कहीं जोशीमठ की पुनर्वृत्ति तो नहीं होगी, अष्टापद जैन  तीर्थ बदरीनाथ मंदिर  भी खतरे में !

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आजकल उत्तराखंड का  जोशीमठ अपने अस्तित्व को बचाने लड़ रहा हैं पर उसके बचने की बहुत कम संभावना बनी हुई हैं  कारण उत्तराखंड ने विकास के नाम पर विनाश को अपनाया .जबसे मोदी सरकार ने विकास का वादा किया उसी समय से प्रकृति से छेड़छाड़ कर विनाश शुरू किया .जो स्थान पूर्व से वर्ष में छह माह आवागमन के लिए बंद रहता था वहां पर चार गुना चौड़ी सडकों का निर्माण बहुत तेज़ रफ़्तार से चल रहा हैं .अनेकों परियोजनाए चल रही हैं ,दिन रात वहां का दोहन किया जा रहा हैं .निरंतर होटल्स ,आवास बनाकर पर्यटन स्थल बनाया जा रहा हैं जो देव भूमि हैं उसे दैत्य भूमि बना दिया .

साधु अवग्या  कर फलु ऐसा ,जरइ  नगर अनाथ कर जैसा .
जारा नगरु निमिष एक माहीं ,एक विभीषण कर गृह  नाही .

साधु संतों  के अपमान का यह फल हैं कि नगर ,अनाथ के नगर की तरह जल रहा हैं .हनुमान जी ने एक ही क्षण में सारा नगर जला डाला .एक विभीषण का घर नहीं जलाया . जितना अधिक दोहन उससे अधिक विद्रोह .प्रकृति जब करवट बदलती है तब राजा महाराजा उसी जमीन पर समां  जाते हैं ये (नेता/मंत्री )कौन खेत की मूली हैं . ऐसा न हो की जोशीमठ का जोश  बदरीनाथ तक न पहुँच जाएँ .जिससे पडोसी देश चीन को भारत   आने में कोई सीमा की जरुरत न पड़े .जितने प्रकृति के नजदीक उतने अधिक सुरक्षित .

भारत की प्राचीनतम संस्कृति-श्रमण संस्कृति के आदि पुरुष, असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य, एवं शिल्प रूप छह महाविद्यालयों के उपदेष्टा, प्रथम तीर्थकर भगवन आदिनाथ को भारत के सभी धर्मो एवं प्राचीन ग्रंथो में अत्यंत आदरणीय स्थान प्राप्त है। ऋषभदेव एवं वृषभदेव भी उनके ही नाम है। विभिन्न धर्मो में उनकी अर्चना भिन्न-भिन्न रूप में की गई है। शाश्वत नगरी आयोध्या में इक्छुवाकुवंशी महाराज नाभिराय के घर जन्मे आदिनाथ का निर्वाण (मोक्ष) हिमालय की पर्वत श्रृंख्लायो में स्थित कैलाश पर्वत पर हुआ था।

हिमालय को गौरीशंकर, कैलाश, बद्रीविशाल, नंदा, द्रोडगिरी, नारायण, नर, त्रिशूली, इन आठ पर्वत श्रेढियों के कारण अष्टापद भी कहते हैऔर इसे ही निर्वाणकाण्ड के अनुसार अष्टापद आदिश्वर स्वामी कहा है। यहाँ से असंख्यात मुनि तपस्या कर मोक्ष गए है। श्रीमद्भागवत के अनुसार यही ऋषभदेव के पिता नाभिराय और माता मरुदेवी ने ऋषभदेव का राज्याभिषेक कर बद्रिकाश्रम में घोर ताप किया था और यही उनकी समाधी हुई है। यहा स्थान आज भी मानसरोवर कैलाश के मार्ग के नाम से विद्यमान है और साधना स्थल के रूप में नीलकंठ पर्वत पर नाभिराज के चरण चिन्ह, बाबा आदम के चरण चिन्ह के रूप में अपनी ओर जन-जन को आकृष्ट करते है।

इसी अष्टापद कैलाश पर भारत चक्रवर्ती, जिनके नाम पर अपने देश का नाम भारत पड़ा है, २४  तीर्थकरो के मंदिर का निर्माण कराया था। यही भूमि भारत-बाहुबली, बाली, महाबली, नागकुमार की साधना स्थली रही है। इसी भूमि पर पार्श्वनाथ का समवशरण आया था। प्रतिदिन अभिषेक दर्शन के माध्यम से दिगंबर रूप में दर्शन, देने वाली, बद्रीनाथ मंदिर में स्थापित नारायण  प्रतिमा, बद्रीनाथ मंदिर के समीप तप्त कुंड के नीचे अकलनन्दा नदी में गरुड कुंड से स्वप्न देकर निकली है, आज भी इस गरुड कुंड में अनेक प्राचीन जैन प्रतिमाये उपलब्ध है। हिमालय के मध्य नागनाथ पोकरी में प्राचीन जैन मंदिर के प्रमाण मिलते है तथा श्रीनगर (गढ़वाल), जहा परम पूज्य एलाचार्य मुनिश्री विद्यानंद जी महाराज का चातुर्मास योग संपन्न हुआ था, में एक अत्यंत प्राचीन शिखरबद्ध मंदिर विद्यमान है। अब तो इस प्रदेश में मुनिराजो के आगमन का सतत प्रवाह बना हुआ है। इससे स्पष्ट होता है की यह क्षेत्र जैन संस्कृति का सर्वोस्तकृत स्थान रहा है, जो आज भी पुकार-पुकार कर इस चैत्र में जैन संस्कृति एवं उनके प्राचीन वैभव को प्रकट करता है। तीर्थ क्षेत्र अतिशय क्षेत्र और फिर इनसे भी पूज्य सिद्ध क्षेत्र एवं निर्माण भूमियो (निर्माण क्षेत्र) के प्रति हमारी शृद्धा सर्वविदित है।

अध्यात्मिकता के मौलिक गुण के कारण ही भारतीय संस्कृति की विचारधारा पाश्चात्य संस्कृति से श्रेष्ठ कहलाती है और आध्यात्मिक की  औजश्र    ऊर्जा हमारे तीर्थ क्षेत्रो में सतत प्रवाहित होती रहती है। इसी लिए प्राचीन युग से लेकर आजतक तीर्थ यात्रा का महत्व बना हुआ है और भविष्य में भी बना रहेगा।

देव भूमि उत्तराखंड जहा कण-कण में देवताओं का निवास माना जाता है, जहा देवता प्रकृति के रूप में साक्षात् विद्यमान रहते है, तथा मानवीय मूल्यों तथा साहस की पग-पग पर परीक्षा लेते जहा के जनसाधारण अपने सरल व्यव्हार एवं निश्चलता से “अतिथि देवो भव” की भारतीय परंपरा का सम्मान कर पालन करते है, ऐसे स्थान पर क्यों न बार-बार जाने का मन करेगा।पर प्रकृति   के विरुद्ध  नहीं ,उसे बचाओ .
– विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन संरक्षक शाकाहार परिषद्

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