जैन परंपरा में आगम को भगवान महावीर की द्वादशांगवाणी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसे भगवान महावीर के बाद से चली आ रही श्रुत परंपरा के अंतर्गत आचार्यो के द्वारा जीवित रखा गया। इसके अंतर्गत तीर्थंकर केवल उपदेश देते थे और उनके गणधर उसे सीखकर सभी को समझाते थे। ज्ञान को कंठ में रखा जाता था। जैनाचार्यों ने जब यह अनुभव किया कि शिष्य वर्ग की स्मरण शक्ति उत्तरोत्तर क्षीण होती जा रही है, जिनवाणी को सुरक्षित नहीं रखा जा सकेगा, इनके न रहने से ज्ञान भी नहीं रहेगा। अत:ज्ञान परम्परा को शताब्दियों तक अबाध रूप से सुरक्षित करने के लिए इनका लिपिबद्ध होना आवश्यक है। तब शास्त्रों का लेखन सम्पन्न किया गया। श्रुत परंपरा जैन -धर्म -दर्शन में ही नहीं वैदिक परंपरा में भी चरमोत्कर्ष पर रही है। इसी के फलस्वरूप वेद को श्रुति के नाम से संबोधित किया जाता रहा।
श्रुत पंचमी का महत्त्व : जैन समुदाय में इस दिन का विशेष महत्व है। भगवान महावीर ने जो ज्ञान दिया, उसे श्रुत परंपरा के अंतर्गत अनेक आचार्यों ने जीवित रखा। गुजरात के गिरनार पर्वत की गुफा में पूज्य आचार्य श्री धरसेनाचार्य ने पुष्पदंत जी एवं भूतबलि जी मुनियों को सैद्धांतिक देशना दी जिसे सुनने के बाद मुनियों ने एक ग्रंथ रचकर ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी को प्रस्तुत किया। दिगंबर जैन परंपरा के अनुसार प्रति वर्ष जेष्ठ शुक्ल पंचमी तिथि को श्रुत पंचमी पर्व मनाया जाता है। इस दिन जैन आचार्य धरसेन के शिष्य आचार्य पुष्पदंत एवं आचार्य भूतबलि ने ‘षटखंडागम शास्त्र’ की रचना पूर्ण की थी।
जिनवाणी की दुर्दशा : वर्तमान समय में हो रही जिनवाणी की दुर्दशा को देखकर हृदय में पीड़ा होती है, हमारे पूज्य आचार्यो द्वारा स्वानुभूत ज्ञान प्राचीन हस्तलिखित पांडुलिपियों में सुरक्षित है। इन ग्रंथों को पूर्ण रूपेण सुरक्षित रखना हमारा गुरुतर दायित्व है। शास्त्र के द्वारा ही देव और गुरु को समझते हैं।
वर्तमान समय मैं देव और गुरुओं की जितनी विनय की जाती है उतनी शास्त्रों की नहीं होती बल्कि होना चाहिए। यदि एक मंदिर गिर भी जाता है तो उससे भी सुंदर दूसरा मंदिर निर्मित करवा सकते हैं ,मूर्ति के टूटने पर दूसरी मूर्ति विराजमान करवा सकते हैं लेकिन पांडुलिपियों का एक पृष्ठ भी नष्ट होता है तो उसके स्थान पर दूसरा पृष्ठ नहीं लगा सकते हैं। जिस बुंदेलखंड क्षेत्र में न्याय के आचार्य ,शिक्षा प्रेमी ,परम पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी ने सारा जीवन ज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित किया, विद्वानों को तैयार किया, विद्यालय एवं पाठशालाएं खुलवाएं उसी क्षेत्र के आज शास्त्र भंडारों की क्या दयनीय दशा हो रही है, सोचनीय और चिंतनीय है ।
