चातुर्मास वह है जब चार महीने चार आराधना का महान अवसर हमें प्रकृति स्वयं प्रदान करती है ।अतः इस बहुमूल्य समय को मात्र प्रचार में खोना समझदारी नहीं है ।
चातुर्मास के चार मुख्य आयाम हैं – सम्यक् दर्शन ,ज्ञान ,चारित्र और तप ।
इन चार आराधनाओं के लिए ये चार माह सर्वाधिक अनुकूल रहते हैं , आत्मकल्याण के सच्चे पथिक इन चार माह को महान अवसर जानकर मन-वचन और काय से इसकी आराधना में समर्पित हो जाते हैं । आगम में भी कहा गया है –
उज्जोवणमुज्जवणं णिव्वाहणं साहणं च णिच्छरणं।
दंसणणाणचरित्तं तवाणमाराहणा भणिया।
(भगवती आराधना / गाथा 2)
अर्थात् सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र व सम्यक्तप इन चारों का यथायोग्य रीति से उद्योतन करना, उनमें परिणति करना, इनको दृढ़ता पूर्वक धारण करना, उसके मंद पड़ जाने पर पुनः पुनः जागृत करना, उनका आमरण पालन करना आराधना कहलाती है।
आधुनिकता और आत्ममुग्धता के इस दौर में जब चातुर्मास के मायने मात्र मंच,माइक,मीडिया और मात्सर्य तक ही सीमित करने की नाकाम कोशिशें हो रहीं हों तब ऐसे समय में हमें उन शाश्वत मूल्यों को अवश्य याद रखना चाहिए जिनकी संवृद्धि के लिए चातुर्मास आते हैं ।
आपको स्मरण होगा चातुर्मास के दौरान ,विशेषकर दशलक्षण पर्व में तत्त्वार्थसूत्र के स्वाध्याय का बहुत महत्त्व है ,उसके आरम्भ में मंगलाचरण से भी पूर्व कुछ पद्य पढ़े जाते हैं ,उनमें भी यह गाथा पठनीय होती है ।
एक गृहस्थ को भी यथासंभव ये चार आराधनायें करणीय हैं । हमें लाख उपाय करके भी सबसे पहले सम्यग्दर्शन आराधना प्राप्त करना है ,उसके लिए वीतरागी आप्त ,आगम और तपस्वी के प्रति अपनी अगाध श्रद्धा रखते हुए ,देह और आत्मा की भिन्नता का अनुभव करते हुए अपने शुद्ध आत्मतत्त्व की पहचान करनी है उसे जानना है ।
सम्यग्ज्ञान आराधना में आप्त के वचनों को ,उनके गूढार्थ को ,भावार्थ को स्याद्वाद नय से , स्वाध्याय के माध्यम से वस्तु स्वरूप का सही ज्ञान प्राप्त करते हुए भेद विज्ञान को प्राप्त करना है ।
सम्यग्चारित्र आराधना में यथासंभव व्रतादि संयम का पालन करते हुए आत्मा की अनुभूति में उतरना है ।
सम्यक्तप आराधना में अन्तरंग और बहिरंग तप का सच्चा स्वरूप समझकर बाह्य प्रतिकूलताओं को समता पूर्वक सहकर अपने मन को धर्म में स्थिर रखने का प्रयास करना है,आत्म ध्यान का अभ्यास करना है ।
यह महज़ सिर्फ़ एक संयोग नहीं है कि आत्मा की आराधना की मुख्यता वाले अधिकांश आध्यात्मिक पर्व भी इन्हीं चार महीनों में ही आते हैं ।
यही कारण है कि महापुराण (5.231,19.14-16)पांडवपुराण (19.263, 267) आदि ग्रंथों में भी कहा है कि ये चार आराधनायें भव सागर से पार होने के लिए ये नौका स्वरूप हैं । अनेक महाविद्याएँ भी आराधना से प्राप्त होती हैं ।
वास्तविक धर्म प्रचार और प्रभावना भी वे ही कर पाते हैं जो सच्चे मन से आराधनायें करते हैं । वर्ष में बारह मास होते हैं ,उसमें भी मुख्यता से आठ महीने धर्म का प्रचार और चार महीने धर्म का आचार -ये संतुलन यदि रखें तो हम दोनों कार्य बहुत सफलता से कर सकते हैं ।किन्तु हम इन चार महीनों को भी मात्र प्रचार में झोंक दें तो खुद से ही धोखा करेंगे और किसी से नहीं ।
….. *आचार्य – जैनदर्शन विभाग , श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय,नई दिल्ली
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