– डॉ. सुनील जैन ‘संचय’, ललितपुर
मनुष्य बाहरी शत्रुओं से तो सदैव सजग रहता है, लेकिन भीतर छिपे शत्रुओं की ओर उसकी दृष्टि कम ही जाती है। ये शत्रु न तो तलवार उठाते हैं और न ही युद्ध करते हैं, फिर भी ये व्यक्ति के चरित्र, मन, विचार और आत्मिक विकास को भीतर से खोखला कर देते हैं। आज के युग में जब बाहरी परिस्थितियाँ हमारे वश में नहीं हैं, तब यह और भी आवश्यक हो जाता है कि हम भीतर के शत्रुओं की पहचान करें और उन पर नियंत्रण रखें।
“मनुष्य के शत्रु बाहर नहीं, भीतर बसते हैं – और वही सबसे खतरनाक होते हैं।” जीवन में हम अकसर बाहरी आपदाओं, परिस्थितियों या व्यक्तियों को दोष देते हैं, परंतु हमारी वास्तविक लड़ाई भीतर के दुश्मनों से है – जो चुपचाप, निरंतर हमें खोखला करते हैं। यदि आत्मा का कल्याण चाहिए, तो इन अदृश्य शत्रुओं के विरुद्ध चौकसी अनिवार्य है।
भीतर के पाँच प्रमुख दुश्मन :
जैन दर्शन में इन्हें कषाय कहा गया है – क्रोध, मान (अहंकार), माया (छल-कपट), और लोभ। ये चारों मिलकर हमारे भीतर एक ऐसा द्वंद्व खड़ा करते हैं जिससे आत्मिक प्रगति रुक जाती है।
क्रोध: आत्मिक विनाश का कारण
क्रोध मनुष्य की विवेकशीलता को छीन लेता है। एक क्षण का क्रोध जीवन भर का पश्चाताप बन सकता है। यह न केवल दूसरों को कष्ट देता है बल्कि स्वयं को भी भीतर से जला डालता है। भीतर के इस शत्रु के विरुद्ध सजग रहना अत्यंत आवश्यक है। मनु स्मृति में कहा है कि “क्रोधान्धः न जानाति न कर्तव्यं न कर्हिचित्।” क्रोध एक तात्कालिक पागलपन है। यह विवेक को हर लेता है और निर्णय क्षमता को शून्य कर देता है।
उपाय: क्षमा, धैर्य और मौन साधना।
अहंकार: विनम्रता का विलोम -अहंकार व्यक्ति को आत्मा से विमुख कर देता है। जब व्यक्ति ‘मैं’ और ‘मेरा’ में उलझ जाता है, तब वह दूसरों के मूल्य और अपने दोषों को देखना बंद कर देता है। ये शत्रु हमारे भीतर घर बना लेते हैं और धीरे-धीरे हमारी आत्मा की शुद्धता को नष्ट कर देते हैं।
“अहंकार विनाशाय विनम्रता समृद्धये।” जब ‘मैं’ ही सब कुछ हो जाता है, तब ‘हम’ और ‘तुम’ का स्थान नहीं रहता।
उपाय: विनम्रता, स्वीकृति, आत्मविश्लेषण।
माया: धोखे का जाल – जब व्यक्ति छल-कपट, झूठ और दिखावे का सहारा लेता है, तो वह आत्मा से दूर होता चला जाता है। माया एक ऐसा जाल है जो दूसरों को भ्रमित करने के प्रयास में स्वयं को फंसा लेता है। नीति शास्त्र में कहा गया है कि – “मायाविनो न विश्वसनीया:”। माया छल और दिखावे का जाल है। इससे व्यक्ति स्वयं भ्रमित होता है।
उपाय: सरलता, पारदर्शिता, सच बोलने का संकल्प।
लोभ: न संतुष्टि की जड़ -लोभ कभी तृप्त नहीं होता। यह जितना मिलता है, उतना और चाहता है। लोभ के कारण व्यक्ति धर्म, नैतिकता और रिश्तों को भी त्याग सकता है। चाणक्य नीति है कि-“लोभो नाशाय लोभः पातकाय।” लोभ कभी समाप्त नहीं होता; यह सदा अधिक की माँग करता है।
उपाय: संतोष, दान, त्याग की भावना।
मोह: भ्रम और बंधन की जड़- मोह व्यक्ति को सत्य से विमुख कर देता है। किसी वस्तु, व्यक्ति या स्थिति से अत्यधिक लगाव व्यक्ति को भ्रमित करता है। मोह के कारण व्यक्ति निर्णय लेने में असमर्थ हो जाता है।श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है कि “मोह एव मनुष्याणां बन्धनाय न संशयः।” मोह व्यक्ति को अपने कर्तव्यों से विमुख कर देता है।
उपाय: वैराग्य, विवेक और आत्मनिष्ठा।
चौकसी कैसे बढ़ाएँ?