भारतीय संस्कृति का अक्षय भंडार है जैन साहित्य : जैन परंपरा का साहित्य भारतीय संस्कृति का अक्षय भंडार है । जैन आचार्यों ने ज्ञान -विज्ञान की विविध विधाओं पर विपुल मात्रा में स्व- परोपकार की भावना से साहित्य का सृजन किया। आज भी अनेक शास्त्र भंडारों में हस्तलिखित प्राचीन ग्रंथ विद्यमान हैं ।जिनकी सुरक्षा, प्रचार-प्रसार, संपादन, अनुवाद के प्रति हमारा समाज उदासीन बना हुआ है। प्राचीनकाल में मंदिरों में देव प्रतिमाओं को विराजमान करने में जितना श्रावक पुण्य लाभ मानते थे उतना ही शास्त्रों को ग्रंथ भंडार में विराजमान करने का भी मानते थे परंतु आज समाज में जहां पंचकल्याणक प्रतिष्ठाओं के माध्यम से हजारों मूर्तियां प्रतिष्ठित होकर विराजमान की जा रही हैं वही शास्त्रों के प्रति समाज उदासीन हैं। जैन संस्थाएं, शोध संस्थानों की स्थिति भी अफसोस जनक है। अतः यह श्रुत पंचमी महापर्व हमें जागरण की प्रेरणा देता है कि हम अपनी जिनवाणी रूपी अमूल्य निधि की सुरक्षा हेतु सजग हों तथा ज्ञान के आयतनों को प्राणवान स्वरूप प्रदान करें।
अपने अहं की पुष्टि के लिए प्रकाशित साहित्य क्या आगम साहित्य है?: आज देखने में आ रहा है कि संत, विद्वान आदि अपने नाम की चाह अपनी -अपनी पुस्तकें हजारों की संख्या में प्रकाशित करवा कर उन्हें जन -जन तक पहुंचाने में लगे हैं परंतु जो हमारे अप्रकाशित बहुमूल्य ग्रंथ हैं उनकी ओर शायद ही किसी का ध्यान हैं । हमारे जैन मंदिरों में तो यहां तक स्थिति है कि वहां उन्हें इन पुस्तकों को व्यवस्थित ढंग से रखने में भी परेशानी हो रही है ,क्योंकि नित नया साहित्य प्रकाशन हो रहा है और वह मंदिरों में पहुंच रहा है लेकिन हमारे जो अमूल्य अप्रकाशित ग्रंथ हैं उनकी ओर हम ध्यान नहीं दे पा रहे हैं। नए-नए किताबों के प्रकाशन की होड़ मची हुई है इस होड़ में सभी आगे निकलना चाहते हैं ,हमारी जो मूल जिनवाणी है, उस ओर किसी का ध्यान नहीं है । एक जैन मंदिर के प्रबंधक महोदय से हमारी बात हुई तो उनका कहना था कि इतना अधिक मुनिराजों आदि का साहित्य मंदिरों में आ रहा है कि उन्हें हम ठीक ढंग से संभाल भी नहीं पा रहे हैं और जो श्रावकों के लिए दे दिया जाता है वह भी अपने घर से उठाकर के मंदिर में छोड़ जाया करते हैं । ऐसे में हमें उन्हें संभालने में भी दिक्कत होती है। इतने अधिक प्रकाशन की आखिर क्या जरूरत है ? हम क्यों नहीं अपने मूल ग्रंथों को प्रकाशित करने की योजना बनाते हैं ? हमें बड़ी ही गंभीरता से तत्परतापूर्वक ध्यान देना होगा, अन्यथा हमारी जो अप्रकाशित पांडुलिपियां हैं वह दीमक एवं चूहों का भोजन बनती रहेंगी और हमारी अमूल्य निधि हमारे से हमेशा -हमेशा के लिए समाप्त हो जाएंगी । इसलिए श्रुत पंचमी महापर्व के इस पावन शुभ अवसर पर हमें अपनी मां जिनवाणी के संरक्षण और संवर्धन के लिए पूरे समर्पण भाव से आगे आना चाहिए।
आज आलम तो यह है की अपनी पुस्तकों को ही जिनवाणी कह कर के और उन्हें बड़ी ही अपने सुंदर आकर्षक चित्रों से सुसज्जित करके मां जिनवाणी कह कर के लाखों करोड़ों रुपए लेकर के इन्हें छपवाया जाता है और जब किसी श्रावक को दिया जाता है तो वह भी लेकर के जैन मंदिर में रख देता है। महत्वपूर्ण यह है कि भले ही कम संख्या में छपे लेकिन वह जो प्रकाशन हो बहुपयोगी हो, हमारे जो प्राचीन अमूल्य ग्रंथ हैं जो अप्रकाशित हैं उनका प्रकाशन हो ,तभी सार्थकता है। आज एक और विडम्बना देखने में आती है कि अपने नाम की पुस्तकों की छपवाने की होड़ मची है, लेकिन उसमें शुद्धि- अशुद्धि का कोई ध्यान नहीं रखा जाता है ,यहां तक देखा गया है कि पूर्ण विराम और अल्पविराम का भी ध्यान नहीं रखा जाता है । ऐसे में क्या हम मां जिनवाणी के संरक्षण और संवर्धन के प्रति अपना दायित्व निभा पा रहे हैं? चिंतन जरूर करना है । आज जो अपने अहं की पुष्टि के लिए बड़ी मात्रा में नित साहित्य का प्रकाशन हो रहा है क्या उसे हम आगम की मान्यता दे सकते हैं? आज के इस पर्व को हम यूं ही मात्र मां जिनवाणी की एक पूजा कर लेने, शोभा यात्रा निकाल देने या उसकी चर्चा कर देने मात्र से इतिश्री ना करें। आज के दिन हम और आप सभी को संकल्प करना होगा कि हम मां जिनवाणी के संवर्धन और संरक्षण के लिए जो भी हमसे हो सकता है वह करेंगे और हमें जो विरासत में हमारे पूज्य आचार्यों ने दिया है उसको हम संरक्षित करने, उसका हम संरक्षण करने के लिए आगे आएंगे ।
जैन पांडुलिपियां हमारी अमूल्य धरोहर : जैन प्राचीन पांडुलिपियों में हमारी सभ्यता आचार-विचार और अध्यात्म विकास की कहानी समाहित है । उस अमूल्य धरोहर को हमारे पूर्वजनों ने अनुकूल सामग्री एवं वैज्ञानिक साधनों के अभाव में रात-दिन खून पसीना एक करके हमें विरासत में दिया है। इस पर्व पर संकल्प लें कि पांडुलिपियों का सूचीकरण करके व्यवस्थित रखवाया जाय, लेमिनेशन करके अथवा माइक्रोफिल्म तैयार करवा कर सैकड़ों हजारों वर्षों तक के लिए सुरक्षित रखा जा सकता है और अप्रकाशित पांडुलिपियों को प्रकाशित किया जाए । मां जिनवाणी को संरक्षित करने, उसका हम संरक्षण और संवर्द्धन करने के लिए आगे आएं।
हमारा दायित्व :
1. ग्रंथों को धूप में रखें ।
2. श्रुत पंचमी पर शास्त्रों के वेष्टन (वस्त्र) परिवर्तित करें ।
3. पर्व के दिन सरस्वती (जिनवाणी) पूजन का विशेष कार्यक्रम आयोजित करना चाहिए ।
4. जिनवाणी को रथ, पालकी या मस्तक पर विराजमान करके धूमधाम से शोभायात्रा निकालकर धर्म की प्रभावना करना चाहिए ।
5. इस दिन को प्राकृत दिवस के रूप में भी मनाएं। प्राकृत भाषा के विकास हेतु योजनाएं और क्रियान्वयन हो।
6. जिनवाणी सजाओ प्रतियोगिता, निबंध आलेखन आदि प्रतियोगिताओं का आयोजन करें, जिसमें प्रतियोगियों को पुरस्कृत करें।
7. धर्म सभा का आयोजन करके बालक-बालिकाओं एवं श्रावक-श्राविकाओं को श्रुत पंचमी पर्व एवं श्रुत संरक्षण का महत्व बताना चाहिए । युवा पीढ़ी को खासतौर से इस दिन का महत्व बताएं।
8. शास्त्र, ग्रंथ, हस्तलिखित प्राचीन अप्रकाशित पांडुलिपियों का संरक्षण, संवर्द्धन एवं प्रकाशन करके शास्त्र भण्डार का संवर्द्धन करना चाहिए।
9. सोशल मीडिया पर इसके महत्व को प्रसारित करें।
साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। क्योंकि यदि आज हम गौतम गणधर की वाणी को सुन रहे हैं, पढ़ रहे है तो वह श्रुत की है। यदि शास्त्र नहीं होते तो हम उस प्राचीन इतिहास को नहीं जान सकते थे।
-डॉ. सुनील जैन संचय
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