बड़ागाँव धसान का महत्वपूर्ण पुरातत्त्व

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-डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’, इन्दौर

मध्यप्रदेश में टीकमगढ़ जिलान्तर्गत बड़ागाँव क्षेत्र है। यह स्थान धसान नदी के किनारे होने से स्वतंत्र पहचान हेतु इसे बड़ागाँव धसान कहा जाता है। यह क्षेत्र टीकमगढ़-सागर मार्ग पर स्थित है। टीकमगढ़ से 30 कि.मी., शाहगढ़ से 35 कि.मी. पर यह स्थान है। इसके निकटस्थ पुरातात्त्वि क्षेत्र नवागढ़ 10 कि.मी. और द्रौणगिरि क्षेत्र 30 कि.मी. है। यहाँ पुरातात्त्विक महत्व की प्राचीन चौबीसी मूर्तियाँ, त्रिमूर्तिका तीर्थंकर, स्तंभ, तीर्थंकर मस्तक, वितान, प्रस्तर, उपलब्ध हुए हैं।

प्राचीन आदिनाथ चतुर्विंशतिका-
श्रमणशिल्प में चतुर्विंशति मूर्तिशिल्पांकन की समृद्ध परम्परा है। चतुर्विंशतिका अर्थात् एक साथ चौबीस तीर्थंकरों का अंकन। चतुर्विंशतिका प्रतिमाएं धातु एवं पाषाण दोनों पर समान रूप से निर्मित की जाती रहीं हैं। मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ जिलान्तर्गत बड़ागांव (धसान) की टेकरी पर अनेक पुरातात्त्विक प्रतिमाओं में यह चतुर्विंशतिका बहुत ही महत्वपूर्ण है। लगभग 50से.मी. की बलुआ पाषाण में निर्मित इस प्रतिमा को मंदिर की मुख्य वेदिका में बायीं ओर स्थापित किया गया है। इसमें मुख्य जिन प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ-ऋषभनाथ हैं। ये कायोत्सर्गस्थ हैं और शेष परिकरस्थ 23 लघु जिन पद्मासनस्थ हैं।
पादपीठ पर ऋषभनाथ तीर्थंकर का लांछन वृषभ निर्मित है, यह स्पष्ट देखा जा सकता है। वृषभ के दोनों ओर अंजलिबद्ध आराधक युगल है। द्विभंगासन में चॅवरवाहक हैं। मुख्य प्रतिमा का दिगम्बरत्व स्पष्ट है। वक्ष पर श्रीवत्स उत्कीर्णित है। कर्ण स्कंधों को स्पर्श कर रहे हैं, उष्णीष के साथ केश कुंचित हैं तथापि बड़ी-बड़ी केशलटिकाएं स्कंधों पर लटकती हुई कुक्षि तक आई हुईं दर्शाई गई हैं। अशोक वृक्ष की डालियों के कारण भामण्डल स्पष्ट नहीं है। शिरोभाग पर छत्रत्रय निर्मित है, किन्तु वह भग्न है।
परिकर में शेष स्थान में 23 लघु जिन उत्कीर्णित हैं, जो अजितनाथ से महावीर तक संकल्पित किये गये होंगे। ये पद्मासनस्थ लघु जिन मुख्य कायोत्सर्गस्थ प्रतिमा के दोनों पार्श्वों में तथा वितान में संयोजित किये गये हैं। पादपीठ के समानांतर से स्कंधों तक दोनों ओर पांच-पांच तीर्थंकर हैं, उनसे ऊपर दो-दो तीर्थंकर दो पंक्तियों में हैं और वितान में पांच तीर्थंकर शिल्पित किये गये हैं, इस तरह परिकर में 23 तीर्थंकर और आदिनाथ की मुख्य मूर्ति, कुल चौबीस तीर्थंकर हुए। मुख्य प्रतिमा के शिर के दोनों ओर की प्रतिमाओं के सर्पफण दर्शाये गये हैं। इस चौबीसी में मुख्य मूर्ति के दायें ओर की मूर्ति के सप्तफण हैं जो तीर्थंकर पार्श्वनाथ के निर्मित किये जाने की परम्परा रही है और बामपार्श्व की मूर्ति के पंचफण हैं, जो सप्तम तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के निर्मित किये जाने की परम्परा है। इस तरह यह प्रतिमा बहुत महत्वपूर्ण है। इसका समय 10वीं-11वीं शताब्दी जान पड़ता है।

