अंतरंग के विकारों पर नियंत्रण के बिना मुक्ति संभव नहीं -मुनिश्री विलोकसागर
मनुष्य की पहचान वाणी और व्यवहार से – मुनिश्री विबोधसागर
मुरैना (मनोज जैन नायक) यदि प्रभु की भक्ति, पूजन करने के बाद भी आपके अंतरंग के परिणामों में विशुद्धि नहीं हो रही तो आप अज्ञानी हैं। आप कितनी भी भक्ति, पूजा पाठ कर लेना, जब तक अंतरंग के परिणामों को नहीं संभालोगे तब तक मुक्ति नहीं मिल सकती । पूर्वाचार्यों ने कहा है कि “जो हुआ सो हुआ, अब मत खोदो कुआं” । जो हो गया उसे हो जाने दो । अब आगे की सोचों। अपने अंतरंग के परिणामों को सम्हालों । आपने साधु संतों के खूब प्रवचन सुने, खूब सत्संग किया, खूब शास्त्र पढ़े, लेकिन अपने अंतरंग के विकारों पर नियंत्रण नहीं किया तो आपका ये सब व्यर्थ हो जाना है । हमें सदैव अपने परिणामों को सुधारना चाहिए, हमें स्वयं को देखना चाहिए, सामने वाले के परिणामों से हमारा कोई लेना देना नहीं हैं। जब तक हमारा अपनी वाणी और विचारों पर नियंत्रण नहीं होगा तब तक हम यूं ही इस संसार सागर में भटकते रहेंगे । जिस दिन हमने अपने मन के विकारों पर नियंत्रण कर लिया, अपनी कषायों के दमन का प्रयास कर लिया, तो समझो हम मुक्ति मार्ग की ओर गमन करने कर रहे हैं।
हमें कषायों के शमन के लिए, अपने अंतरंग के विकारों पर नियंत्रण के लिए धीरे धीरे अभ्यास करना होगा । किसी भी प्रकार की विपरीत परिस्थितियों में भी समता का भाव रखना होगा । किसी भी कार्य का बारम्बार अभ्यास करने से कठिन से कठिन कार्य भी सहजता और सरलता से पूर्ण हो जाते हैं। हमें इस संसार के जन्म मृत्यु के चक्र से मुक्ति प्राप्त करने के लिए कषायों पर, अपने अंतरंग के विकारों को जीतना होगा, तभी हम संयम के पथ पर बढ़ते हुए मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसर हो सकेंगे । उक्त उद्गार मुनिश्री विलोकसागर महाराज ने बड़े जैन मंदिर में धर्मसभा को संबोधित करते हुए व्यक्त किए ।
मनुष्य की असली पहचान वाणी और व्यवहार से होती है
मुनिश्री विबोधसागर महाराज ने बताया कि प्राणी को अपनी कथनी और करनी में समानता रखना चाहिए । व्यक्ति की असली पहचान उसकी वाणी और व्यवहार से होती है । पढ़े लिखे को समझदार और अनपढ़ को गंवार समझा जाता है । लेकिन आपको संसार में कुछ ऐसे लोग भी मिल जाएंगे जो पढ़े लिखे होकर भी गंवार की श्रेणी में आते हैं और कुछ ऐसे भी मिलेगे जो अनपढ़ होते हुए भी समझदारों की श्रेणी में आते हैं। आध्यात्म यही कहता है, धर्म यही कहता है । यदि कोई व्यक्ति प्रतिदिन भगवान की भक्ति करता है, पूजन करता है, शास्त्र पड़ता है, कथा का वाचन या श्रवण करता है लेकिन उसके अंदर निर्मलता का वास नहीं हैं, उसके अंदर परोपकार और अहिंसा की वास नहीं हैं तो वह ज्ञानी नहीं अज्ञानी कहलाता है। इसके विपरीत कोई व्यक्ति न मंदिर जाता है, न प्रभु की भक्ति, पूजन, स्वाध्याय करता है, फिर भी उसके अंदर निर्मलता, अहिंसा, सत्य, परोपकार, जीवदया के वाश है तो वह अज्ञानी नहीं ज्ञानियों की श्रेणियों में आता है ।
सिद्धचक्र विधान पत्रिका का हुआ विमोचन
जैन संत मुनिश्री विलोकसागरजी एवं मुनिश्री विबोधसागरजी महाराज के पावन सान्निध्य में 14 नवंबर से 21 नवंबर तक होने जा रहे श्री सिद्धचक्र महामंडल विधान एवं विश्व शांति महायज्ञ की कार्यक्रम पत्रिका का विमोचन पुण्यार्जक परिवार कैलाशचंद राकेशकुमार जैन सिखाई का पुरा परिवार एवं समाज के श्रावक श्रेष्ठियों द्वारा किया गया । उक्त विधान में निरंतर आठ दिन तक सिद्ध परमेष्ठियों की भक्ति पूर्वक आराधना करते हुए 1024 अर्घ्य समर्पित किए जाएंगे ।
“राग से वैराग्य की ओर” नाटक का हुआ मंचन
रात्रि को प्रश्न मंच, महाआरती, गुरुभक्ति के पश्चात समाज की प्रतिभाओं एवं विलोक सागर बालिका मण्डल द्वारा “राग से वैराग्य की ओर” नाट्य रूपांतरण का मंचन किया गया । जिसमें बताया गया कि किस प्रकार एक सांसारिक प्राणी सभी प्रकार के भौतिक सुखों का त्याग कर संयम साधना करते हुए वैराग्य धारण कर सकता है । उपस्थित सभी लोगों ने नाट्य रूपांतरण की सराहना की ।