दसलक्षण धर्म को क्रमांगत रूप से विश्लेषण करने पर यह पूर्णतया स्पष्ट होता है कि सर्वप्रथम धर्म क्षमा को यदि धारण कर लिया जाए तो फिर द्वितीय धर्म उत्तम मार्दव यथा मृदुता स्वयं चली आती है। यू कहे कि क्रोध का शमन,अभिमान का दमन और मैं का विलोपन होता है। तो कोई अतिश्योक्ति नही होगी। जब मैं अर्थात अहम का विलोपन कर विनम्रता का भाव जागृत होता है तो व्यक्ति स्वयमेव ही मायाचारी व कपट से दूर होता चला जाता है।उसके विपरीत उत्तम आर्जव धर्म को अंगीकार करने लगता है।
एकरूपता और क्रम से एक दूसरे धर्म का आगमन होना, आने वाले प्रत्येक धर्म का पूर्व के धर्म से संलग्नता है। उत्तम आर्जव धर्म भी साधारण रूप से मायाचार,छल,कपट,धोखा, बेईमानी का त्याग कर सदाचार ईमानदारी की ओर इंगित करता है। पंडित द्यानतराय ने सरल शब्दों में कहा है कि “कपट न कीजे कोय, चोरन के पुर न बसे” अर्थात किसी को भी छल-कपट कभी नहीं करना चाहिए क्योंकि चोरों के गांव कभी नहीं बसते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि छल कपट से किसी की संपत्ति हड़प तो सकते हो किन्तु उससे आप सुख की प्राप्ति नही कर सकते और सदैव भय के साये में जीवन व्यतीत होता है। समाज मे भी यश की प्राप्ति नही होती है। कभी कभी तो पीढ़ियों को भी परिणाम भुगतना पड़ता है। जो जीव सरल स्वभावी होते हैं, उनके घर में धन, संपदा व वैभव की स्वयमेव ही वृद्धि होती है।
छल कपट चैन हरे,लक्ष्मी न टिके बेमानी से
नीति नियम सदाचारी करे,धन बढ़े ईमानदारी से
उत्तम मार्जव धर्म की अत्यधिक व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि सीधे-सीधे यह कहा गया है की जीवन नीति के अनुसार व्यतीत करना चाहिए। नियम के विपरीत क्रिया करना उत्तम आर्जव धर्म का उल्लंघन है। जिससे मानसिक अशांति,सामाजिक हानि,पारिवारिक ह्रास होने की प्रबल संभावना रहती है। अतः मायाचार छोड़ सदाचार अपनाओ यही उत्तम आर्जव धर्म है जिसे जीवन मे धारण करना चाहिए।
संजय जैन बड़जात्या कामां,राष्ट्रीय प्रचार मंत्री धर्म जागृति संस्थान
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