जीवन में विचारों या भावों में परिवर्तन के लिए धर्म की प्रमुख भूमिका है, इसलिए धर्म को आत्मोन्नति का साधन माना गया है। धर्म वह श्रेष्ठ विचार देता है जिससे मानसिक परिवर्तन होता है। यह जीव यदि चौरासी लाख योनियों में जन्म मरण के दुख उठा रहा है तो इसका कारण सम्यक बोध न होना है, सही दिशा न मिलना है। हमने धर्म का सहारा लिया तो इस तरह के भाव बने कि हमें अच्छा कार्य करना चाहिए ताकि हम दुर्गति से बचें।
इसके लिए नियमित देव दर्शन, अभिषेक, पूजन, स्वाध्याय, प्रवचन, व्रत, नियमों का पालन किया। इन सब का फायदा यह मिला कि हम अशुभ की प्रवृत्ति से बचे, उस समय तक पाप बंधन से भी निर्मुक्त रहे। पाप न करने का कारण शुभ कर्म का बंधन किया तथा पुण्य प्राप्त कर लिया, लेकिन क्या धर्म यही तक सीमित है? धर्म यहीं तक सीमित नहीं है, यह तो धर्म का बाह्य पक्ष है। बाह्य पक्ष के साथ यदि आंतरिक पक्ष मजबूत होगा, तभी आत्मा की उन्नति होगी। यदि बाह्य क्रियायें करते रहे तो पुण्य हमें धन-संपत्ति दे सकता है, मनुष्य और देव गति तक पहुँचा सकता है, हम सही सलामत जीवन व्यतीत कर सकते हैं लेकिन अंतर्मन निर्मल नहीं हुआ, कषायों का शमन नहीं हुआ, राग, द्वेष, मोह के साथ क्रोध, मान, माया और लोक कषायों से निर्मुक्त न हुए तो मोक्ष की प्राप्ति असंभव है। नियमित देवदर्शनादि धार्मिक कार्यों से परिणाम निर्मल बनते हैं, विचारों में भी परिवर्तन हो सकते हैं लेकिन जब तक जन्म मृत्यु से छुटकारा नहीं मिलेगा, तब तक आपका पुरुषार्थ लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक नहीं बन सकता। अतः धर्म पुरुषार्थ का सम्यक उपयोग कर अपनी आत्मा को निर्मल बनायें, ताकि मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग सुगम बन सके और देवदर्शनादि की पुण्य क्रियाएं सार्थक हो सकें।