण्य का उदय, प्रभाव, स्त्री, संतान, धन, संपत्ति इत्यादि देख कर कभी ईर्ष्या नहीं रखना, अपनी अत्यन्त ही दुर्लभ इस मनुष्य पर्याय में जो है जितना है उसी में संतोष कर अशुभ भावों का अभाव करके आत्मा कि शुचि को करो।
यह भी सहज ही है कि जो लालची होगा वह अपनी विषय पूर्ति के लिए समय आने पर चोरी, मायाचारी, छल-कपट, हिंसा, परिग्रह, बैर-भाव भी करता ही रहेगा । उत्तम शौच धर्म हमें यही सिखाता है कि शुद्ध मन से जितना मिला है, उसी में खुश रहो। परमात्मा का हमेशा शुक्रिया मानों और अपनी आत्मा को शुद्ध बनाकर ही परम आनंद मोक्ष को प्राप्त करना मुमकिन है।
मनुष्य में लोभ ही समस्त पापों की जड़ है, जिसके वशीभूत होकर मानव पाप-अपराध करते हैं। लोभ सबसे बड़ा शत्रु है। लोभ के कारण ही भाई, भाई का शत्रु और पुत्र, पिता का शत्रु बना है। समाज में व्याप्त हिंसा, अनाचार, भ्रष्टाचार, चोरी, अपहरण हत्या, अपराध सब लोभ के कारण ही होता है। जिसमें लोभ की प्रवृत्ति रहेगी, उसमें शुचिता-पवित्रता संभव ही नहीं। इन मलिन विकारों पर विजय प्राप्त करने के लिए निर्मलता, समता भाव का होना अति आवश्यक है। जो संतोष रूपी जल से लोभ रूपी मल को धोता है, उसे निर्मल शौच धर्म होता है, शौच-धर्म को धारण करने के लिए मनुष्य को पंचेन्द्रिय विषयों में आसक्ति, धन संबंधी सामग्री को संचित करने की प्रवृत्ति का त्याग करना आवश्यक है।
उत्तम शौच का अर्थ है पवित्रता। आचरण में नम्रता, विचारों में निर्मलता लाना ही शौच धर्म है। बाहर की पवित्रता का ध्यान तो हर कोई रखता है लेकिन यहां आंतरिक पवित्रता की बात है। आंतरिक पवित्रता तभी घटित होती है जब मनुष्य लोभ से मुक्त होता है।
शौचधर्म का प्रयोजन तो “आत्मा को” पवित्र करने से होता है, इसका इस देह से कोई सम्बन्ध नहीं मानना। अनादिकाल से यह आत्मा लोभ रूपी मल से मलिन हो रखा है उसे पवित्र करना तथा करने का भाव आना ही शौचधर्म है।
शौच धर्म कहता है कि आवश्यक्ता, आकांक्षा, आसक्ति और अतृप्ति के बीच को समझकर चलना होगा क्योंकि जो अपनी आवश्यक्ताओं को सामने रखकर चलता है वह कभी दुखी नहीं होता और जिसके मन में आकांक्षाएं हावी हो जाती हैं वह कभी सुखी नहीं होता। हावी होती हुई आकांक्षाएं आसक्ति(संग्रह के भाव) की ओर ले जाती है और आसक्ति पर अंकुश न लगाने पर अतृप्ति जन्म लेती है, अंततः प्यास, पीड़ा आतुरता और परेशानी बढ़ती है ।
भौतिक संसाधनों और धन दौलत में खुशी खोजना यह महज आत्मा का एक भ्रम है। उत्तम शौच धर्म हमे यही सिखाता है कि शुद्ध मन से जितना मिला है उसी में खुश रहो।लोभ छोड़ने से ही आत्मा में उत्तम शौच धर्म प्रकट होता है। अनादि काल से यह आत्मा लोभ रूपी मल से मलिन हो रखा है उसे पवित्र करना तथा करने का भाव आना ही शौचधर्म है।
हम जानते ही हैं की लालची जीव किसी भी अवस्था में संतुष्टि को प्राप्त नहीं होता वह तो सदैव ही असंतुष्ट रहता है, और असंतुष्ट जीव की आशाएं,अपेक्षाएं और संसार कभी ख़त्म नहीं हो सकते।
आज की दौड़-भाग भरी जिंदगी में जहां इंसान को चार पल की फुर्सत अपने घर-परिवार के लिए नहीं है, वहां खुद के निकट पहुंचने के लिए तो पल-दो पल भी मिलना मुश्किल है। इस मुश्किल को आसान और मुमकिन बनाने के लिए जब यह पर्व आता है, तब समूचा वातावरण ही तपोमय हो जाता है।
कविवर द्यानतराय जी दसलक्षण धर्म की  पूजन में लिखते हैं-
धरी हिरिदे संतोष, करहु तपस्या देह सों ।
शौच सदा निरदोष, धरम बड़ो संसार में ।।

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