मन की शुद्धि सिखाता है – उत्तम तप धर्म

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आज दसलक्षण महापर्व के अंतर्गत सातवां दिन उत्तम तप धर्म की आराधना का है। तप वही है जहाँ विषयों का निग्रह हो।’इच्छानिरोधस्तपः’ अर्थात इच्छाओं का निरोध/अभाव/नाश करना, तप है। वह तप जब आत्मा के श्रद्धान (सम्यग्दर्शन) सहित/पूर्वक होता है, तब ‘उत्तम तप धर्म’ कहलाता है। प्रवचनसार जी में भी आचार्य भगवन यही कहते हैं कि — भावों में समस्त इच्छाओं के त्याग से स्वस्वरूप में प्रतपन करना , विजयन करना सो तप है।
कहने का तात्पर्य यही है कि जिन भावों से मोह-राग-द्वेष रूपी मैल और शुद्ध ज्ञान दर्शन मय आत्मा भिन्न-भिन्न हो जाये वही सच्चा तप है। एक मात्र तप ही वह कारण है जो कर्म रूपी शिखर को भेदने में समर्थ हैं। यद्यपि सम्यक प्रकार से तप तो मुनिराजों को ही होता है , लेकिन श्रावकों को भी शक्ति अनुसार इन तपों की भावना भानी चाहिए। क्यों कि संयम की तरह तप भी चारों गतियों में से मात्र मनुष्य गति में ही संभव है। नरक और तिर्यंच गति में तो दुख की प्रधानता है , लेकिन देवगति में तो जीव को सर्वसुविधायें मिलती है , लेकिन फिर भी वे जीव उत्तमतप धारण करने के लिये तरसते हैं।
जिस प्रकार अग्नि का एक तिनका भी बड़े से बड़े घास के ढ़ेर को जला देता है , उसी प्रकार सम्यक तप पूर्व संचित कर्मों के ढ़ेर को जलाकर भस्म कर देता है। संसार शरीर और भोगों से विरक्ति भी तप से ही होती है।
बारस अणुवेक्खा” ग्रंथ में तप का स्वरूप बताते हुये आचार्य कहते हैं –
“पाँचों इन्द्रियों के विषयों तथा चारों कषायों को रोककर शुभध्यान की प्राप्ति के लिये जो अपनी आत्मा का विचार करता है , उसके नियम से तप होता है।”
धवला जी में आचार्य वीरसेन स्वामी कहते हैं –  तिण्णं रयणाणमाविब्भावट्टमिच्छाणिरोहो।
अर्थात् तीनों रत्नों को प्रगट करने के लिये इच्छाओं के निरोध को तप कहते हैं।
 मन की शुद्धि सिखाता है – उत्तम तप धर्म। मलीन वृत्तियों को दूर करने के लिए जो बल चाहिए, उसके लिए तपस्या करना।तप का मतलब सिर्फ उपवास, भोजन नहीं करना सिर्फ इतना ही नहीं है बल्कि तप का असली मतलब है कि इन सब क्रिया के साथ अपनी इच्छाओं और ख्वाहिशों को वश में रखना। तप का प्रयोजन है मन की शुद्धि! मन की शुद्धि के बिना काया को तपाना या क्षीण करना व्यर्थ है। तप से ही आध्यात्म की यात्रा का ओंकार होता है।
अपनी इच्छाओं को वश में रखना ही सबसे बड़ा तप है ।
जिन भावों से मोह-राग-द्वेष रूपी मैल और शुद्ध ज्ञान दर्शन मय आत्मा भिन्न-भिन्न हो जाये वही सच्चा तप है। एक मात्र तप ही वह कारण है जो कर्म रूपी शिखर को भेदने में समर्थ हैं।
तप के भेद-अंतरंग और बहिरंग के भेद से तप के बारह भेद हैं।
अंतरंग तप : प्रायश्चित, विनय , वैयावृत्य , स्वाध्याय , व्युत्सर्ग और ध्यान।
बहिरंग तप : अनशन , अवमौदर्य , वृत्ति परिसंख्यान , रसपरित्याग , विविक्त शय्यासन , कायक्लेश।
तप की महिमा इतनी है, कि सुरराज (इंद्र) भी इसको करने के लिए लालायित रहते हैं क्योंकि यह कर्म-रूपी शिखर (पर्वत) को तोड़ने के लिए वज्र के समान है।
जिस प्रकार बिना बर्तन तपे दूध गर्म नहीं होता उसी प्रकार बिना बाह्य तप के अन्तरंग शुद्धि नहीं होती।जिस प्रकार अग्नि से तपाया गया स्वर्ण पाषाण शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार कर्ममल से मलिन आत्मा तप रुपी अग्नि से शुद्ध हो जाता है।
यह जन्म मौज-मस्ती आदि के लिए नहीं, जन्म-जन्म के दुखों से मुक्ति की प्राप्ति की तैयारी करने के लिए मिला है। यदि इसे यूँ ही गँवा दिया, तो फिर से इसकी प्राप्ति कठिन है और फिर अनंत काल के लिए संसार में रुलना पड़ेगा। अतः शीघ्र ही ‘उत्तम तप धर्म’ धारण करने योग्य है।
प. दोलतराम जी ने लिखा है –
कोटि जन्म तप तपे ज्ञान बिन कर्म झरे जे ज्ञानी के छीन माही त्रिगुप्ति ते कर्म सहज टरे जे।
तप की महिमा अपरंपार है मुक्ति जब भी मिलेगी तपस्या से ही मिलेगी । तप के पीछे  रहस्य छुपा है जो हमारे एक एक विकार को दूर कर दे वही है तपस्या।
जाप मंत्र : ॐ हीं उत्तमतपोधर्मांगाय नमः

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