द्वितीय चतुर्विंशतिका-
यह पाषाण प्रतिमा भग्न है, इसका मस्तक, दक्षिण भुजा और वितान सहित स्कन्धों के समानान्तर का परिकर भग्न-अनुपलब्ध है। यहां प्राप्त भग्न प्रतिमा-मस्तकों में से एक मस्तक हमने प्रस्तुत द्वितीय चतुर्विंशतिका पर लगाकर चित्र को आंशिक पूर्णता दी है। इस तरह की पूर्ण चतुर्विंशतिका प्रतिमाएँ देवगढ़, गंधर्वपुरी आदि कई स्थानों पर संरक्षित हैं। इसके पादपीठ पर चिह्न तो दृष्टिगत नहीं हो रहा है, किन्तु अनुकूलाभिमुख दो सिंह हैं। अधिकांश प्रतिमाओं में पादपीठ में सिंहासन के सिंह दर्शाये जाते हैं, किन्तु तीर्थंकर लांछन अलग से प्रदर्शित किया जाता है। चॅवरधारियों के समानान्तर में यक्ष-यक्षी का अंकन है, किन्तु क्षरित व कुछ खण्डित होने के कारण इनके आयुध आदि देखकर स्पष्टतः पहचान नहीं हो पा रही है। इसके चॅवरवाहक स्पष्ट हैं। मुख्य प्रतिमा के बामपार्श्व में यक्षी के ऊपर से उपरिम बढ़ते क्रम में उदर-स्थान तक दो दो के चार युग्म लघु जिन शिल्पित हैं। ये पद्मासन में हैं। दक्षिण पार्श्व में अधिक भग्न होने से एक एकल और एक युग्म ही अवशेष हैं। किन्तु यह चतुर्विंशतिका ही रही होगी।

त्रितीर्थी तीर्थंकर प्रतिमा-
यह शिलाखण्ड तो पूर्ण है किन्तु प्रतिमा और परिकरांकित आकृतियों को बहुत क्षतिग्रस्त किया गया है। इस प्रतिमा को देखकर प्रतीत होता है कि यह बहुत सुन्दर और सौम्य प्रतिमा रही होगी। पद्मासन में मुख्य प्रतिमा है और परिकर में दो अन्य लघु जिन प्रतिमाएं हैं, इस कारण यह त्रितीर्थी प्रतिमा कही जा सकती है। इसके सिंहासन के मध्य में चक्र, उसके दोनों ओर विरुद्धाभिमुख दो सिंह और उन्हीं के समानान्तर में बायें तरफ यक्षी व दाहिनी ओर यक्ष निर्मित है। यक्षी की गोद में बालक बैठा सा प्रतीत हो रहा है, जिससे उसे अम्बिका अनुमानित किया जा सकता है। इस सिंहासन पर दोनों ओर चामरधारी द्विभंगासन में अवस्थित हैं, मध्य में कलात्मक चरण चौकी है, जिस पर मुख तीर्थंकर पद्मासन में आसीन दर्शाये गये हैं। मुखमण्डल की भूमिका में अण्डाकार का सुन्दर प्रभामण्डल है। इसके केशविन्यास स्वाभाविकता लिये हुए बहुत सुन्दर और अन्यत्र के शिल्पांकनों से हटकर विशेषता युक्त शिल्पित हैं। केश ऊपर को संवारे गये, उन्हीं के जूड़े से बड़ा सा उष्णीष बनाय हुआ प्रतीत होता है। कर्णों के पीछे से आकर सुन्दर केशलटों के गुच्छक स्कंधों पर लंबित हैं। मुख्य प्रतिमा के मस्तक के दोनों ओर एक-एक पद्मासन जिन हैं। इनकी विशेषता भी ध्यान देने योग्य है। इनका आसन कलात्मक और चन्द्र आकार का दृष्टिगत है। केश विन्यास मुख्य प्रतिमा के समान है। प्रायः लघुजिन के भी चॅवरधारी दर्शाये जाते हैं, नहीं भी दर्शाये जाते हैं किन्तु यहां ध्यान देने योग्य है कि इन दोनों लघु जिनों के दोनों ओर चॅवरधारियों के स्थान पर दो दो महिलाएँ निर्मित हैं और उनके हाथों में पुष्पगुच्छ या कलश जैसी कोई वस्तु है। प्रायः तीर्थंकर के पार्श्वों में निर्मित आकृतियों का मुख उन्हीं की ओर होता है, किन्तु इनके पार्श्वों की एक एक स्त्रीपात्र का पृष्ठ भाग इनकी ओर है।येे मुख्य प्रतिमा के मस्तक की ओर अभिमुख दर्शाईं गई हैं।
इस प्रतिमा के तीन छत्र स्पष्ट हैं, उनके ऊपर दुंदुभिवादक भी निर्मित है। त्रिछत्र के दोनों ओर पुष्पवर्षक या माल्यधारी देवयुगल हैं जो भग्न है, किन्तु उनके कुछ कुछ अवशेष दृष्टिगत हैं। इस प्रतिमा का जटाजूट और स्कंधों तक केशलटों के दर्शाये जाने से यह प्रतिमा प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की निश्चित होती है, किन्तु पादपीठ में निर्मित यक्षी यदि अम्बिका है तो इसे बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ की प्रतिमा माना जायगा।

