चातुर्मास जैन दर्शन के अनुकुल सम्पन्न हो: महावीर दीपचंद ठोले, (महाराष्ट्र)

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चातुर्मास जैन दर्शन के अनुकुल सम्पन्न हो: महावीर दीपचंद ठोले, (महाराष्ट्र)
प्रतिवर्ष की भांति चातुर्मास ने पुन्हः दस्तक दे दी है। अनेक साधुओं के चातुर्मास स्थल निश्चित भी हो गये है। इस लेख के माध्यम से सम्पूर्ण समाजजनों से अपील करना चाहता हूँ कि चातुर्मास समागम को हम ऐतिहासिक और श्रेष्ठ से श्रेष्ठ सम्पन्न कराए। श्रमण, श्रावक, विद्वान, पंडित, शीर्षस्थ संस्थाओं के पदाधिकारी, समाजसेवी, दानवीर सभी मिलकर चातुर्मास सम्पन्न कराने के लिए ऐसा चिंतन करे जो धर्म व समाज के लिए उपयोगी व उपकारी हो। कम से कम लागत से अधिकाधिक धर्म प्रभावना होकर बचत राशि से समाज को ठोस व स्थायी उपलब्धि प्राप्त हो।
चातुर्मास एक प्राचीन संस्थापित प्राकृतिक पर्व है। वह विविध पर्वो का एक ऐसा रंग बिरंगा अध्यात्मिक उद्यान है, जहां बैठकर आत्म सुख शांति का अनुभव किया जा सकता है। वह एक समन्वयात्मक गुरु- मंत्र-पर्व है।
प्राचीन काल मे वर्षा योग मे मुनीगण प्रायः वनों में रहकर आत्मसाधना करते थे और आहार ग्रहण तथा प्रवचन हेतू ग्रामादिक मे आते थे। कालांतर मे निर्जन खंण्डहर या एकांत गुफा आदि मे वर्षायोग संपन्न करने लगे। इसके अनेक प्रमाण है। सौराष्ट्र में गिरणार की चंद्रगुफा, तामिलनाडू मे बादामी गुफा मंदिर, श्रवणबेलगोल की आचार्य भद्रबाहु गुफा, उड़ीसा मे उदयगिरी खंडगिरी की रानी गुफाएं जहां पर साधुओं ने साधना करकर उन क्षेत्रों का विकास किया। मूडबिद्री मे ताड़पत्रों पर लिखे हजारों प्राचीन ग्रंथ, खारवेल के शिलालेख, आ धरसेन की
साधनास्थली गिरनार की चंद्रगुफा में षट्खःण्डागम, महाधवला जैसे महान ग्रंथ लिपीबद्ध हुए। पूर्व मे श्रमणों के चातुर्मास यहा सम्पन्न होने के प्रत्यक्ष प्रमाण है। आज से 70/80 वर्ष पूर्व श्रमण परंपरा बहुत ही गरिमापूर्ण एवं गौरवशाली थी। आचार्य शांतीसागर जी, आदीसागर जी, शांतीसागर जी (छाणी) वीरसागर जी, चंद्रसागर जी, महावीर कीर्तीजी देशभूषणजी आदी जैनाकाश के प्रकाश पुंज थे। इनका प्रभाव, अनुशासन, देशना, चारित्र सब कुछ बेदाग स्पटिक सदृश्य था। सर्वत्र उनका व्यापक प्रभाव था। इनके चातुर्मास जहां मंदिर विद्यमान हो और भक्तगण धर्मपरायण हो या जहां आत्मसाधना की अनुकूल परिस्थितीया हो ऐसे स्थानों पर संपन्न होते थे। जिसके कारण वह स्थान तीर्थ बन जाता था। चारो ओर विकास की संभावनाए, लोकोपचार की महत्वपूर्ण योजनाएं स्वर्णिम हो जाती थी। जनजीवन धर्म से सरस बन जाता था। मानवता की
विश्वबंधुत्व की वात्सल्य की हरियाली लहलहाने लगती थी। वहा साधना के सरस सुमन खिलते थे।
