रात्रि भोजन त्याग, प्रतिदिन देवदर्शन और पानी छानकर पीना ये जैनी के चिह्न माने गए हैं। इस लेख में हम पानी छानकर पीने की अपनी आदर्श कुलाचार परंपरा के बारे में चर्चा करने जा रहे हैं।बुंदेलखंड में एक पुरानी कहावत है-” गड़ई- डोर -छन्ना ,कनक कलेऊ भन्ना ये जैनी के चिन्हा” यानि हमारी पहचान छने पानी का उपयोग करने वालों में जगजाहिर थी।
हम अहिंसा धर्म को मानने वाले हैं। जैन धर्म के अनुसार पानी छानने की जो भावना है वह जीव-दया की भावना है। जैन धर्म के अनुसार जल में त्रस जीव भी होते हैं। विज्ञान के अनुसार एक बूंद पानी में 36450 जीव होते हैं, त्रस जीवों की संख्या तो बहुत ज़्यादा है। हमें पानी तो पीना ही है, पानी के बिना रहना सम्भव नहीं है। तो एक व्यवस्था बताई गयी कि जीवदया का पालन करने की भावना से आप जल के स्रोत से जल को निकालो। उसे गाढ़े छन्ने से छानो और बड़े इत्मिनान के साथ आप पानी की जीवाणी करो यानि वो पानी के छन्ने को छने पानी से धोकर वापस जलाशय में ले जाओ और उसे उडे़ल दो और इसके पीछे की जो भावना है वह है – जीव दया का अनुपालन! इस दृष्टि से सच्चे अर्थों में पानी छानने का लाभ उनको मिलता है जो कुँआ, नदी या ऐसे जलाशयों से जल लाते हैं, जहाँ ध्यानपूर्वक जीवाणी पहुँचाई जा सके। जीवाणी को बुंदेलखंड में बिलछानी भी कहते हैं।
छने जल की मर्यादा एक मुहूर्त अर्थात् 48 मिनट है। इसके बाद उसमें पुनः त्रस जीवों की उत्पत्ति होने लगती है। अत: पुनः छानना चाहिए। छने जल को लौंग, सौंफ आदि से प्रासुक किया जाता है तो उसकी मर्यादा छः घंटे हो जाती है, किन्तु छ: घंटे के बाद वह अमर्यादित हो जाता है। अर्थात् उसमें त्रस जीवों की उत्पत्ति प्रारम्भ हो जाती है। उबले (Boiled) जल की मर्यादा 24 घंटे होती है। पानी छानने की विधि का पालन करना पाइप लाइन , ट्यूब वेल, हेंडपम्प के साथ सम्भव नहीं है इसीलिए बिलछानी के नियम का कठोरता से पालन करने वाले जैन साधु और व्रती कूप के जल का ही उपयोग करते हैं।
आज डॉक्टर स्वास्थ्य की दृष्टि से छने पानी के पीने के लिए जोर देते हैं, जबकि जैनदर्शन स्वास्थ्य के साथ जीवदया का भी पालन करने का निर्देश करता है। कहा भी गया है कि पानी पिओ छानकर, गुरु मानो जानकर।
पीने छानकर पीने की आदर्श परंपरा आज हमारी जैन समाज से विलुप्त सी होती जा रही है, जलगालन विधि के बारे में तो आज की ज्यादातर आधुनिक पीढ़ी को पता ही नहीं है। अब तो नलों में लगी थैली को छने पानी की मान्यता सी मिल गयी प्रतीत होती है और वह भी अनेक दिनों तक एक नल में लगी रहती है। सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि आज ज्यादातर हमारे धार्मिक आयोजनों में भी बिना छने पानी का धड़ल्ले से उपयोग हो रहा है और यह सब उस आयोजन में सान्निध्य प्रदान कर रहे संतों और विद्वानों को भी पता होता है। निश्चित रूप से यह बहुत ही चिंतनीय है।
आज धार्मिक आयोजनों में बोतल बंद पानी का प्रचलन खूब हो गया है, यहां तक देखा गया है कि एक तरफ छना पानी रखा हो दूसरी तरफ बोतल बंद/आरओ का पानी तो लोग बोतल बंद /आरओ का पानी पीना शान समझते हैं? ऐसे लगता है जैन समाज ने बोतल बंद पानी को शुद्ध मान लिया हो! बहुत से पंचकल्याणक, गजरथ, विधानों आदि में भी इनके पात्र यह पानी खूब धड़ल्ले से पीते हैं? इस प्रवृत्ति से पानी छानकर पीने की हमारी कुलाचार परम्परा पर आघात पहुँच रहा है। मैंने स्वयं देखा इधर गजरथ की फेरी चल रही है और उधर उस फेरी में चल रहे महोत्सव के पात्र एवं अन्य लोगों को आयोजन समिति द्वारा बोतल बंद पानी की बोतलें पीने के लिए बांटी जा रहीं हैं, फेरी में चलते हुए ही खूब धड़ल्ले से बोतल बंद पानी पिया जा रहा है सब देख ही नहीं बल्कि बोतल बंद पानी पाने के लिए होड़ भी लगी है, सबकी नजर में है पर बोल कोई नहीं रहा है। ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण हैं। धार्मिक आयोजनों की सभा, सेमिनार, रैली, जुलूस शोभायात्रा आदि में बोतल बंद पानी का चलन आम हो चुका है। आपने भी ऐसे धार्मिक आयोजन देखे होंगे जिसमें नगर में शोभायात्रा निकलने पर बोतल बंद पानी की खाली बोतलें शहर में इधर-उधर पड़ी आपकी शोभायात्रा, जुलूस की निशानी बता रहे होंगे। जैन समाज की विभिन्न धार्मिक बैठकों में भी अब बोतल बंद पानी/आरओ का पानी का प्रयोग फैशन सा बन गया प्रतीत होता है। धार्मिक आयोजन में जो भोजन होता है उसमें भी इसी पानी के प्रयोग का प्रचलन बढ़ रहा है। बड़े -बड़े धार्मिक महोत्सवों में तो अब यह बोतल बंद पानी सस्ते दामों में भी बांटकर पुण्यार्जन किया जाने लगा है।
पानी छानकर पीने व जलगालन विधि में आई इस विकृति पर हमें गंभीरता पूर्वक चिंतन करना होगा। कम से कम धार्मिक आयोजनों में तो अनछने जल का प्रयोग बंद होना चाहिए। इसके लिए हमारे आराध्य सभी पूज्य मुनिराजों, माता जी, विद्वानों को अवश्य ध्यान देना होगा अन्यथा आने वाली पीढ़ी तो इससे अनजान ही हो जाएगी।