निस्वार्थ भाव से की गई मानव सेवा ही है सबसे उच्च सेवा- संजय जैन
यमुनानगर, 30 अप्रैल (डा. आर. के. जैन):
अक्षय तृतीया के शुभ अवसर पर श्री पाश्र्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर जगाधरी के द्वारा गन्ने के रस की क्षबील वितरण कार्यक्रम का आयोजन किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रधान नरेन्द्र जैन ने की तथा संचालन महामंत्री अरविन्द जैन ने किया। कार्यक्रम का शुभारम्भ णमोकार महामंत्र का उच्चारण कर किया गया और अक्षय तृतीय के पर सभी के लिये सुख, शांति, समृद्धि, साधना, संस्कार आदि के लिए प्रभु से कामना की गई। संजय जैन ने कहा कि इस प्रकार के समाज सेवा कार्य किया जाना हर प्रकार से शुभ सिद्ध होता है, क्योंकि इस प्रकार से जरूरतमंद व्यक्तियों की सेवा का अवसर मिलता है। उन्होंने कहा कि हर धर्म में निस्वार्थ भाव से मानव सेवा को ही सबसे उच्च सेवा कहा गया है और समाज में बहुत से ऐसे लोग है जिन्हें दो वक्त रोटी भी नसीब नहीं हो पाती है, ऐसे में क्षबील, लंगर-भण्डारों का महत्व और भी बढ़ जाता है। नीरज जैन ने जानकारी देते हुए कहा कि भारतीय संस्कृति में वैशाख शुक्ल तृतीया का बहुत बड़ा महत्व है, इसे अक्षय तृतीया भी कहा जाता है। जैन दर्शन में इसे श्रमण संस्कृति के साथ युग का प्रारम्भ माना जाता है। भगवान आदिनाथ इस युग के प्रारंभ में प्रथम जैन तीर्थंकर हुए। राजा आदिनाथ को राज्य भोगते हुए जब जीवन से वैराग्य हो गया तो उन्होंने जैन धर्म की दीक्षा ली तथा 6 महीने का उपवास लेकर तपस्या की। 6 माह बाद जब उनकी तपस्या पूरी हुई तो वे आहार के लिए निकले। जैन दर्शन में श्रावकों द्वारा मुनियों को आहार का दान किया जाता है। लेकिन उस समय किसी को भी आहार की चर्या का ज्ञान नहीं था। जिसके कारण उन्हें और 6 महीने तक निराहार रहना पड़ा। वैशाख शुल्क तीज अक्षय तृतीया के दिन मुनि आदिनाथ जब विहार करते हुए हस्तिनापुर पहुंचे, तब वहां के राजा श्रेयांस व राजा सोम को रात्रि को एक स्वप्न दिखा, जिसमें उन्हें अपने पिछले भव के मुनि को आहार देने की चर्या का स्मरण हो गया। तत्पश्चात हस्तिनापुर पहुंचे मुनि आदिनाथ को उन्होंने प्रथम आहार गन्ने का रस का दिया। जैन दर्शन में अक्षय तृतीया का बहुत बड़ा महत्व है और जैन श्रावक इस दिन गन्ने का रस दान करते हैं। गौरव जैन ने बताया कि कार्यक्रम के दौरान सभी के लिये मंदिर समिति के द्वारा जैन स्कूल के बाहर गन्ने का रस निकालने वाली मशीन लगा कर छबील का वितरण किया गया। जिसकों लगभग 5000 लोगों ने ग्रहण किया। इसके अतिरिक्त श्री महावीर दिगम्बर जैन मंदिर रेस्ट हाऊस रोड व एस. एस. जैन सभा जैन स्थानक मॉडल टाऊन द्वारा भी गन्ने के रस की छबील का वितरण किया गया। इस अवसर पर रोहित जैन, रजत जैन, कशिश जैन, अक्षत जैन, गर्वित जैन, अभिनव जैन, पवन जैन, ऋषभ जैन, सिद्धार्थ जैन, आशीष जैन, नंदनी जैन, एषण जैन आदि ने सहयोग दिया।