जैन शास्त्रो मे लिखा है कि श्रमणों के वर्षायोग का समय कषायरूपी अग्नि को एवं मिध्यात्व रूपी ताप को त्याग एवं वैराग्य की शीतल धारा से स्वाध्याय और ध्यान की जलवृष्टी से शान्त करने का होता है और श्रावक भी आगम ज्ञान के लिए शास्त्रों की गहन तथा जटील गुत्थियों को सुलझाने के लिए गुरू शरण लेते है।
परंतु आज वर्तमान मे चातुर्मास की मूल भावनाही समाप्त होती दिखाई देती है। यहा मैं लिखना चाहता हूं कि सह न सकोगे हकीकत आईना मत देखना। खुद से ही हो जाएगी नफरत आईना मत देखना क्योंकी अधिकांशतः संतो के चातुर्मास समापन के बाद समाज का अनुभव खट्टा मिठा देखा जाता है। सफलता के पैमाने को लेकर समाज और साधू दोन्हो ही दिशा भ्रमित हुए सो लागते है। जो की चिंतनिय बिंदु है। चातुर्मास संपन्न कराना बहुव्यय हो गया है।
प्रतिस्पर्धा एवं पंथवाद को बढावा देने वाले एवं व्यक्तिगत यशोलिप्सा, महत्वकांक्षा के कारण अधिकांश श्रमण पुण्य के विक्रेता के रूप मे दिखाई दे रहे है। अर्थ संग्रह में उनकी भूमिका, निजी भक्तों और निजी क्षेत्रो से उनके राग भाव, अपरिग्रही महाव्रती के दूषण बन गये है। जिन संतो ने स्वपर हित के लिए अपना सब कुछ छोडा उन संतो का हम उसी परिग्रह से आकलन करे तो दिखाई देगा कि हम किस दिशा मे जा रहे है। कुछ ऐसे प्रश्न है जो बताते है कि हम चातुर्मास नही बनियागिरी कर रहे है। धनसंग्रह व भीड संग्रह चातुर्मास की सफलता के मापदंड बन गये है। जो जैन दर्शन के अनुकूल नही कहे जा सकते। वीतरागी निर्ग्रंथ साधू अपरिग्रह के सर्वोच्च मानक की जीवन शैली ईतनी खर्चीली हो गयी की चातुर्मास हेतु लाखो करोड़ों रुपये के बजट के कारण सर्वसाधारण समाज परेशान है। कुछ श्रावक अपने अर्थ बुद्धी से अपना नाम स्थापित करणे हेतू चातुर्मास को प्रभावित कर धर्म मे धंदा ढूंढ लेते है। भव्य पोस्टर, भव्य मंच, सुस्वादु भोजन, भव्य जुलुस और न जाने क्या क्या। भव्यतिभव्य और ऐसा पहले कभी नही हुआ हो ऐसा करने की, दिखाने की होड़ लगी है। परंतु आखिर हम क्या करना चाहते है इस बात का कोई लक्ष्य दिखाई नही देता।
विविध परिस्थितियों का अध्ययन करने से यह स्पष्ट होता है कि लंबे समय ग्रीष्म एवं शीतकाल में मुनिगण निरंतर विहार कर स्व-परहित करते रहते हैं। किंतु वर्षा ऋतु के गम ना गमन में कठिनाइयों तथा मुनि चर्या निर्वाह में अनेकविध बाधाओं के कारण किसी एक स्थल पर उन्हें स्थिर होना आवश्यक होता है। ऐसे किसी एक शांत, एकांत स्थल पर रहकर चातुर्मास काल में
धर्म साधना का संविधान बनाया गया। इसका लाभ यह हुआ कि उसे काल में मुनि, आचार्य गण एकांत में धर्म साधना तो करते ही थे, भक्त श्रावक द्वारा समकालीन लेखनोपकरण सामग्री प्राप्त कर वे जैन साहित्य का प्रणयन भी करते रहते थे। युगप्रधान आचार्य कुंदकुंद तथा अन्य अनेक आचार्यो ने समकालीन लोक प्रिय जन भाषा प्राकृत में अपने साहित्य का अधिकांश भाग का प्रणयन कर अपने चातुर्मास कालो को सार्थक किया था।
