-मुनि श्री 108 अक्षयसागरजी
भारतीय संस्कृति में ॠषि-मुनियों ने एक ओर जहाँ अध्यात्म की साधना के लिए ज्ञान और योग का उपदेश दिया वहीं दूसरी ओर हमारे खान-पान और आहार शुद्धि पर जोर दिया है। आहार शुद्धि, सत्व शुद्धि हाने से चित्त शुद्धि होती है। इस निर्मल चित्त से ही धर्म का प्रकाश होता है। धर्म साधना के लिए शरीर श्रेष्ठ एवं प्रथम साधन है।
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चारों पुरुषार्थ करने की इच्छा रखने वाले मनुष्य के लिए मुख्य साधनरूप शरीर को निरोगी रखनेकी आवश्यकता है। क्योंकी रोगी शरीर से कोई भी पुरुषार्थ सिद्ध नहीं हो सकता।
दिनचर्या और ऋतुचर्या :
शरीर में वात, पित्त और कफ ये तीन दोष रहते है। ये दोष जब समान स्थिति में हों तब शरीर को निरोगी रखते हैं। और जब विषम स्थिति में होते हैं तब शरीर को रोगी बनाकर अंत में उसका नाश कर देते हैं। इसके लिये दिनचर्या और ॠतूचर्या मुख्य है। प्रत्येक ॠतू दो माह का होता है। 2 माह मैं ॠतू बदलने से त्रिदोष न्यूनाधिक होते हैं। छह ॠतू – हेमंत, शिशिर, वसंत, ग्रीष्म, वर्षा और शरद हैं।
हेमंत-मार्गशीर्ष, पौंष, शिशिर-माघ, फागुण, वसंत – चैत्र, बैसाख, ग्रीष्म – जेष्ठ, आषाढ़, वर्षा-श्रावण,भाद्रपद, शरद-आश्विन, कार्तिक उपरोक्त ॠतू में यह माह आते हैं। उसमें दक्षिणायन-शिशिर, वसंत, ग्रीष्म और उत्तरायण-वर्षा, शरद, हेमंत के दौरान होते हैं। उत्तरायण के समयपर तीक्ष्ण तथा रुक्ष वायु चलती है। इसी से इन तीनों ॠतूओं में रस भी रुक्ष, कडवा और तीखा होने के कारण मनुष्य शरीर निर्बल और हीन वीर्य वाला होते हैं। दक्षिणायन में रस खट्टा, खारा और मीठा होने से मनुष्य सबल और वीर्यवान होते हैं। ॠतु के अनुसार आहार-विहार और प्रतिकूल का त्याग करनेसे ॠतूजन्य रोग उत्पन्न नहीं होते हैं।
दिनचर्या : ब्राह्मे मुहूर्त उतिष्ठेत्, स्वस्थों रक्षार्थमायुष:
अर्थात स्वस्थ पुरुष आयु की रक्षा के लिए ब्रह्म मुहूर्त में उठे।
समदोष समाग्निश्च समधातू मलक्रिया: ।
प्रसन्नात्मोन्द्रियदमन: स्वस्थ इत्यभिधीयते ॥
शरीर के सब धातु समान रह कर धातु क्रिया व मल क्रिया सम रहना मन, इंद्रिय सम रहकर बुद्धि प्रकर्षक उत्कृष्ट प्रकार से रहना इसे स्वास्थ्य कहते हैं। स्वस्थ पुरुष आयु की रक्षा के लिए ब्रह्म मुहूर्त में उठें। सूर्य उदय के डेढ़ घंटा पूर्व उठना शरीर को स्वस्थ रखने हेतू उपयुक्त समय माना गया है। प्रात: शरीर, मन, बुद्धी सब ताजे हो जाते हैं। रात्रि में समय पर सोना जरुरी है।
निसर्ग से विपरीत पचनसंस्था, बुद्धी, दृष्टी, मानसिक संतुलन, यकृत में विकृती, जलोदरादी रोगोंसे ग्रस्त हो सकते हैं।
अव्यवस्थित जीवनशैली से शरीर रोगों का घर :
भोपाल (मध्यप्रदेश) 2016 में आचार्यप्रवर श्री विद्यासागरजी महाराजजी ने अपने प्रवचन में कहा था “अव्यवस्थित जीवनशैली से शरीर रोगों का घर बनता है। जो आयु हम बांध कर लाए हैं वह किसी भी प्रकारसे बढ़ा नहीं सकते। अर्थात् उसमें उत्कर्षण नहीं हो सकता, अपकर्षण हो सकता है, उसका कारण अपने खान-पान से रहन-सहन और अव्यवस्थित जीवनशैली से आयु कम कर रहें है।”
