भावों की निर्मलता से सुख शांति मिलती है -आचार्य विनिश्चय सागर

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नगर में चातुर्मासरत जैनाचार्य प्रतिदिन दे रहे हैं मीठे प्रवचन

रामगंजमंडी (मनोज जैन नायक) सांसारिक जीवन में नित्य ही असंख्यात समस्या आती हैं और आने वाली होती हैं । उनके निदान के लिए किस किस के पास जाओगे । जिसके पास भी पहुंचोगे, किस किस का समाधान, किस-किस के पास जाकर खोजोगे। जिसके पास भी जाओगे, क्या वह तुम्हारी समस्या का समाधान कर देगा ? नहीं कर सकता। हिरण की नाभि में कस्तूरी होती है, लेकिन वह रेगिस्तान में और जंगल में उसे खोजती फिरती है कि सुगंध कहां से आ रही है । इधर-उधर ढूंढती है, थक जाती है और हार कर प्राण त्याग देती है। उसे इतनी सी बात समझ नहीं पाती कि यह सुगंध मेरी नाभि में से ही आ रही है। यही बात संसारी जीव को भी समझ में नहीं आ रही है कि मेरी समस्या का समाधान मैं ही हूं। कोई दूसरा नहीं है। न कोई संत, न कोई महंत, न कोई देवता, न कोई तंत्र, न कोई मंत्र सिर्फ मात्र जीव ही अपनी समस्या का समाधान कर सकता है। या तो वो कर्म निर्जरा करके कर सकता है या फिर शुभ कर्मों को उदय में लाकर कर सकता है या फिर पाप कर्मों को पुण्य के संक्रमण में लाकर कर सकता है । किसी के भी सामने झोली फैला लो, इससे कुछ नहीं होगा और कर्म बंधते जाएंगे। समस्या का अंबार लगा देगे । लेकिन उस मृग के समान समाधान हमारे पास होते हुए भी हम समाधान को बाहर खोज रहे हैं। अपने भावों को शुद्ध बनाएंगे, विशुद्धि को बढ़ाएंगे, पुण्य होगा सब काम अपने आप होंगे। उक्त उद्गार वाक्केशरी आचार्यश्री विनिश्चय सागर महाराज ने धर्मसभा को संबोधित करते हुए व्यक्त किए ।
पूज्य आचार्यश्री ने अनुकंपा के विषय पर प्रकाश डालते हुए कहा कि सब जीवो पर समान दृष्टि रखना । परिवार का सदस्य हो, पड़ोसी हो, देश-विदेश में हो सब पर समान दृष्टि रखना । कोई भेद नहीं करना, अपना पराया नहीं करना। इसे अनुकंपा कहा जाता है। अनुकंपा स्वार्थ अनुकंपा नहीं होना चाहिए। जहां हमें आवश्यक है, वहां अनुकंपा दिखाएं, जहां नहीं हैं वहां नहीं दिखाएं। समान रूप से अनुकंपा होनी चाहिए। हमारे द्वारा किसी जीव को कष्ट पीड़ा ना हो यह भाव होना चाहिए। अपने आप पर भी और दूसरे पर भी अनुकंपा करें।
आचार्य श्री ने बताया कि सब कुछ कर लेना मगर शंका मत करना । किसी के प्रति शंका है तो कह दो, तुरंत स्पष्ट बात कर लो । मुझे ऐसा लग रहा है, आप ऐसे है । यदि वो कह दे मैं ऐसा नहीं हूं तो मान लो । क्यों अपना दिमाग खराब करते हो, हम स्वीकार नहीं कर पाते । कहते है कि तुम झूठ बोल रहे हो। दिमाग में फ़ितूल आ जाता है कि व्यक्ति झूठ बोल रहा है ऐसा करते-करते कई परिवार बिगड़ते चले गए, बिगड़ते चले गए ।
सांसारिक जीवन में समस्याएं तो आती जाती रहेगीन । आप अपना जीवन समता पूर्वक व्यतीत करें । आप गृहस्थ जीवन में हो तो उसका भी आनंद उठाओ । ऐसा नहीं है कि गृहस्थ जीवन में आनंद नहीं है। गृहस्थ जीवन बड़ा विचित्र है । व्यक्ति अर्थ का अभाव होने पर भी आनंद उठा लेता है। हमारी आस्था क्या है, हमारी कल्पना क्या है उसी हिसाब से सुकून मिलता है जिंदगी की कीमत होती है मुर्दे की नहीं। वर्तमान में इंसान के पास सब कुछ है, लेकिन सुकुन नहीं है। सब कुछ तुम्हारे पास है लेकिन सुकुन तुम्हे अपने पुरुषार्थ से ही पाना होगा। अगर तुम्हारा पुरुषार्थ सही जगह होगा तो सुकुन अनुभव जरूर होगा। घर मकान एवम घर में साम्रगी सबके पास भरपूर है लेकिन सुकुन नहीं है। अच्छा खाना, अच्छा भोजन, अच्छा आवास होने के बावजूद आपके पास सुकुन नहीं हैं तो आपसे गया बीता कौन है। यह आपकी कमी है। अमृत जिव्हा पर है फ़िर भी आप स्वाद नहीं ले पा रहे हैं। लेकिन हम एहसास नहीं करते अगर एहसास करें तो सुकुन जरूर मिलेगा। विकल्पों में साधनों की असंतुष्टि में जिओगे तो सुकुन कभी मिलने वाला नहीं है।

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