वर्षा काल में व्यापारिक कार्यो में मंदी आ जाने के कारण श्रावक गण भी उसे विश्राम काल समझकर अपना अधिकांश समय आत्म चिंतन एवं गुरु सेवा में व्यतीत करते थे। इन सभी कारणो से चातुर्मास पर्व की महान अवदानों को विस्मृत नहीं किया जा सकता।
उक्त तत्वों से चातुर्मास का ऐतिहासिक महत्व तो ज्ञात हो ही जाता है। अब प्रश्न उठता है कि वर्तमान समय में भी उस पर्व काल को सार्थक कैसे करें ? उसके लिए मेरे कुछ विनम्र सुझाव निम्न प्रकार देना चाहता हूं।
चातुर्मास में प्रदर्शन वाले कार्य की जगह दीर्घकालीन लाभ वाले कार्य को प्रमुखता देना चाहिए। चातुर्मास को व्यर्थ के आडंबरों से मुक्त रखने का प्रयास हो। चातुर्मास के दौरान समाज को कुछ ऐसा लाभ हो जिससे उसकी दशा दिशा ही बदल जाए। ऐसे कार्य हो जिससे समाज में चेतना आ जाए। कुछ ऐसे ठोस कार्य प्रतिबद्धता के साथ अमल में लाए जिनकी आज हमारे समाज को सख्त जरूरत है। धार्मिक शिक्षा के क्षेत्र में समाज को जागरूक किया जाए। असहाय लोगों की सहायता हेतु धु्रव फंड का निर्माण हो। समाज में व्याप्त अंधविश्वास व रूढ़ी पर रोक लगे। मृत्यु भोज, रात्रि विवाह आदि बंद हो। नई पीढ़ी को धर्म से जुड़ाने का प्रयास हो। वे मंदिर और साधुओं से दूर क्यों हो रहे हैं इस बात पर भी चिंतन करें और उन्हें जोड़ने हेतु प्रेरित करें।
जैन धर्म विश्व का अति प्राचीन सनातन धर्म है। इसकी प्राचीनता तथा ऐतिहासिकता स्वयं सिद्ध है परंतु वर्तमान में हमारा प्राचीन जैन धर्म और इसके पवित्र स्थान अन्य बहुसंख्य आबादी वाले धर्मो द्वारा, समुदायो द्वारा समाप्त करने के रणनीतिक प्रयास चल रहे है। धीरे धीरे हमारे मंदिर, तीर्थ, विरासत, धरोहर विलुप्त होती जा रही है। यह चिन्ताजनक व दयनीय स्थिति ने जनमानस को झकझोर दिया है। साधु संतो का ध्यान नित नये तीर्थो पर ही केन्द्रित है। अनेक प्राचीन तीर्थ जीर्णोद्धार से उपेक्षित है। अनेक नये तीर्थो का निर्माण हो रहा परंतु वहा जैन परिवार नाम मात्र है। ऐसे तीर्थो का अंजाम क्या होगा यह चितन का विषय है। मेरा सुझाव है जो कठिन है पर असंभव नही।
आजकल मुनियों के चातुर्मास महानगरों मे या जहा जैन समाज अधिक है ऐसे स्थानोपर संपन्न होते है। उसकी अपेक्षा जहां जैन समाज के परिवार नगण्य है, कमजोर है ऐसे स्थानोपर वर्षायोग सम्पन्न हो। वहां कमजोर स्थिति वाले जैन परिवार को रोजगार प्राप्त करना चाहिए। स्थानीय अजैनों को प्रभावित कर, उनके साथ अच्छे संबंध रखने के लिए, उनकी हमारे प्रति श्रद्धा बढ़ाने के लिए प्रयास होने चाहिए। जिससे वे अपनी तीर्थो का रक्षण करे। ऐसी स्थानों पर जैन
