चर्या शिरोमणी आचार्य भगवन श्री विशुद्धसागर महाराज जी का 35 वां क्षुल्लक दिक्षा दिवस नांदणी मठ में गुरुभक्तोने श्रद्धापूर्वक मनाया

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राजेश जैन दद्दू
इंदौर
श्रमण संस्कृती के प्रमुख आचार्यो में से एक चर्या शिरोमणी दिगंबर जैन आचार्य 108 श्री विशुद्धसागर महाराज जी का 35 वां क्षुल्लक दिक्षा दिवस शुक्रवार को नांदणी मठ में गुरुभक्तोने श्रद्धापूर्वक मनाया | प.पू. आचार्य श्री विशुद्धसागर महाराज जी ने अभि तक 1,25,000 कि.मि. पैदल विहार किया हैं l एक ओर आपकी आध्यात्मिक अमृतमयी वाणी से निश्रित आगमिक धारा के परिणामस्वरूप 250 ग्रंथों की रचना और 5000 नितीकाव्य का लेखन किया हैं l आचार्य श्री विशुद्ध सागर महाराज जी के सानिध्य में लागभग 146 पंचकल्याण प्रतिष्ठा महामहोत्सव सानंद संपन्न हुए हैं l

आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज-
आचार्य भगवन प.पू. आध्यात्म योगी १०८ श्री विशुद्ध सागर जी महाराज यथा नाम तथा गुण रुप है। जैसा नाम है, वैसा ही आचरण है। आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज को तत्वो का इतना गहन चिन्तवन है कि जिनवाणी उनके कण्ठ मे विराजमान रहती है। आचार्य श्री विशुद्ध सागर महाराज जी के प्रवचन इतने सरल व स्यादवाद से भरे होते है। इनके प्रवचन मे स्यादवाद व अनेकान्त रुपी शस्त्र से मिथ्यात्व का शमन तो सहज ही झलकता है।
प्रवचन सुनकर ऎसा लगता है कि हमारे ही बारे मे बात कही जा रही हो। आचार्य श्री विशुद्ध सागर महाराज जी के बारे मे जितना कहे कम है क्योंकी उनके बारे में कहना सूरज को दीप दिखाने जैसा हैं | हे गुरुवर, आचार्य भगवन्त नमोस्तु शासन को सदा जयवतं रखे।

राजेंद्र जैन (लला) से चर्याशिरोमणी आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज तक का सफर

लला राजेंद्र (आचार्य श्री विशुद्ध सागर महाराज जी का बचपन का नाम) जी के बचपन से प्रारंभिक क्रियायें उनके भविष्य में वैराग्य की और बढ़ते क़दमों का संकेत दे रही थी।उनका विवरण निम्न प्रकार से है।

बचपन से ही जिनालय जाना:- लला राजेंद्र (विशुद्ध सागर महाराज जी) अल्पायु से अपने पिता जी श्री रामनारायण जी एवं माता जी श्रीमती रत्ती देवी एवं अपने अग्रजों के साथ प्रतिदिन श्री जिन मंदिर जी दर्शनों के लिये जाने लगे थे।

रात्रि भोजन एवं अभक्ष्य वस्तुओं का त्याग:- लला राजेंद्र ने ७ वर्ष की अल्पायु में श्री जिनालय में रात्रि भोजन का त्याग एवं अभक्ष्य वस्तुओं के त्याग का नियम ले लिया था और उसका पालन भली प्रकार से किया ।

सप्त व्यसनों का त्याग एवं अष्ट मूल गुणों का पालन:- लला राजेंद्र जब ८ वर्ष के थे तभी से उन्होंने सप्त व्यसन का त्याग एवं अष्ट मूल गुणों का पालन करना प्रारंभ कर दिया था।

बिना देव दर्शन भोजन न करने का नियम:- लला राजेंद्र ने १३ वर्ष की अल्पायु में तीर्थराज श्री दिग. जैन सिद्ध क्षेत्र शिखर जी में बिना देव दर्शन के भोजन न करने का नियम ले लिया था ।

स्वत: ब्रहमचर्य व्रत अंगीकार :- अल्पायु में लला राजेंद्र ने अपने ग्राम रुर के जिनालय में भगवान् के समीप स्वयं ही ब्रहमचर्य व्रत ले लिया था |

अनेक तीर्थ क्षेत्रों की वंदना करने का सौभाग्य :- राजेंद्र लला ने अपने पिता जी माता जी एवं अनेक परिवार जनों के साथ बचपन से ही शिखर जी,सोनागिरी जी,एवं अनेक तीर्थ क्षेत्रों के दर्शन करने एवं वह विराजमान पूज्य महाराजों के दर्शन करना भी उनके वैराग्य का एक बिंदु है।

