आचार्य श्री वर्द्धमानसागर जी महाराज के सान्निध्य में शताब्दी समारोह के भव्य उदघाटन के साथ समारोह का हुआ उद्घोष
-डॉ. सुनील जैन संचय, ललितपुर
बीसवीं सदी के प्रथम दिगम्बर जैनाचार्य के रूप में जैन समाज ने जिस सूर्य का प्रकाश प्राप्त किया उसने सम्पूर्ण धरा का अंधकार समाप्त कर एक बार फिर से भगवान महावीर के युग का स्मरण कराया था वह थे श्रमण जगत में महामुनींद्र, चारित्र चक्रवर्ती, आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज। उन्होंने णमोकार महामंत्र का णमो आइरियाणं ये पद आदर्श रूप से भूषित किया है। अपने तप, त्याग और संयम पालन द्वारा मुनिचर्या का आगमोक्त मार्ग बताया। उनका जीवन महान पथ प्रदर्शक के रूप में था । वर्तमान में जो हमारी श्रमण परंपरा विद्यमान है, वे इन्हीं ऋषिराज की कृपा से है।
जैन आगम के परिप्रेक्ष्य में समाज को सुधारने हेतु आचार्यश्री द्वारा उठाये गये कदम अत्यंत साहसिक एवं आर्ष परम्परावादी रहे। आचार्यश्री ने जहां जैनधर्म और संस्कृति के वास्तविक पथ को पुनर्स्थापित किया वहीं उन्होंने समाज की कतिपय कुरीतियों पर भी अपना ध्यन आकर्षित कर उनके जड़मूल समापन का सफल प्रयास किया।
अंग्रेजों के शासनकाल में आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज एक ऐसे जैन मुनि हुए जिन्होंने अपने दिगम्बरत्व से जैनधर्म की भी विश्वव्यापी पताका फहरायी और भविष्य के लिए इस धर्म की नींव अत्यंत मजबूत बना दी।
कर्नाटक के भोज में सन 1872 में जन्में बालक सातगौड़ा ने यरनाल में मुनिदीक्षा ग्रहण कर सन 1924 समडौली में आचार्य पद प्राप्त किया था। संपूर्ण देशभर में पद विहार कर उन्होंने बीसवी सदी में दिगम्बरत्व के विस्तार व जैनत्व के उन्नयन के लिए अनेकों कार्य किये । वर्तमान में 1600 से अधिक पिच्छीधारी संत उनका स्मरण कर मोक्षमार्ग पर अग्रसर हैं । उनकी पट्ट परम्परा के पंचम पट्टाधीश आचार्य के रूप में आचार्यश्री वर्धमानसागरजी विगत 1990 से उक्त पद पर शोभायमान हैं ।
आचार्य श्री वर्द्धमानसागर जी महाराज की प्रेरणा व सान्निध्य में आचार्य श्री शांति सागर जी का मुनि दीक्षा शताब्दी (वर्ष 2019-20 ) महोत्सव मुनि दीक्षा स्थली यरनाल (कर्नाटक) में हम सबने हर्षोल्लास पूर्वक मनाया था। ऐसे महान आचार्य का आचार्य पद का शताब्दी वर्ष मनाने का भी शुभ प्रसंग हमारे बीच आ गया है। जिसका उदघाटन पारसोला राजस्थान में परम पूज्य चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की परंपरा के पट्टाचार्य वात्सल्य वारिधि आचार्य श्री वर्द्धमान सागर जी महाराज ससंघ के सान्निध्य में 13 के 15 अक्टूबर 2024 तक त्रिदिवसीय आयोजन के माध्यम से हो चुका है।
शताब्दी समारोह की सर्वप्रथम अपने मुखार बिंद से घोषणा विजयनगर (अजमेर) में आचार्यश्री ने की थी। इस संबंध में विजयनगर में आचार्यश्री से चर्चा करने का अवसर भी प्राप्त हुआ था।
आचार्य पद प्रतिष्ठापन के 100वें वर्ष को आचार्य पद प्रतिष्ठापना शताब्दी महोत्सव के रूप में 2024-25 में भव्य विशाल स्तर पर वैचारिक आयामों के साथ संस्कृति संवर्धन, सामाजिक सरोकार के बहुउद्देशीय पंचसूत्री कार्यक्रमों के साथ मनाया जाएगा। महोत्सव के आयोजन के लिए विस्तृत रूपरेखा व कमेटी गठन के लिए परम्परा के पट्टाधीश राष्ट्रगौरव, वात्सल्यवारिधि आचार्य 108 श्री वर्धमानसागरजी महाराज ससंघ के सान्निध्य में
एक कमेटी का गठन भी हो चुका है।
आचार्य श्री वर्द्धमान सागर जी महाराज का कहना है कि न -‘उनका गुणगान करने उनके कार्यों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए आचार्य पद प्रतिष्ठापन शताब्दी महोत्सव संस्कृति संरक्षण व सामाजिक सरोकार का माध्यम बनेगा’।
अपने पूर्वजों के उपकारों को याद रखने वाले श्रावक अपने कर्तव्यों का सही पालन करते हैं। जिनकी कृपा प्रसाद से समाज, संस्कृति, श्रमण संस्कृति धर्म और वंश का संरक्षण और पोषण होता है उनके गुणों का गुणगान करना हमारा दायित्व है।
जैन समाज एवं धर्म के वर्तमान इतिहास पर यदि दृष्टिपात करें तो बीसवी सदी के प्रथम आचार्य के रूप में जन्में चारित्र चक्रवर्ती श्री शांतिसागर जी महाराज के समाज पर अनंत उपकार हैं।
हम सभी का परम सौभाग्य है कि ऐसे चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागरजी का आचार्य पद प्रतिष्ठापन शताब्दी महोत्सव संपूर्ण देश में मनाने का अवसर 2024-25 में प्राप्त होने जा रहा है, हम सभी अभी से इसके लिए संकल्पित हों।
हमें आचार्यश्री के उपकारों को समाज के बीच में याद करते रहना चाहिए। हमें आचार्यश्री के जीवन पर आयोजित संगोष्ठी, प्रश्नमंच, नाटिका, चित्रकला प्रदर्शनी, भाषण प्रतियोगिता, निबंध प्रतियोगिता, विद्वत् संगोष्ठियां,परिचर्चा, नाटिका, डाक्यूमेंट्री फ़िल्म आदि आयोजित करना चाहिए, जिससे बच्चे- बच्चे को शांतिसागर जी के जीवनवृत्त से परिचित होने का अवसर प्राप्त हो सके।
आईए पूरी श्रद्धा और समर्पण के साथ इस शताब्दी वर्ष को प्राण-प्रण से मनाने के लिए तैयार हो जाएं।
उनको मिटा सके, यह जमाने में दम नहीं।
उनसे जमाना खुद है, जमाने से वह नहीं।।