भारतीय संस्कृति के उन्नयन में श्रमण संस्कृति का महनीय योगदान है। श्रमण संस्कृति के बिना भारतीय संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती है । इस गौरवमयी श्रमण परंपरा में परम पूज्य आचार्य श्री वर्द्धमानसागर जी महाराज का अहम योगदान है। हम सभी का परम सौभाग्य है कि परम पूज्य चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की महान परंपरा के पट्टाचार्य का दर्शन लाभ प्राप्त हो रहा है। चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की परंपरा के उन्नायक आचार्यश्री निरंतर आत्म साधना और प्रभावना में तत्पर हैं।
आपका संघ त्याग तपस्या के लिए पूरे भारत में विख्यात है। संघ में आपका अनुशासन देखने योग्य है। आपकी वाणी से हजारों-हजार प्राणियों का कल्याण हो रहा है। आपका सभी के प्रति वात्सल्य भाव अनूठा है। कोई भी आपके चरणों में पहुँच जय, बस आपका होकर रह जाता है। आपकी सबसे बड़ी विशेषता है कि आप किसी की निंदा, आलोचना कभी नहीं करते, न ही किसी विवादास्पद चीजों में पड़ते हैं। उन्होंने जो भी बीड़ा उठाया वह अपने आप में एक बेमिसाल कदम हैं। भगवान आदिनाथ से लेकर भगवान महावीर तक के सिद्धांतों- शिक्षाओं को जन -जन तक पहुंचा कर इस दीक्षा को सार्थक किया । उन्होंने भगवान महावीर के सर्वोदय तीर्थ को पढ़ा चिंतन से उसकी युगानुरूप छटा भी बिखेरी।
चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज की परम्परा के पंचम पट्टादीश होने का आपको गौरव प्राप्त है, इस पंचम काल में कठोर तपश्चर्या धारी मुनि परम्परा को पुनः स्थापित करने का जिन आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज को गौरव हासिल हुआ है, उसी परम्परा के पंचम पट्टाधीश के रूप निर्दोष -चर्या का पालन करते हुए पूरे देश में धर्म की गंगा बहाने का पुण्य मिलना निश्चित इस जन्म के अलावा पूर्व जन्म की साधनाओ का ही सुफल है।
आचार्य श्री वर्धमानसागर जी अत्यंत सरल स्वभावी होकर महान क्षमा मूर्ति शिखर पुरुष हैं, वर्तमान वातावरण में चल रही सभी विसंगताओं एवं विपरीतताओं से बहुत दूर हैं, उनकी निर्दोष आहार चर्या से लेकर सभी धार्मिक किर्याओं में हम आज भी चतुर्थ काल के मुनियों के दर्शन का दिग्दर्शन कर सकते हैं।
नमस्कार से चमत्कार :
चमत्कार को नमस्कार नहीं, बल्कि नमस्कार में छुपा हुआ होता है अगर भक्ति निष्काम हो तो | आचार्य श्री वर्धमान सागर जी महाराज जब मुनि अवस्था में थे तब दीक्षा के उपरांत महाराज की नेत्र ज्योति चले गई थी , तब उन्होंने जयपुर (खानिया जी ) के चन्द्रप्रभु मंदिर में शांति भक्ति का पाठ किया था तब 52 घंटो के बाद नेत्र ज्योति वापस आई थी।
चारित्र चक्रवती प्रथमचार्य श्री 108 शांति सागर जी महाराज की अक्षुण्ण पट्टपरम्परा के चतुर्थ पट्टाचार्य श्री 108 अजित सागर जी महाराज पत्र के माध्यम से लिखित आदेश अनुसार पारसोला राजस्थान में 24 जून 1990 आषाढ़ सुदी दूज को आचार्य पद गुरु आदेश अनुसार दिया गया।
सल्लेखना समाधि :
वात्सल्य वारिधि यथा नाम तथा गुण यह पंक्ति आप पर चरितार्थ होती है आप साधुओ की सल्लेखना इतने वात्सल्य भाव मनोयोग करुणा भाव से कराते है कि हर श्रावक श्राविका साधु की यही कामना होती है कि उनका उत्कृष्ट समाधिमरण आपके सानिध्य में हो ।
पंच कल्याणक प्रतिष्ठा :
आचार्य पद के बाद 58 से अधिक पंच कल्याणक प्रतिष्ठा आपके सान्निध्य में हुई हैं।
प्रभावनामयी चातुर्मास :
आचार्यश्री ने 12 राज्यों राजस्थान, दिल्ली ,हरियाणा, उत्तर प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक ,तमिलनाडु, झारखंड, बिहार ,बंगाल व मध्यप्रदेश में ये मंगल प्रभावनामयी चातुर्मास किये हैं।
गोमटेश्वर महामस्तकाभिषेक में तीन बार सानिध्य :