धर्म का प्रचार-प्रसार अधिक हो सकता है। साधुओं की साधना और तपस्या भी अच्छी होगी और तीर्थ का विकास भी होगा। जैसा कि आचार्य प्रसन्नसागर जी ने शिखर जी के पहाड़ पर वर्षा योग संपन्न कर कर वहां के स्वर्णभद्र कुट का, उदगांव क्षेत्र में रहकर उस क्षेत्र का विकास किया।
जैन समाज में धार्मिक आस्था की गहराई प्रशंसनीय है परंतु विडंबना है कि जहां एक और नए-नए मंदिरों का निर्माण की घोषणाएं जोर-शोर से की जा रही है वहीं दूसरी ओर कई प्राचीन धर्मस्थल उपेक्षा के अंधेरी गलियों में खोते जा रहे हैं। ऐसे स्थान पर अभिषेक पूजन जैसे पवित्र अनुष्ठान भी बंद है। ऐसे स्थान पर चातुर्मास संपन्न होना चाहिए। निश्चित ही जहां आवश्यक है वहां मंदिर नव निर्माण पुण्य का कार्य है। परंतु उससे भी बड़ा धर्म है उनकी देखरेख। नवनिर्माण आवश्यक है उससे भी जरूरी है चेतन आत्मा को जीवित रखना। धर्म की आत्मा केवल ईटो में नहीं आचरण में बसती है। मैं विश्वास के साथ लिखना चाहता हूं कि वर्तमान में अतित जैसे महान तपस्वी, ज्ञानी, ध्यानी, आगमोक्त चर्या मे खरे उतरे, धर्म के मर्मज्ञ तथा प्रभावशाली श्रमणों की कमी नहीं है। परंतु पिछले दशक से साधु संस्था का स्वरूप व्यापारिक नजर आ रहा है। नवनिर्माण की होड़ में, स्पर्धा में वे भूल गए है कि उन्होंने साधुत्व को आत्म कल्याण की भावना से ग्रहण किया है। वे यह जानते हैं कि मोक्ष प्राप्ति साधनों से नहीं साधना से मिलती है फिर भी उसको नजर अंदाज कर रहे हैं। मंच, माइक, मोबाइल, मठ मानपत्र, वर्तमान के पांच मकार है जिनमें अधिकांश साधु ग्रसित है। अतः हम चातुर्मास को चिंतन मास के रूप में मनाएं। ऊर्जा संग्रह का मापन बनाएं। धर्म से भटके हुए को सही मार्ग पकड़ने का प्रकाश बनाएं। दूसरों के गुण और अपने दोषों का अवलोकन करें। यही चातुर्मास की सार्थकता है। हमें चाहिए कि चातुर्मास में प्रदर्शन की अपेक्षा आत्म दर्शन, सम्यक दर्शन को महत्व दे और जैन समाज की प्राचीनता को गौरवमयी संस्कृति को बनाए रखने के लिए वर्षायोग भव्यता के साथ सादगी बरतते हुए धर्म की परिपूर्ण प्रभावना हो ऐसे सम्पन्न हो। मात्र धनसंग्रह ही लक्ष्य न हो, और समाज को अगला चातुर्मास सम्पन्न करवाने की प्रेरणा देने वाला हो। आज नही तो कल हमे इन प्रश्नों के महत्व को स्वीकार करना ही होगा।
आईए साधु और श्रावक इस पर चिंतन, परिचर्चा कर उचित निर्णय ले और वर्षायोग को जैन दर्शन के अनुकुल पुनः जीवंत बनाए। संसार में असंभव कुछ भी नही है। जहां चाह वहा राह है। अंधकार भरी रात्रि के पश्चात् पुनः सूर्योदय होना ही है।

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