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गन्ने का रस वितरित करते मंदिर सभा के पदाधिकारी……………(डा. आर. के. जैन)
अक्षय तृतीया के अवसर पर मनाया भगवान श्री ऋषभदेव जी का तप-पारना महोत्सव
यमुनानगर, 30 अप्रैल (डा. आर. के. जैन):
मॉडल टाउन जैन स्थानक के सभागार में विराजमान पावन निश्राय प्रवचन पभाविका साध्वी श्री श्रेया जी महाराज व साध्वी श्री सन्यता जी महाराज के सानिध्य में प्रथम तीर्थंकर भगवान श्री ऋषभदेव जी के तप-पारना महोत्सव, अक्षय तृतीया के शुभ अवसर पर भक्ति भाव के साथ मनाया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता सभा के प्रधान राकेश जैन व आनंद जैन ने की तथा संचालन महामंत्री मनीष जैन ने किया। स्वागत अध्यक्ष की भूमिका आनंद जैन, संदीप जैन व विजय जैन ने निभाई व गौमत प्रसादी जगाधरी निवासी प्रवीण सप्पल जैन रेन सप्पल जैन रहे। कार्यक्रम का शुभारम्भ महामंत्री णमोकार का उच्चारण कर किया गया। साध्वी जी महाराज ने सभा को अक्षय तृतीया का महत्व बताते हुए कहा कि भारतीय संस्कृति में वैशाख शुक्ल तृतीया का बहुत बड़ा महत्व है, इसे अक्षय तृतीया भी कहा जाता है। जैन दर्शन में इसे श्रमण संस्कृति के साथ युग का प्रारम्भ माना जाता है। जैन दर्शन के अनुसार भरत क्षेत्र में युग का परिवर्तन भोग भूमि व कर्मभूमि के रूप में हुआ। भोग भूमि में कृषि व कर्मों की कोई आवश्यकता नहीं। उसमें कल्प वृक्ष होते हैं, जिनसे प्राणी को मनवांछित पदार्थों की प्राप्ति हो जाती है। कर्म भूमि युग में कल्प वृक्ष भी धीरे-धीरे समाप्त हो जाते हैं और जीवों को कृषि आदि पर निर्भर रह कर कार्य करने पड़ते हैं। भगवान आदिनाथ इस युग के प्रारंभ में प्रथम जैन तीर्थंकर हुए। उन्होंने लोगों को कृषि और षट् कर्म के बारे में बताया तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य की सामाजिक व्यवस्थाएं दीं। इसलिए उन्हें आदि पुरुष व युग प्रवर्तक कहा जाता है। राजा आदिनाथ को राज्य भोगते हुए जब जीवन से वैराग्य हो गया तो उन्होंने जैन धर्म की दीक्षा ली तथा 6 महीने का उपवास लेकर तपस्या की। 6 माह बाद जब उनकी तपस्या पूरी हुई तो वे आहार के लिए निकले। जैन दर्शन में श्रावकों द्वारा मुनियों को आहार का दान किया जाता है। लेकिन उस समय किसी को भी आहार की चर्या का ज्ञान नहीं था। जिसके कारण उन्हें और 6 महीने तक निराहार रहना पड़ा। बैसाख शुल्क तीज अक्षय तृतीया के दिन मुनि आदिनाथ जब विहार करते हुए हस्तिनापुर पहुंचे। वहां के राजा श्रेयांस व राजा सोम को रात्रि को एक स्वप्न दिखाए जिसमें उन्हें अपने पिछले भव के मुनि को आहार देने की चर्या का स्मरण हो गया। तत्पश्चात हस्तिनापुर पहुंचे मुनि आदिनाथ को उन्होंने प्रथम आहार गन्ने का रस का दिया। जैन दर्शन में अक्षय तृतीया का बहुत बड़ा महत्व है और जैन श्रावक इस दिन गन्ने का रस दान करते हैं। इस अवसर पर व्रत, एकासन, उपवास, आयंबिल आदि तप करने वाली महिलाओं को सम्मानित किया गया। कार्यक्रम में नवदीप जैन, अजय जैन, संजीव जैन, सतीश जैन, अशोक जैन, सुबोध जैन, दीपक जैन व आस-पास के क्षेत्र के श्रद्धालु उपस्थित रहे।
