दुःस पैदा किए जाते हैं, सुख तो हमारी आत्मा में ही मौजूद है- भावलिंगी संत आचार्यश्री विमर्शसागर जी मुनिराज
स दुनिया में दुःख कहीं मिलते नहीं हैं। पुन्य की जीव स्वयं करता है। और सुल मौजूद है है मात्र उसे प्राप्त करना होता है। व्यक्ति स्वयं अपनी भूल से अपने को ही नरक, तिर्मन्च गति के दुःखों को पैदा करता रहता है। शाश्वत सुख- सच्चा सुख प्रत्येक जीवात्मा में विद्यमान है, उसे छोड़कर जीव उस वैभव को प्राप्त करना चाहता है जिसे प्राप्त करने के बाद उस वैभव को नियम से छोड़ना होता है। अरे भाई। वैभव प्राप्त करना ही है तो उस वैभव को प्राप्त करो जिसे प्राप्त करने के बाद कभी कंगाल नहीं होना पड़ता। वह वैभव है अपने ही आत्मा का अंतरंग गुण-वैभव । ऐसा परम पवित्र मांगलिक धर्मोपदेश कृष्णानगर जैन मंदिर में उपस्थित धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए भावलिंगी संत आचार्य भगवन श्री 108 विमर्श सागर जी महामुनिराज ने दिया ! आचार्य श्री ने धर्मसभा में दुःखों के कारण एवं के कारणों से अवगत कराते हुए बताया सुखों इस संसार में सबसे अधिक मूल्य भावों का होता है। भाव अर्थात परिणाम यदि शुभ एवं प्रशस्त हैं तो व्यक्ति शुभ गति में जाकर अनुकूल साधनों को प्राप्त करता है। भाव यदि अशुभ-अप्रशस्त है तो जीव नरक आदि दुर्गति में जाकर करोडोंन -करोड़ों वर्षों तक दुःखों को भोगता रहता है। वहीं भाव ही यदि शुभ और अशुभ से ऊपर उठकर अपने भावों को शुद्ध बना लिया जाए तो जीव को चारों ही गलियों से रहित पंचमगति गति अर्थात मोक्ष- निर्वाण की प्राप्ति हो जाती है। भावों की संभाल स्वयं को ही करना होती है। भावों की सम्हाल से भव संभल जाते हैं, भावों के बिगड़ते ही भव-भव बिगड़ जाते हैं।