मानस्तंभ या स्तंभ-
यहां एक पाषाण का प्राचीन मानस्तंभ या स्तंभ प्राप्त हुआ है। इस तरह के स्तंभ निकटस्थ पुरातात्त्विक तीर्थ नवागढ़ में भी प्राप्त हुए हैं। इस स्तंभ के अधोभाग में सरस्वती या शासन देवी उत्कीर्णित है, जिसके एक हाथ में कमण्डलु है। स्तंभ के मध्य में उपदेशक और ऊपर तीर्थंकर प्रतिमा उत्कीर्णित है। स्तंभ में तीन ओर तो तीर्थंकर प्रतिमाएं हैं, किंतु स्तंभ मंदिर की दीवाल से टिका होने और समयाभाव के कारण हम इसे पलटवा कर नहीं देख पाये थे कि इसकी चतुर्थ दिशा में प्रतिमा है या नहीं। हो सकता है इस स्तंभ पर शिलालेख भी हो।

ब्राह्मी अभिलेख एवं चरणचिह्न-
बड़ागांव (धसान) क्षेत्र का सर्वेक्षण हमने सन् 2016 में किया था। यहां  की टेकरी पर सबसे ऊपर अन्त में एक देवकुलिका में चबूतरा पर चरण चिह्न स्थापित हैं। उस चबूतरे में एक शिलापट्ट लगा हुआ है जो बहुत महत्वपूर्ण है। तीन पंक्तियों का यह शिलालेख ब्राह्मी लिपी में है। इस शिलालेख का वाचन करने में हम सफल रहे। जो चित्र में दिया जा रहा है। इसका वाचन  देवनागरी में इस तरह है-
1. फलहोडी ग्राम आहुट कोटि सिद्धासि
2. नमस्कार मांझा
3. -भट्टार गुणकीर्ति
इसकी भाषा मराठी है, यह प्राकृत णिव्वाणभक्ति की पंक्ति-‘‘फलहोडी गामे आहुट्ठयकोडीओ णिव्वाण गआ णमो तेसिं’’ का मराठी अनुवाद है।
उक्त पुरातत्त्व के अतिरिक्त बड़ागांव (धसान) में प्राचीन तीर्थंकर, तीर्थंकर-मस्तक, वितान, प्रस्तर, स्तंभ आदि तीस-पैतीस पुरावशेष उपलब्ध हैं, जो बड़ागांव (धसान) सिद्ध क्षेत्र, अतिशय क्षेत्र के महत्व और इसकी प्राचीनता को प्रमाणित करते हैं।

-डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’
22/2, रामगंज, जिन्सी,
इन्दौर, मो. 9826091247

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