मनुष्य के जीवन में पूर्वोपार्जित धर्म संस्कार, जीवन को सद्मार्ग पर ले जाने में सहायक बनते हैं। जैन धर्म के अनुसार दिगम्बरत्व में ही सुख शांति निहित है। धर्म में मुनि धर्म की क्रियाओं से सांसारिक जीवन के प्रति पूर्ण विरक्ति का आभास होता है। वैराग्य पूर्ण जीवन व्यतीत करने वाला व्यक्ति ही धर्म पथ पर आगे बढ़कर जीवन में आनंद की अनुभूति करता है। जो व्यक्ति अनवरत धर्म क्रियायें करता है वह आत्मानंदी बनता है।
दिगम्बरत्व का अर्थ है कि जिन्होंने नश्वर पदार्थों का सर्वथा त्याग कर दिया है। संसार, शरीर भोगों से विरक्त होकर सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग कर ज्ञान, ध्यान और तप साधना को ही जीवन की कार्यप्रणाली मान लिया है। आत्मज्ञान की प्राप्ति , मन को एकाग्र बनाये रखने के लिए धर्म ध्यान और कर्मों के नाश के लिए तपस्या करना जिसका कार्य है ऐसे व्यक्ति मुनिमार्ग पर चलते हुए धर्म की उच्च क्रियाओं में तत्पर रहकर जीवन के आनंद की अनुभूति करते हैं। सिर्फ अपनी आत्मा में ही रमण कर जीवन को धर्ममय बनाकर आत्महित के लिए ही सभी तरह की साधना में तत्पर रहते हैं। उनका यह पुरुषार्थ
पूर्वोपार्जित धर्म साधना का परिणाम था जिसने इस युग में उन्हें धर्म पथ पर आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त किया तथा उनकी भावना को धर्म मय बनाया।
धर्म हमें बताता है कि धर्म धारण करने से ही व्यक्ति आत्महित करता है। आत्मा का हित पाँच पापों के त्याग तथा कषायों के त्याग में है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह समस्त अनर्थो की जड़ है। ऐसी प्रवृत्ति वाले जीव भव भ्रमण करते हैं। पाप कमाकर अनंत दु:ख उठाते हैं। इनके कुत्सित विचार तथा भावनायें उनके कार्यों में उन्हें लगाये रखती है। जिसके कारण क्रोध, मान, माया और लोभ यह चार कषायें पनपती हैं । जो आत्मा को कलुषित करती हैं । पापों की तरह कषायें भी व्यक्ति को दु:खी बनाये रखती है। अतः इन दोनों से निजात पाना सच्चे सुख की प्राप्ति के लिए आवश्यक है। आज मनुष्य धार्मिक संस्कारों को ग्रहण न कर मात्र अर्थ ( धन ) को ही सब कुछ मानकर कार्य कर रहा है। धर्म क्रियायें उसे पसंद नहीं आतीं, पाप क्रियाओं से परहेज नहीं है। अतः अच्छे संस्कारों से व्यक्ति दूर होता जा रहा है। जैसे आत्मा के बिना शरीर का कोई मूल्य नहीं वैसे ही संस्कारों के बिना जीवन का कोई मूल्य नहीं होता। संस्कारों विहीन जीवन नर्क के समान है। खान में पड़े हुए सोने का जैसे मूल्य नहीं होता इस तरह धर्म के बिना जीवन का कोई महत्व नहीं होता। मनुष्य जन्म ही ऐसा है जिसमें हम धर्म धारण करने में समर्थ हैं। सदकर्म भी कर सकते हैं। अमर्यादित आचरण से बच सकते हैं और स्वपुरूषार्थ से मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। कर्म बंधनों से मुक्त होने के लिए मानव पर्याय आवश्यक है क्योंकि मनुष्य गति में आकर व्यक्ति मोक्ष प्राप्त करता है। नरक, तिर्यंच और देवगति का जीव मोक्ष प्राप्ति की योग्ता नहीं रखता इसलिए मनुष्य अपने जीवन को सार्थक करने के लिए धर्म मार्ग पर चलकर आत्मा का विकास करें और सच्चे आनंद की अनुभूति करें। मानव जीवन व्यर्थ न चला जाये इसके लिए अनवरत आत्महित के लिए प्रयास करें, धर्म हमें इसी और प्रेरित करता है।
डॉ. नरेन्द्र जैन भारती
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