जैनाचार्यों के मत से द्वादशांग शास्त्रों में जो दृष्टीवाद नाम का जो बारहवां अंग है उसमें पांच भेदों में से एक भेद में से एक भेद पूर्व (पूर्वगत) है। उसके भी चौदह भेद हैं। इन भेदों में जो प्राणावाद पूर्वशास्त्र है उसमें विस्तार के साथ अष्टांगार्युवेदका कथन किया है। यही आयुर्वेद शास्त्र का मूलशास्त्र अथवा मूलवेद है। उसी वेद के अनुसार ही सभी आचार्योंने आयुर्वेद का निर्माण किया है।
क्षु.ज्ञानभूषण महाराज ने ‘पवित्र मानव जीवन’ में सर्वथा निरोगता का साधन बताते हुए कहा है-
*मनोनियन्त्रण सात्विक भोजन यथाविधी व्यायाम करें।*
*वह प्रकृति देवी के मुख से सहजतया आरोग्य वरे ॥*
*इस अनुभूत योग की सम्प्रति मुग्ध, बुद्धि क्यों याद करें ।*
*इधर उधर की औषधियों में तनु धन वृष बर्बाद करें ॥*
बीमारी का मूल कारण – अति भोजन, अभक्ष्य खाना, प्रकृति विरुद्ध और अनियमित भोजन करना, इससे त्रिदोष से रोग होते हैं। वातविकार से शरीर में अत्यधिक पीड़ा, पित्तविकार से दाह, तृषा आदि होती है। कफ विकार से स्थूल, घन, स्थिर व खुजली होती है।
*सर्वेषामेव रोगाणां निदाणं कुपिता मला:*
सर्व रोग का निदान कुपित मल के द्वारा ही किया जाता है।
उपचार :
एलोपैथी, होम्योपैथी, नैचरोपैथी , पाश्चात्य चिकित्सा, आयुर्वेद और युनानी आदि के द्वारा करते हैं।
एलोपैथी – शरीर चिकित्सा में दवाईयाँ लेने से उसे रोग निदान तो हो जाता है लेकीन उसी दवाईयों के द्वारा शरीर के अन्य पूर्जे खराब होने की आशंका होती हैै, इससे साईड इफेक्ट होते हैं लेकिन आयुर्वेद के द्वारा दी जाने वाली दवाईयाँ शरीर को नुकसान नहीं पहुंचाती है।
*आयुर्वेद :*
*हिताहितम् सुखम् दु:खम् । आयुतस्य हिताहितम् ।*
*मानंस तच्च यत्रोक्तं आयुर्वेद: स उच्यते ॥*
(च.सु.1/49)
आयुष्य के लिए क्या हितकर-अहितकर, सुखकर-दुखकर है। इनका वर्णन अथवा परिमाण जिसमें मिलता वह आयुर्वेद है।
*आयुर्वेद का ध्येय :*
स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षणम् आतूरस्य व्याधी प्रशनम्
स्वस्थ व्यक्तियों के स्वास्थ्य की रक्षा करना और रोगियों को रोग मुक्त करना यही आयुर्वेद है। वैद्य अ. 7 में लिखा है – वैद्य निस्पृह: होकर चिकित्सा करें, चिकित्सा रोगों का नाश करनेवाली है। चिकित्सा से धर्म की वृद्धि होती है। चकित्सा एकतप है। इसलिए चिकित्सा को कोई काम, मोह और लोभवश होकर न करे, चिकित्सक के अपने मन में किसी भी प्रकार का विकार नहीं रहना चाहिए। किंतु वह रोगियों के प्रति करुणा बुद्धि से व अपने कर्मों के क्षय के लिए चिकित्सा करे। इस प्रकार निस्पृह व समीचीन विचारों से की गयी चिकित्सा व्यर्थ नहीं होती। इस वैद्य को अवश्य सफलता मिलती है- जैसे किसान परिश्रमपूर्वक खेती करता है, फल अवश्य उसी प्रकार मिलता है, परिश्रमपूर्वक किये हुए उद्योगों में भी वैद्य को अवश्य फल मिलते हैं।
चिकित्सा व्यवसाय नहीं सेवा है ।
आयुर्वेद – *दोष धातू मल मूलहि शरीरम्*
वात, पित्त, कफ – त्रिदोष, सप्तधातू और तीन मल इनका संतुलन होना ही स्वास्थ्य रक्षा मानी जाती है। शरीर में रोग विजातीय द्रव्य या विष का परिणाम होता है। रोग के समूल नाश के लिए आवश्यक है कि, उस विष को बाहर निकालकर शरीर की शुद्धि की जाए और इसका सबसे उत्तम उपाय उपवास ही है। उपवास द्वारा प्राण शक्तिको अवकाश मिलता है, तो वह शीघ्र शरीर के सुधार और निर्माण में जुट जाती है।
अच्छी सेहत और मानसिक शांति के लिए एक बार ही आहार लेके संतुष्ट होना चाहिए। पहले लोग सौ, एकसौ दस उम्र तक स्वस्थ और सशक्त रहते थे। रोगों का नाम भी उनको पता नहीं था। इसलिए नीतिकार भी कहते हैं-
