डॉ नरेन्द्र जैन भारती सनावद
जब-जब इस संसार में सदाचार का विनाश होता है, मिथ्यादृष्टि लोगों का बोलबाला बढ़ता है, धर्म के प्रति ग्लानि उत्पन्न होने लगती है, तब – तब उत्तम ”जिन ” अर्थात् तीर्थंकरों का जन्म होता है। जिनकी दिव्य ध्वनि को सुनकर व्यक्ति का जीवन परिवर्तित होता है। उससे शोक और अशांति समाप्त होती है। वर्तमान शासन नायक जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी ऐसे ही एक तीर्थंकर हुए, जिन्होंने दु:षह पंचमकाल में अपनी दिव्य ध्वनि के माध्यम से जगत् के सभी प्राणियों का महान उपकार किया था। संसार के परिभ्रमण का नाश करने वाले तीर्थंकर की प्रवृत्ति की थी तथा भव्य जनों को आनंदित करते हुए पूर्व तीर्थंकरों की विचारधारा पर ही चलने का सच्चा मार्ग बता रहे थे।
आज से 2622 वर्ष पूर्व भगवान महावीर स्वामी ने वैशाली गणराज्य के क्षत्रिय कुंडग्राम के राजमहल में चैत्र कृष्ण त्रयोदशी के दिन राजा सिद्धार्थ और रानी प्रियकारिणी त्रिशला देवी के घर जन्म लेकर तीनों लोकों के प्राणियों को खुशियाँ प्रदान की थी। देवताओं ने देवदुन्दुभि: तथा जय घोषों के साथ तथा मनुष्यों ने सुख शांति का अनुभव करते हुए आपके जन्मोत्सव पर खुशी जाहिर की। राजपाट के वैभव को देखकर भी धर्म के नाम पर होने वाली हिंसा तथा मिथ्या मान्यताओं को देखकर आपका मन सांसारिक जीवन से उदासीन हो गया। अतः 30 वर्ष की अवस्था में त्रिशलानंदन महावीर स्वामी, कर्मों के बंधनों को काटने के लिए तपस्या करने पर विचार कर आत्मचिंतन में लीन हो गये।ई. पू. 569 में आपने स्व दीक्षा लेकर शालवृक्ष के नीचे तपस्या आरंभ की। आपकी तप साधना बड़ी कठिन थी। साहित्यकार तथा महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने कहा है – महावीर और बुद्ध से ज्यादा यदि कोई त्याग और तपस्या का घमंड करता है तो मैं उसे दम्भी कहूँगा। किसी कवि ने भी कहा है-
त्याग की बात तो हर कोई करता है,
सत्य का नारा तो हर कोई बोलता है,
उतारे कथनी को करनी बनाकर जीवन में,
ऐसा महावीर तो एकाध हुआ करता है।
भगवान महावीर स्वामी ने 12 वर्ष तक घोर तपस्या की थी । वैशाख शुक्ल दशमी ई. पू. 557 में ज्रम्भक नामक ग्राम में अपरान्ह समय में शालवृक्ष के नीचे जब आप मौन साधना कर रहे थे तब समस्त घातिया कर्मों का नाश होने के कारण आपको केवलज्ञान की प्राप्ति हुई और आप उसी दिन से सर्वज्ञ और समदर्शी बन गये। कर्मों का विजेता होने के कारण आप ‘जिन’ कहलाये। आपका प्रथम धर्मोपदेश केवलज्ञान के प्राप्त होने के 66 दिन बाद ई. पू. 557 में श्रावण कृष्ण एकम ( प्रतिपदा ) के दिन हुआ था। गौतम स्वामी उनके प्रथम गणधर बने। भगवान महावीर स्वामी की सभा “समवशरण” कहलाती थी जिसमें देवगण, मनुष्य और पशुपक्षी समान रूप से धर्म श्रवण करते थे। अहिंसा, सत्य अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य के उपदेश सभी के मन को लुभाने लगे । अतः अनेक लोगों ने धर्म के इन पाँच सिद्धांतों को अपनाया और आत्माहित किया।
