बिखरता ताना-बाना: आधुनिक समाज की विडंबना

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डॉ. सुनील जैन ‘संचय’, ललितपुर
9793821108
समाज एक सजीव संस्था है, जो व्यक्ति, परिवार, परंपराएँ, मूल्य और विश्वासों से मिलकर बना है। यह ताना-बाना जितना सुदृढ़ होता है, समाज उतना ही शांतिपूर्ण और उन्नत होता है। परंतु आज के इस तेज़ी से बदलते दौर में आधुनिकता की अंधी दौड़, भौतिकवाद की चकाचौंध और आत्मकेंद्रित सोच ने सामाजिक संरचना को गहरी क्षति पहुंचाई है। आज सामाजिक ताने-बाने के बिखरने की आहट स्पष्ट सुनाई देने लगी है।
 परिवार से सामाजिक क्षरण की शुरुआत: जहाँ पहले संयुक्त परिवारों में जीवन का सार बसता था, वहीं अब एकल परिवारों का चलन बढ़ रहा है। माता-पिता और वृद्ध जन उपेक्षित हो रहे हैं। बच्चों में अनुशासन और मूल्य शिक्षा का अभाव समाज के भविष्य को संकट में डाल रहा है। बच्चों को दादा-दादी से कहानियाँ नहीं, मोबाइल से वीडियो मिल रहे हैं। जब माता-पिता स्वयं आत्मकेन्द्रित होंगे, तो भावी पीढ़ी कैसे भावुक या संवेदनशील बन पाएगी?
नैतिकता और संस्कारों का ह्रास: आज का युवा वर्ग तकनीक में दक्ष होते हुए भी नैतिक दृष्टि से दरिद्र होता जा रहा है। ‘मैं’ की भावना ने ‘हम’ की भावना को निगल लिया है। सामाजिक सौहार्द्र, सेवा-भावना, सहिष्णुता जैसे मूल्य केवल किताबों तक सिमट गए हैं।
रिश्तों में औपचारिकता और स्वार्थ: रिश्ते अब भावना से नहीं, सुविधा से तय हो रहे हैं। विवाह जैसे पवित्र संबंध भी अब ‘सामाजिक सौदा’ बनते जा रहे हैं। तलाक, लिव-इन संबंध, और प्रेम की परिभाषा में आई हल्केपन ने रिश्तों की आत्मा को क्षीण कर दिया है।
सामाजिक असमानता और संघर्ष: धन की विषमता, जातिगत भेदभाव, राजनीतिक ध्रुवीकरण, और धार्मिक कट्टरता समाज को खंड-खंड कर रहे हैं। संवाद के स्थान पर संघर्ष, और सहमति के स्थान पर आक्रोश ने समाज को जर्जर कर दिया है।
भौतिकता बनाम आध्यात्मिकता: संसारिक सुख-सुविधाओं की चाह में व्यक्ति अपनी आंतरिक शांति और सामाजिक जिम्मेदारियों से विमुख हो रहा है। धर्म, अध्यात्म और संस्कार केवल प्रदर्शन बनकर रह गए हैं।
शिक्षा: ज्ञान नहीं, केवल डिग्री का माध्यम : आज की शिक्षा प्रणाली केवल रोजगारोन्मुख हो गई है। नैतिक शिक्षा, चरित्र निर्माण, सेवा, सहिष्णुता जैसे विषय हाशिये पर हैं। शिक्षकों की भूमिका ‘गाइड’ से ‘कोच’ बन गई है। विद्यार्थी परीक्षा पास करता है, पर जीवन की परीक्षा में फेल हो रहा है।
 मीडिया और सोशल मीडिया: सूचना नहीं, भ्रामक मनोरंजन मीडिया समाज का दर्पण है, पर आज यह विकृत प्रतिबिंब दिखा रहा है। नफरत, सनसनी और अफवाहें फैलाने वाली खबरें समाज को विभाजित कर रही हैं। सोशल मीडिया ने संवाद को विघटन में बदल दिया है। ‘ट्रेंडिंग’ के लिए सच्चाई का बलिदान हो रहा है।
धार्मिक संस्थाएं: मार्गदर्शक या भ्रमितकर्ता?
जहां धर्म को आत्मा की शुद्धि का माध्यम होना चाहिए था, वहीं अब यह कई बार व्यक्ति और समूहों के वर्चस्व की राजनीति बन गया है। आडंबर, पाखंड और प्रदर्शन ने सच्चे अध्यात्म को ढक लिया है।
 हम स्वयं: क्या हम निर्दोष हैं? हर व्यक्ति यदि ईमानदारी से आत्मनिरीक्षण करे तो पाएगा कि वह भी इस बिखराव में कहीं न कहीं सहभागी है। हम न अपने कर्तव्यों के प्रति सजग हैं, न अधिकारों के प्रति जिम्मेदार। दूसरों को दोष देने से पहले हमें खुद को बदलना होगा।
समाधान की दिशा में प्रयास: संस्कारशील शिक्षा: विद्यालयों में नैतिक शिक्षा को अनिवार्य बनाना।
पारिवारिक पुनरुत्थान: परिवार के साथ समय बिताने की संस्कृति को पुनर्जीवित करना।
सामाजिक संवाद: समुदाय स्तर पर संवाद, सहमति और सहयोग की पहल बढ़ाना।
धार्मिक-सांस्कृतिक जागरूकता: आध्यात्मिक मूल्यों को व्यवहार में उतारना।
युवा जागरण: युवाओं को समाज के प्रति जिम्मेदार बनाना और उन्हें प्रेरक उदाहरण देना।
उपसंहार: समाज एक परंपरा, संवेदना और सहअस्तित्व की बुनियाद पर खड़ा होता है। यदि हम समय रहते नहीं जागे तो बिखरता हुआ यह ताना-बाना एक ऐसी स्थिति को जन्म देगा, जहाँ पुनर्निर्माण असंभव नहीं तो अत्यंत कठिन अवश्य होगा। हमें लौटना होगा – अपने मूल्यों की ओर, अपने संबंधों की ओर, अपने भीतर की मनुष्यता की ओर। समाज कोई बाहरी वस्तु नहीं है, हम सब मिलकर ही इसका निर्माण करते हैं। यदि समाज बिखर रहा है तो यह केवल शासकों, संस्थाओं या मीडिया की गलती नहीं, हम सभी की सामूहिक उदासीनता का परिणाम है। आइए, पहले खुद से शुरुआत करें—अपने घर से, अपने व्यवहार से, अपने विचार से। तभी यह टूटता ताना-बाना फिर से जुड़ पाएगा।

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