*आधा भोजन कीजीये दुगना पाणी पिव ।*
*तिगुना श्रम, चौगुनी हसीं वर्ष सवासो जीव ॥*
पथ्य-अपथ्य का रखें ध्यान :
आज तो औषधी पर जोर दिया जा रहा है, लेकिन पथ्य और अपथ्य के बारे में नहीं बताया जा रहा है। कहीं कहीं अंडे को भी खाने के लिए डॉक्टर लोग बता रहे हैं। लेकिन उसमें आठ प्रकार के विष होते हैं, जिससे कई प्रकार के रोगों के शिकार बन जाते हैं।
पथ्य सेवन का सही तरह से पालन करेंगे तो औषधी का प्रयोजन कम हो जाता है और अपथ्य सेवन करें तो चिकित्सा का प्रयोजन ही नहीं रहता। पथ्यापथ्य सेवन का विवेक रखना महत्त्वपूर्ण है।
आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज जी ने हमें मूलाचार पढ़ाते समय आहार के बारे में बताते हुए कहा था, आहार ही हमारी औषधी है और जब भी हम बीमार पड़ते हैं तब हमें निसर्गोपचार करना चाहिए, तुरंत औषधी की ओर नहीं जाना चाहिये।
शुद्ध जल, शुद्ध आहार, शुद्ध हवा इसी से मन को शांति मिल सकती है।
अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेषजम् ।
शुद्ध जल ही अमृत, औषध है और उसमें आरोग्यदायी गुण है, लेकिन बिस्लेरी, आरओ पानी और जल शुद्धिकरण के पानी से हार्ट अटैक, शरीर में कमजोरी, सिरदर्द की परेशानियाँ होती रहती हैं। युरोपीयन देशों में इसकी बंदी है।
औषधी की शुद्धता महत्त्वपूर्ण है। अगर औषधी के नाम पर सुखी होने के लिए अनेक जीवों को संहार करके जो दवा बनायी जाती है वो हमारे लिए बहुत हानिकारक रहती है। इसलिए जैनाचार्यों ने कल्याणकारक आदि जैन आयुर्वेदिक ग्रंथों में मद्य, मांस, मधु का प्रयोग नही बताया केवल वनस्पति, खनिज क्षार रत्नादिक पदार्थों का ही औषधी में उपयोग बताया गया है। एक की हिंसा दूसरे की रक्षा धर्म के लिए सम्मत नहीं है। शरीर स्वास्थ्य आत्म स्वास्थ्य के लिए है, इंद्रिय भोग के लिए नहीं है। आहार के समान औषधी का भी परिणाम मन के त्रिगुण (सत्व-रज-तमो) पर होता है।
आयुर्वेद संस्कृति की ओर लौटें :
आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराजजी ने भारतीय प्राचीन आयुर्वेद के बारे में बोलते हुए कहा था – “आयुर्वेद ग्रंथों में हजारों वर्षपूर्व भी शरीर की शल्य चिकित्सा होती थी। यह जो प्लास्टिक सर्जरी है वह आज की नहीं है प्राचीन भारत में भी होती थी। यह अविष्कार भारत का ही है, विदेश का नहीं। इसलिए आयुर्वेद संस्कृति की ओर लौटना चाहिए और एलोपैथी की परतंत्रता एवं आर्थिक हानि से बचना चाहिए।”
आयुर्वेद भारत का प्राचीन शास्त्र है। आयुर्वेद जीवन विज्ञान है। आयुर्वेद में निरोगी होकर जीवन व्यतीत करना ही धर्म माना है। दुनिया में आयुर्वेद ही एकमात्र शास्त्र या चिकित्सा पद्धती है जो मनुष्य को निरोगी जीवन देने की गारंटी देता है। विश्व में आयुर्वेद से ही आरोग्य क्रांति हो सकती है।
*सर्वेपि सुखिन: संतु सर्वे संतु निरामय: ।*
*सर्वे भद्राणि पश्यन्तु कश्चिद् दु:खमापनुयात् ॥*
हे करुणामय भगवान विश्व के सभी जीव सुखी रहें । निरोगी रहें, जीव सचरित्रमय, सज्जनमय, दृष्टिगोचर होवे कोई कभी भी दु:ख को प्राप्त न होवे।
-मुनि श्री अक्षय सागर जी महाराज
(परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रभावक शिष्य)
प्रेषक : डॉ सुनील जैन संचय, ललितपुर
9793821108