भिंड में आदरणीय संयमी महानुभावों से भेंट :-
जैन मंदिर भिंड में आदरणीय पं. मेरु चन्द्र जी(परमपूज्य मुनिश्री विश्व कीर्ति सागर जी महाराज) वर्तमान में समाधिस्थ एवं बाल ब्र. श्री रतन स्वरूप श्री जैन (वर्तमान में आचार्य श्री विनम्र सागर जी महाराज) से मुलाकात भी भैया राजेंद्र के पथ पर बढ़ने में सहायक हुई।

परमपूज्य गुरुवर १०८ मुनि श्री विराग सागर जी महाराज के प्रथम दर्शन राजेंद्र लला (आचार्य विशुद्ध सागर जी का बचपन का नाम ) ने अपनी बहन के यहाँ नगर भिंड में सन १९८८ में प्रथम बार किये ।उनके प्रवचन और दर्शन से राजेंद्र लला के मन में वैराग्य के बीज अंकुरित होने लगे।

जैन धर्म की पुस्तकों का अध्ययन ,मनन ,चिंतन :-
राजेंद्र भैया बचपन से ही ग्रथों का अध्ययन करके उन पर मनन एवं चिंतन करने लगे थे ,जो उनके वैराग्य की और बढ़ने का एक माध्यम बना।

परम पूज्य गुरुवर श्री का वर्ष १९८८ का भिंड में वर्षा योग :- पूज्य मुनि श्री १०८ विराग सागर जी महाराज का १९८८ में पावन वर्षा योग भिंड नगर में हुआ। राजेंद्र लला उस अवधि में अपनी बहन के यहाँ भिंड में रहकर पूज्य गुरुवर के संघ में आते रहते थे।इस से लम्बे समय तक गुरुवर का सानिध्य मिला उनके प्रवचन का भी प्रभाव पड़ा ।जिस से उनका मन विराग सागरजी के चरणों में रम गया और वे संघ में ही रहने लगे और वहा से विहार करने पर संघ के साथ विहार भी किया।

ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार करना:-
श्री राजेंद्र लला पूज्य गुरुवर मुनि श्री १०८ विराग सागर जी के साथ विहार करते हुए अतिशय क्षेत्र बारासों पधारे । यद्यपि राजेंद्र लला ने रुर नगर में जिनालय के सामने दीपावली के दिन ब्रह्मचर्य व्रत के लिया था | फिर भी यहाँ गुरुवर के समीप दिनांक १६ नवम्वर को १७ वर्षकी उम्र में ब्रहमचर्य व्रत पुन: अंगीकार किया।

ब्रह्मचर्य अवस्था में नग्न होकर अभिषेक करना:-
१९८८ में एकांत मे ब्रह्मचर्य अवस्था में नग्न होकर भगवान का अभिषेक किया था जो उनके भविष्य का संकेत दे रहा था।

क्षुल्लक दीक्षा:-
राजेंद्र लला ने आचार्य विराग सागरजी के कर कमलो से दिनांक ११ अक्टूबर १९८९ को भव्य क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की।उनका नाम रखा गया क्षुल्लक श्री यशोधर सागर जी इस समय इनकी आयु १८ वर्ष की थी।

ऐलक दीक्षा:-
परम पूज्य क्षुल्लक श्री यशोधर सागर जी ने आचार्य विराग सागरजी के कर कमलो से २ वर्ष बाद दिनांक १९ जून १९९१ को भव्य ऐलक दीक्षा पन्ना नगर मे ग्रहण की।

मुनि दीक्षा:-
ऐलक दीक्षा के ६ माह बाद ही परम पूज्य ऐलक श्री यशोधर सागर जी ने २० वर्ष की आयु मे अपने गुरुवर से श्रेयांस गिरी में दिनांक २१-११-१९९१ को भव्य मुनि दीक्षा ग्रहण की,नाम रखा गया मुनि श्री १०८ विशुद्ध सागर जी महाराज ।

आचार्य पदारोहण:-
परम पूज्य मुनि श्री १०८ विशुद्ध सागर जी महाराज को परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विराग सागर जी के कर कमलो से ३१ मार्च २००७ को मुनि दीक्षा के १५ वर्ष ६ माह बाद ३५ वर्ष की आयु में दिनांक ३१ मार्च २००७ को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया।
आपके द्वारा दीक्षित 56 युवा मुनि जो उच्च शिक्षित, प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी में निष्णात हैं | वह आपकी आंतरिक क्षमता – समता एवं सम्यक नीती- निपुणता का संदेश देते हैं |

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