कुछ इस भव में मिलता है, कुछ परभव में मिलता है
मुरैना (मनोज जैन नायक) सांसारिक प्राणी को अपने कर्मों के परिणामों से डरना चाहिए । भले ही वह ईश्वर से न डरे, लेकिन कर्मों से बचकर रहना चाहिए । कहते है कि भगवान बहुत दयालु हैं और माफ़ कर सकते हैं, लेकिन कर्मों के फल अवश्य मिलते हैं और वे किसी को भी माफ नहीं करते । व्यक्ति जैसे कर्म करता है, उसे उसी प्रकार के परिणामों की प्राप्ति होती है । अच्छे कर्मों से अच्छे और बुरे कर्मों से बुरे परिणामों की प्राप्ति होती है । जैन दर्शन के अनुसार कर्म एक जटिल सिद्धांत है, और इन कर्मों के बंधन से मुक्त होने के लिए जप तप भक्ति पूजन के साथ आचरण की शुद्धता और आत्म-नियंत्रण आवश्यक है । जैन दर्शन का कर्म सिद्धांत बताता है कि सभी जीव कर्मों से बंधे हैं, जो सूक्ष्म भौतिक कणों के रूप में होते हैं और आत्मा से जुड़ते हैं, जिससे जीव का भविष्य निर्धारित होता है। इन कर्मों के प्रभाव से ही जीवन में सुख-दुख, जन्म और शरीर का स्वरूप तय होता है। इस बंधन से मुक्ति के लिए जैन दर्शन तीन रत्नों सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र का पालन करने के सिद्धांत पर बल देता है । जिसके माध्यम से कर्मों का क्षय करके आत्मा मोक्ष मार्ग की ओर गमन करती है। जैन धर्म में कर्म सिद्धांत ईश्वर पर आधारित न होकर व्यक्तिगत उत्तरदायित्व पर बल देता है। आत्मा अपने कर्मों के बंधन से स्वयं ही मुक्त हो सकती है, और तपस्या, नैतिक आचरण और अहिंसा का पालन और संयम के मार्ग पर चलते हुए कर्मों का क्षय किया जा सकता है। उक्त उद्गार जैन संत मुनिश्री विलोकसागरजी महाराज ने बड़े जैन मंदिर में धर्म सभा को संबोधित करते हुए व्यक्त किए।
मुनिश्री विबोधसागर ने समझाया कर्म सिद्धांत
धर्म सभा में जैन संत मुनिश्री विबोधसागरजी महाराज ने कर्म सिद्धांत को समझाते हुए बताया कि कर्मफल वह सिद्धांत है जिसके अनुसार किए गए हर कर्म का फल अवश्य मिलता है । अच्छे कर्मों का अच्छा फल और बुरे कर्मों का बुरा फल मिलता है । निश्चित नहीं है कि कर्मों का फल कब मिलेगा, लेकिन मिलेगा जरूर । कुछ कर्मों का परिणाम तुरंत मिल जाता है, कुछ का अगले जन्म में या भविष्य में कभी भी मिल सकता है। सभी धर्मों में कर्म फल की व्याख्या की गई है । मनुष्य अपने कर्मों से बच नहीं सकता और प्रकृति का यह एक अटल नियम है कि जैसा कर्म वैसा फल मिलता है। जैन दर्शन के अनुसार, कर्म आठ प्रकार के होते हैं, जो आत्मा को संसार में बांधते हैं. ये कर्म ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुकर्म, नामकर्म, गोत्रकर्म और अन्तरायकर्म हैं. ये सूक्ष्म भौतिक कण (पुद्गल) हैं जो आत्मा से जुड़कर विभिन्न अनुभवों और परिस्थितियों का कारण बनते हैं, और आत्मा को मोक्ष प्राप्त होने तक जन्म-मरण के चक्र में फंसाए रखते हैं ।
कर्म सिद्धांत प्रकृति का अटल सत्य है
युगल मुनिराजों ने बताया कि कर्म का फल, कर्मफल सिद्धांत का एक हिस्सा है, जिसका अर्थ है कि व्यक्ति को अपने किए गए कर्मों के अनुसार ही फल या परिणाम मिलता है. अच्छे कर्म सुख और समृद्धि लाते हैं, जबकि बुरे कर्म दुख और कष्ट का कारण बनते हैं. यह प्रकृति का एक अटल नियम है । मनुष्य अपने द्वारा किए गए कर्मों का फल, चाहे वह अच्छा हो या बुरा, उसे निश्चित रूप से भोगना ही पड़ता है । यह प्रकृति का एक अटल और स्थायी नियम है, जिससे कोई भी बच नहीं सकता । अच्छे कर्म सुख, शांति, यश और मान- सम्मान प्रदान करते हैं, जबकि बुरे कर्म दुख, दरिद्रता और अपमान का कारण बनते है । कर्मों का फल मिलने के लिए एक सही समय और संयोग का बनना ज़रूरी होता है । कर्मफल का प्रभाव केवल इसी जन्म तक सीमित नहीं रहता है, बल्कि यह अगले जन्मों तक भी पहुँच सकता है । अपने भविष्य और परिणामों को बेहतर बनाने के लिए व्यक्ति को हमेशा अपने वर्तमान कर्मों पर ध्यान देना चाहिए और अच्छे कर्म करने का प्रयास करना चाहिए ।