1. नित्य आत्म-निरीक्षण करें।
2. ध्यान और प्रार्थना के माध्यम से आत्मा को जागृत रखें।
3. सद्ग्रंथों का अध्ययन करें और सत्संग से जुड़े रहें।
4. मौन व्रत एवं उपवास जैसे आत्मअनुशासन के साधन अपनाएँ।
5. अपने व्यवहार और विचारों का विश्लेषण करें।
जैन दृष्टिकोण में समाधान :
जैन धर्म आत्मा की शुद्धि पर बल देता है। जैनदर्शन भीतर के शत्रुओं को जीतने की प्रेरणा देता है। संयम, तप, त्याग और सम्यक्दृष्टि के द्वारा इन शत्रुओं पर विजय पाई जा सकती है।
सजगता की राह: क्या करें?
नित्य आत्म-निरीक्षण करें: स्वयं को परखो, यही पहला उपाय है।
ध्यान व प्रार्थना: ध्यान आत्मा को जागृत करता है और विचारों की शुद्धि लाता है।
साहित्य व सत्संग: सत्संग, जीवनदर्शन का प्रतिबिंब है। इससे विवेक जागृत होता है।
व्रत व संयम का अभ्यास: उपवास, मौन और अन्य तप क्रियाएँ आंतरिक दुश्मनों को शांत करती हैं।
उपसंहार : आज का मनुष्य बाहरी तकनीक में कुशल हो गया है, पर आत्मिक सजगता में कमजोर होता जा रहा है। भीतर के दुश्मनों के विरुद्ध युद्ध ही सच्चा आत्मयुद्ध है। जैन धर्म इसे “अंतरयात्रा” कहता है – जहाँ युद्ध बाहरी नहीं, आत्मा के कल्याण हेतु होता है।
स्मरण रखें: “बाहर के किले तो समय ढहा सकता है, भीतर की दीवारें केवल संयम ही तोड़ सकता है।”
भीतर के दुश्मनों की पहचान और उन पर सतत जागरूकता – यही आत्मिक यात्रा का आरंभ है।
संसार की विजय मूल्यहीन है, यदि आत्मा पराजित हो। इसीलिए भीतर के दुश्मनों के विरुद्ध चौकसी और साधना ही सर्वोत्तम सुरक्षा है। आधुनिक जीवन में, जो व्यक्ति सोशल मीडिया, लोभ-लालच, क्रोध और दिखावे के प्रभाव से स्वयं को बचाता है, वही सच्चा विजेता है।
हमारे जीवन की सबसे बड़ी लड़ाई भीतर ही लड़ी जाती है। बाहरी दुनिया की जीत तब तक अधूरी है जब तक हम अपने भीतर के शत्रुओं को पराजित न करें। आज आवश्यकता है चौकस रहने की, सजग रहने की, और उस आत्मबल को विकसित करने की जो हमें भीतर से स्वच्छ, शांत और शक्तिशाली बना सके।
भीतर के दुश्मनों की पहचान और उन पर सतत जागरूकता – यही आत्मिक यात्रा का आरंभ है।
संसार की विजय मूल्यहीन है, यदि आत्मा पराजित हो। इसीलिए भीतर के दुश्मनों के विरुद्ध चौकसी और साधना ही सर्वोत्तम सुरक्षा है।
याद रखें: “जो स्वयं को जीत ले, वही सच्चा विजेता है।” जैन शास्त्रों में कहा गया है कि-जिसने इन्द्रियों को जीत लिया, उसे संसार भय नहीं देता। आत्मज्ञान से मुक्त जीव भवबन्धन से मुक्त होता है।
-डॉ सुनील जैन संचय
9793821108