भारत गौरव गणिनी आर्यिका विज्ञा श्री माताजी के पावन सानिध्य में दशलक्षण महापर्व का हुआ हर्षोल्लास से निर्विघ्न समापन
आर्यिका विज्ञा श्री माताजी
अपने जीवन में सभी धर्मों को अंगीकार करले तो भक्त से भगवान बन जायेंगे
फागी संवाददाता
श्री दिगम्बर जैन सहस्रकूट विज्ञातीर्थ , गुन्सी में विराजमान भारत गौरव गणिनी आर्यिका 105 विज्ञाश्री माताजी के ससंघ के पावन सानिध्य में पर्युषण महापर्व पर श्री दशलक्षण महामण्डल विधान का भव्य आयोजन हुआ,संघ बालब्रह्मचारिणी रुचि दीदी ने अवगत कराया कि कार्यक्रम में प्रतिदिन गुरु माँ विज्ञाश्री माताजी के मुखारविंद से अभिषेक , शान्तिधारा पूर्वक भगवान शांतिनाथ की अष्टद्वव्यों से विशेष पूजन करायी गई ,सोलहकारण व्रत , पंचमेरु व्रत , दशलक्षण व्रत एवं रत्नत्रय के व्रत उपवास करने वाले श्रावकगणों ने व्रत की पूजन , जाप्य करते हुए गुरु माँ का आशीर्वाद प्राप्त किया । विधान के अंतर्गत भगवान पुष्पदन्त जी एवं भगवान वासुपूज्य जी के मोक्षकल्याणक महोत्सव पर भक्ति भाव से जयकारों के साथ सामूहिक रुप से निर्वाण लाडू चढाया गया,अनन्त चतुर्दशी के दिन भगवान जिनेन्द्र का कलशाभिषेक का महाआयोजन हुआ ,भगवान के चरणों की फूलमाला पहनने का सौभाग्य पवन जी, सत्यनारायण जी, गिर्राज जी, विनोद जी, महेश जी मोटूका वाले निवाई निवासी परिवार जनों ने प्राप्त किया, कार्यक्रम में 10 उपवास की साधना करने वाले हितेश छाबडा , शिमला जैन , रश्मि जैन निवाई की विनतियों के कार्यक्रम में बहुत से भक्तों ने शामिल होकर उनकी अनुमोदना की । पूर्णिमा के दिन वार्षिक कलशाभिषेक का महाआयोजन सम्पन्न हुआ जिसमें सकल निवाई समाज ने मिलकर भक्तिभावों के साथ श्री शांतिनाथ भगवान का अभिषेक एवं आराधना की इन दस दिनों में गुरु भक्त परिवारों द्वारा एक – एक दिन का विधान रखवाया गया मिडिया के राजाबाबु गोधा को ज्ञात हुआ कि दूर – दूर से भक्त भक्ति करने के लिए विधान में सम्मिलित हुए ।पूज्य माताजी ने सभी को धर्मोपदेश देते हुए दशलक्षण पर्व का महत्व प्रतिपादित करते हुए कहा कि – हमें अपने जीवन में पहला सूत्र यह याद रखना चाहिए कि धर्म से जुड़ने से जीवन में आनन्द आता है जिस पर्युषण महापर्व , जिस दशलक्षण धर्म का पालन हम कर रहे हैं इसका संबंध युग के आरम्भ से है,भादौ सुदी पंचमी से हमारी सभ्यता की शुरुआत हुई तब सभी ने तय किया कि हम अपनी सभ्यता की शुरुआत धर्म के साथ करेंगे । दूसरा सूत्र है – धर्म से अपने जीवन की शुरुआत करना हमारी सभ्यता है , तीसरा सूत्र – धर्म को धारण करने से हमारे जीवन का विकास है । जो दशा एक बीज से वृक्ष बनने की है वही दशा क्षमा से लेकर ब्रह्मचर्य धर्म तक की है, धरती का मतलब होता है क्षमा । जब हम अपने भीतर धर्म का बीज क्षमा की धरती पर डालते हैं तो हमारी चेतना का बीज अंकुरित होता है । मृदुमाटी के संसर्ग से मृदुता आना यानी मार्दव आना और उसके बाद उससे जो अंकुर फूटता है वह एकदम सीधा निकलता है , इसी का नाम सरलता या आर्जव है । फिर जैसे वह अंकुर उगकर बाहर आता है तो उसके साथ खरपतवार उग आते हैं जिनकी सफाई निहायत जरूरी है ; इसी सफाई का नाम शौच है । तब जाकर वह सत्य के सूरज के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त कर पाता है। जब वह सूर्य के दर्शन करता है तो उसमें संयम के फूल खिलते हैं और जब वह धूप में तपता है तब उसमें फल लगते हैं। फल लगते हैं तो वह उन फलों को अपने पास नहीं रखता सब फलों को त्याग देता है । जब पेड़ फलों को त्याग देता है तो उसका स्वरूप अकिंचन हो जाता है। यही महत्व रहित अकिंचन स्वरूप ही तो हमारे परम ब्रह्म का स्वरूप है , यही ब्रह्मचर्य है। बीच से वृक्ष तक की यात्रा में ही दशलक्षण की यात्रा क्षमा से ब्रह्मचर्य तक की यात्रा है ,बड़ी अद्भुत घड़ी है यह हमें अपने मानस पटल पर इस यात्रा को अंकित रखना चाहिये कि किस प्रकार एक बीज किस तरह से सत्य , संतोष , तप , त्याग के माध्यम से एक वृक्ष बन गया उसी तरह हम भी अपने जीवन में क्षमा , संतोष , सरलता , सत्यता , तप , त्याग , संयम आदि धर्मों को स्वीकार करें तो भक्त से भगवान बन जाएंगे।
राजाबाबु गोधा जैन जैन गजट संवाददाता राजस्थान