उल्लेखनीय है कि श्रवणबेलगोला कर्नाटक में बाहुबली भगवान के सुप्रसिद्ध महामस्तकाभिषेक में वर्ष 1993, 2006 एव वर्ष 2018 में प्रमुख नेतृत्व दिया गया। श्री श्रवणबेलगोला महामस्तकाभिषेक में भारत के राष्ट्रपति जी , प्रधानमंत्री जी
मुख्यमंत्री जी,राज्यपाल सहित अनेक वरिष्ठ राजनेताओं ने आशीर्वाद प्राप्त कर जीवन को धन्य बनाया।
अचार्यश्री से जुड़े विशेष उल्लेखनीय तथ्य :
1 . पानी की व्यवस्था गुजरात में आहार के लिए पानी कुए का पानी लबालब हुआ।
2 . श्रवणबेलगोला में 1993 में मूसलाधार वर्षा से पानी की समस्या दूर ।
3,. कोथली में प्रवेश के पूर्व नदी- नाले,कूप पानी से लबालब।
4. कमंडल के पानी से श्रावक बालक को नया जीवन मिला।
5. 13 का अशुभ अंक बना शुभ- आपके जन्म के पूर्व 8 भाई और चार बहनों ने जन्म लिया जो काल के ग्रास बने। 13 वी संतान का अंक आपके जन्म से शुभ बना और आप जगत के तारणहार हो गए
मानव से महामानव हो गए। आप के बाद चौदहवीं संतान भी बाद में जीवित नहीं रही।आप माता-पिता की एकमात्र जीवित संतान हैं।
6.पैर में चक्र :कनक गिरी में आपके पैर में कष्ट होने पर भट्टारक स्वामी जी ने देखा कि आपके पैर में चक्र है जो कि इस बात का सूचक है कि आचार्य श्री वर्धमान सागर जी के द्वारा जैन धर्म का प्रचार-प्रसार और बहुत प्रभावना होगी ।
7. अद्भुत संयोग: बारह संतानों के निधन के कारण
माता-पिता ने श्री महावीरजी में उल्टा स्वस्तिक बनाकर उनके लंबे जीवन की कामना की थी, यह संकल्प किया था कि इनके जन्म के बाद इनके बाल उतारेंगे इनके बाल निकालेंगे। संयोग कहें कि इनकी मुनि दीक्षा वही श्री महावीरजी में हुई और उनके केशलोच हुए।
8. पद के प्रति उदासीनता । उपाध्याय पद लेने से इनकार।
9. अचार्यश्री का प्रमुख संदेश समाज में कैंची नहीं सुई बनकर रहो। जहाँ जो परंपरा चल रही है उससे छेड़छाड़ न करें।
10. इचलकरंजी सहित अनेक नगरों की समाज को एक किया ।अपूर्व वात्सल्य बीमार श्रावक को दर्शन देने स्वयं चलकर गए । टोडारायसिंह में दिगंबर श्वेतांबर समाज को एक किया।
11. कोई प्रोजेक्ट नहीं। पंचम पट्टाधीश आचार्य श्री वर्द्धमान सागर जी के नाम पर कोई क्षेत्र या गिरी नही है । श्रावक के दान का सदुपयोग हो यही उनकी मंगल प्रेरणा रहती है।
उनके जीवन की बहुत विशेषताएं हैं। वे परिस्थितियों के सामने झुके नहीं, उपसर्गों व परीषहों से वे डरे नहीं और रुके नहीं, निरंतर गतिमान उनका जीवन रहा है और आदर्शमय चारित्र के द्वारा जहां एक ओर धर्म की प्रभावना की उसके साथ ही उन्होंने आदर्श जीवन को रखकर हम सब का मार्गदर्शन कर रहे हैं। उनका मार्ग आगम सम्मत ही होता है। हमारी संस्कृति की सुरक्षा में उनका अविस्मरणीय अवदान है।
विचार ओर आचार की क्रिया विधि रूप जीवन शैली में अद्भुत सहजता है आचार्यश्री वर्द्धमान सागर जी में, इसीलिए वे वात्सल्य वारिधि हैं एवं विचार और आचार परिशुद्धि में निरंतर वर्द्धमान। आचार्यश्री का कहना है कि मैं अपनी क्रिया छोडूंगा नहीं और आपको अपनी क्रिया करने के लिए बाध्य भी नहीं करूंगा। यह समन्वय का सूत्र उन्होनें दिया है। आचार्य श्री वर्द्धमानसागर जी श्रमण परम्परा व धर्म और संस्कृति की ध्वजा निरंतर लहरा रहे हैं ।
मेरा सौभाग्य रहा है कि पूज्य आचार्यश्री का मङ्गल आशीर्वाद मुझे अनेकों अवसरों पर मिला है तथा उनके सान्निध्य में आयोजित विद्वत संगोष्ठियों का संयोजन करने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ तथा पुरस्कार समर्पण समारोह में भी संयोजन करने का सुअवसर मिला है।
पूज्य आचार्यश्री की प्रेरणा से चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के आचार्य पदारोहण के 100 वर्ष होने पर आचार्य पद पदारोहण शताब्दी महोत्सव 2024-25 अगाध श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाए जाने की व्यापक तैयारियां चल रही हैं।