बिना चारित्र के मिले ज्ञान से, संसार सागर से मुक्ति नहीं मिलती -मुनिश्री विलोकसागर

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मुरैना (मनोज जैन नायक) आध्यात्मिक वर्षायोग में प्रतिदिन चल रही प्रवचनों की श्रृंखला में बड़े जैन मंदिर में चातुर्मासरत जैन संत मुनिश्री विलोकसागरजी महाराज ने ग्रन्थराज समयसार की विवेचना करते हुए कहा कि ज्ञान प्राप्त करना, ग्रंथों का, शास्त्रों का अध्ययन करना तो सहज और सरल है। शास्त्रों और ग्रंथों का अध्ययन करना भी सहज और सरल है । ज्ञान तो प्राप्त किया जा सकता है, लेकिन कोरे ज्ञान को प्राप्त करने से आत्मा का भला होने वाला नहीं हैं। ज्ञान तो हम सभी प्राप्त कर सकते है, लेकिन वह ज्ञान जब तक चारित्र में नहीं आएगा तब तक हमारा कल्याण होना संभव नहीं हैं। जब तक हमें सच्चे ज्ञान की, सही ज्ञान की प्राप्ति नहीं होगी, उस ज्ञान को, उन सिद्धांतों को हम चारित्र में नहीं उतारेंगे, तब तक हम यूहीं इस संसार के जन्म मृत्यु के चक्रव्यूह में भटकते रहेंगे । जब ज्ञान चारित्र में आता है तो राग द्वेष स्वत: ही समाप्त हो जाते हैं, निज और पर समझ में आ जाते हैं । आत्मा का हित क्या है, इसका भाव समझ में आ जाता है । संसार से विरक्ति होकर आत्मा अपने में लीन होने का प्रयास करती है । यही मोक्ष मार्ग है । जब राग द्वेष पूर्णतः समाप्त हो जाता है और आत्मा अष्ट कर्मों को नष्टकर सिद्धत्व को प्राप्त कर लेती है ।
मुनिश्री ने कहा कि जैन दर्शन में चारित्र का गहरा संबंध है । चारित्र, आत्मा के शुभ या शुद्ध आचरण और संयम को कहते हैं, जो मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक है । यह जैन धर्म का मूलभूत सिद्धांत है, जो अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह जैसे व्रतों का पालन करके प्राप्त होता है। चारित्र का अर्थ है पाप वृत्तियों का त्याग कर आत्म-शुद्धि की ओर बढ़ना, जो सम्यक् चारित्र के रूप में जीवन के सभी पहलुओं में नैतिक आचरण को अपनाना सिखाता है। जैन दर्शन के अनुसार, चारित्र आत्मा की विभाव (अशुद्ध) अवस्था से स्वभाव (शुद्ध) अवस्था की ओर बढ़ना है। मोक्ष मार्ग एक ऐसा मार्ग है जिसके द्वारा आत्मा जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करती है।

चारित्र का अर्थ एवं महत्व
चारित्र का अर्थ है पाप वृत्तियों का त्याग कर आत्म-शुद्धि की ओर बढ़ना, जो सम्यक् चारित्र के रूप में जीवन के सभी पहलुओं में नैतिक आचरण का मार्ग सिखाता है। जैन दर्शन में “चारित्र” आत्मा के शुभ और शुद्ध आचरण को कहते हैं, जो पाप प्रवृत्तियों का त्याग और संयम में संलग्न होकर मोक्ष प्राप्ति का मार्ग है । यह श्री जिनेंद्र भगवान के सिद्धांतों पर आधारित है और आध्यात्मिक विकास के लिए सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, और सम्यक् चारित्र नामक त्रिरत्न का महत्वपूर्ण हिस्सा है ।विशेष रूप से, यह पांच महाव्रतों – अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह – का पालन करके प्राप्त किया जाता है । चारित्र का अर्थ है आचरण या व्यवहार। जैन धर्म में यह आत्मा के शुद्ध आचरण को दर्शाता है जो मोक्ष की ओर ले जाता है ।मोक्ष प्राप्त करने के लिए सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र, तीनों आवश्यक हैं ।चारित्र का अर्थ है सभी पाप वृत्तियों और सावध प्रवृत्तियों का त्याग करना, तथा मोक्ष के लिए शुभ और संयमित प्रवृत्ति करना ।
सम्यक चरित्र का अर्थ है “सही आचरण” या “सच्चा आचरण” । यह जैन धर्म में एक महत्वपूर्ण अवधारणा है, जो संसार से मुक्ति के लिए, मोक्ष प्राप्त करने के लिए आवश्यक तीन रत्नों में से एक है। अन्य दो रत्न हैं सम्यक दर्शन और सम्यक ज्ञान हैं।
सम्यक चरित्र, जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, “सही” या “सत्य” आचरण को संदर्भित करता है। यह न केवल कर्मों के संदर्भ में, बल्कि विचारों और भावनाओं के संदर्भ में भी सही आचरण को दर्शाता है। जैन धर्म में सम्यक चरित्र का पालन करने का अर्थ है, नैतिक नियमों का पालन करना, जीवित प्राणियों को नुकसान पहुंचाने से बचना, और स्वयं को आसक्ति और अन्य अशुद्ध दृष्टिकोणों से मुक्त करना।

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