आचार्य समन्त भद्र स्वामी ने उनके तीर्थ को सर्वोदयतीर्थ कहा है। जिनमें सभी का उदय, अभ्युदय और कल्याण निहित हो, वह सर्वोदय है। भगवान महावीर स्वामी ने बताया कि धर्म वही है जिसमें हम स्वयं जियें और दूसरों को जीने दें। कभी किसी प्राणी को न सतायें और न मारें। बल्कि सभी एक दूसरे की सहायता करें। भूखे को रोटी दो और प्यास की प्यास बुझाओ , यह कहावत भगवान महावीर की शिक्षाओं से ही प्रचलित हुई थी। उनका मानना था कि यह कभी उचित नहीं है कि एक व्यक्ति असीम सुख सुविधाओं का प्रयोग करे और दूसरा एक समय की रोटी भी न जुटा पाये। इन असमान व्यवस्थाओं को समाप्त करने के लिए उन्होंने अपरिग्रह अर्थात् अल्प परिग्रह की भावना पर जोर दिया। आपने बताया कि सभी तरह के पापपूर्ण आचरण को छोड़ने पर ही शरीर और मन में निर्मलता आयेगी । शरीर के पोषण के लिए व्यक्ति मद्य, मांस, मधु का सेवन करता है, जबकि मद्य पीने वाला जब विवेक खो देता है तभी मन विकारग्रस्त बनता है, इसलिए भगवान महावीर स्वामी ने तन की अपेक्षा मन के विकारों को दूर करने पर बल दिया। आपका यह विचार मानव मात्र के लिए ही नहीं बल्कि प्राणी मात्र के हित की भावना के लिए समर्पित था।उन्होंने बताया कि मनुष्य और क्षुद्र प्राणी जैसे जीवों में भी आत्मा के अस्तित्व की अपेक्षा कोई अंतर नहीं है। अतः किसी भी प्राणी को न मारो, न सताओ और न जीव हिंसा के भावों को मन में लोओ। सभी के प्रति समत्वभाव धारण कर ऊँच-नीच का भाव त्याग कर सभी के स्वत्वाधिकार को स्वीकार करो।युक्त्यनु-शासन में कहा गया है-
दया,दम त्याग समाधिनिष्ठं नए प्रमाण प्रकृता ज्जसार्थम्।
अधृष्ट मन्यै रखिलै: प्रवादै जिनं त्वदीयं मतमद्वितीयम् ।।
आचार्य समंतभद्र स्वामी यहाँ लिखते हैं कि भगवान महावीर का शासन प्रमाण और नयों के द्वारा वस्तु तत्व को बिल्कुल स्पष्ट करने वाला और सभी प्रवादियों के द्वारा अबद्ध होने के साथ-साथ दया ( अहिंसा ) त्याग ( परिग्रह त्याग ) समाधि ( प्रशस्त ध्यान ) तथा दम ( संयम ) इन चारों की तत्परता को लिए हुए है और यही सब उनकी विशेषता है इसलिए अद्वितीय है। कहा गया है-
सर्वान्तवत् तदगुण मुख्यकल्पं,
सर्वान्तशून्यं च मिथोनपेक्षम्।
सर्वापदामन्तकरं निरन्तम्,
सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव।।
अर्थात् हे भगवान महावीर ! आपका सर्वोदयतीर्थ सापेक्ष होने से सभी धर्म को लिए हुए हैं। इनमें मुख्य और गौण की विवक्षा से कथन है अतः कोई विरोध नहीं आता, किंतु अन्य मिथ्यावादियों के कथन निरपेक्ष होने से संपूर्णतः वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन करने में असमर्थ है। आपका शासन सभी आपदाओं का अंत करने और समस्त संसार के प्राणियों को संसार सागर से पार उतारने में समर्थ है अतः सर्वोदय तीर्थ है। अतः हम सभी को सर्वोदय की भावना के साथ भगवान महावीर स्वामी के उपदेशों का अनुकरण करना चाहिए। इसी में सब का भला और विश्व शांति निहित है।