अपरिग्रह का महान आदर्श

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जयपुर में जन्में पंडित सदासुखदास जी कासलीवाल 19वीं सदी में जैन दर्शन के प्रसिद्ध विद्वान हुए हैं। उन्होने जैन दर्शन के प्रसिद्ध संस्कृत ग्रंथ रत्नकरण्ड श्रावकाचार की वचनिका की रचना की। बात उस समय की है जब वे जयपुर नरेश के यहां खजांची के पद पर नियुक्त थे। उनका वेतन मात्र छह रूपए मासिक था। वे बडे संतोषी थे। इस वेतन में ही अपना और परिवार का पालन-पोषण बडी आसानी से कर लेते थे। वे हिंदी और जैन साहित्य के चमकते सितारे थे, जल में कमल की तरह रहते थे।
जयपुर नरेश ने एक बार अपने समस्त कर्मचारियों का वेतन बढाया तो पंडित जी को जब छह रूपए की जगह आठ रूपए वेतन दिया गया तो उन्होने बढा हुआ वेतन लेने से मना कर दिया। उन्हे समझाया गया कि सभी कर्मचारियों का वेतन बढाया गया है। लेकिन पंडितजी नही माने। बात राजा तक पहुंची तो उन्होने पंडित जी को बुलाया। पंडित जी राजदरबार में उपस्थित हुए तो राजा ने कहा – पंडित जी, आप हमारे निष्ठावान सेवक हैं, मुझे आपका वेतन बहुत पहले ही बढा देना चाहिए था, लेकिन मैं बढा नही सका। आप इस माह से बढा हुआ वेतन स्वीकार करें। इस पर पंडितजी बोले, महाराज यह मेरे प्रति आपकी बडी कृपा है, लेकिन मुझे इसकी आवश्यकता नही है, छह रूपए में मेरा काम अच्छी तरह चल रहा है। अब यदि आठ रूपए मिलेगें तो दो रूपए अतिरिक्त खर्च करने के लिए मुझे सोचना होगा। इस पर महाराज कुछ बोलते उससे पहले ही पंडित जी ने कहा, महाराज यदि आप मुझसे प्रसन्न हैं तो वेतन छह रूपए ही रहने दीजिए, पर, काम में दो घंटे की कटौती कर दीजिए ताकि जो ग्रंथ मैं लिख रहा हूं वह जल्दी पूरा हो जाए।
पंडित जी की सदाशयता से राजा प्रसन्न हो गए और उनकी बात मान ली। उन्होने जल्दी ही संस्कृत में लिखे रत्नकरंड श्रावकाचार की वचनिका सहज भाषा में तैयार कर दी। इस ग्रथं में मनुष्य की दिनचर्या और आचार-विचार के सिद्धांतों को बडी सरलता से पिरोया गया है। यह ग्रंथ आज भी सभी जैन मंदिरों में बडी श्रद्धा और भक्ति के साथ पढा जाता है। उनकी आयु 68 वर्ष थी। उनके जीवन पर प्रमुख जैन विद्वान डा. फूल चंद जैन प्रेमी वाराणसी की धर्मपत्नी परम विदुषी मुन्नी जैन ने पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है।
प्रस्तुतिः  रमेश चंद्र जैन एडवोकेट, नवभारत टाइम्स नई दिल्ली

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