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प्रवचन करते मुनिश्री व उपस्थित श्रद्धालु……………..(डा. आर. के. जैन)
जैन धर्म में है अक्षय तृतीया का विशेष महत्व, इस दिन किया था प्रथम तीर्थंकर ने पहला आहार
यमुनानगर, 30 अप्रैल (डा. आर. के. जैन):
हस्तिनापुर तीर्थ तीर्थों का राजा कहलाता है। यह धर्म प्रचार का आद्य केन्द्र रहा है। यहीं से धर्म की परम्परा का शुभारम्भ हुआ। यह महातीर्थ है, जहां से दान की प्रेरणा संसार ने प्राप्त की थी। इस विषय पर जानकारी देते हुये गुरु नानक गल्र्स कॉलेज की सहायक प्रोफेसर डा. अनुभा जैन ने बताया कि भगवान ऋषभदेव ने जब दीक्षा धारण की उस समय उनकी देखा-देखी चार हजार राजाओं ने भी दीक्षा धारण की। भगवान ने केशलोंच किये, उन सबने भी केशलोंच किये, भगवान ने वस्त्रों का त्याग किया, उसी प्रकार से उन सब राजाओं ने भी नग्न दिगम्बर अवस्था धारण कर ली। भगवान हाथ लटकाकर ध्यान मुद्रा में खड़े हो गये थे वे सभी राजा गण भी उसी प्रकार से ध्यान करने लगे किन्तु कुछ दिन के बाद उन सभी को भूख प्यास की बाधा सताने लगी। वे बार-बार भगवान की तरफ देखते किन्तु भगवान तो मौन धारण करके नासाग्र दृष्टि किये हुए अचल खड़े थे, एक दो दिन के लिए नहीं पूरे छह माह के लिए। अत: उन राजाओं ने बेचैन होकर जंगल के फल खाना एवं झरनों का पानी पीना प्रारंभ कर दिया। उसी समय वन देवता ने प्रगट होकर उन्हें रोका कि मुनि वेश में इस प्रकार से अनर्गल प्रवृत्ति मत करो। यदि भूख प्यास का कष्ट सहन नहीं हो पाता है तो इस जगत पूज्य मुनि पद को छोड़ दो तब सभी राजाओं ने मुनि पद को छोडक़र अन्य वेश धारण कर लिये। किसी ने जटा बड़ा ली, किसी ने बल्कल धारण कर लिए, किसी ने भस्म लपेट ली, कोई कुटी बनाकर रहने लगे इत्यादि। उन्होंने बताया कि भगवान ऋषभदेव का छह माह के पश्चात् जब ध्यान विसर्जित हुआ, वैसे तो भगवान का बिना आहार किये भी काम चल सकता था किन्तु भविष्य में भी मुनि बनते रहे, मोक्ष मार्ग चलता रहे इसके लिए आहार हेतु निकले। किन्तु उनको कहीं पर भी विधि पूर्वक एवं शुद्ध प्रासुक आहार नहीं मिल पा रहा था। सभी प्रदेशों में भ्रमण हो रहा था किन्तु कहीं पर भी दातार नहीं मिल रहा था। कारण यह था उनसे पूर्व में भोग भूमि की व्यवस्था थी। लोगों को जीवन यापन की सामग्री-भोजन, मकान, वस्त्र, आभूषण आदि सब कल्पवृक्षों से प्राप्त हो जाते थे। जब भोगभूमि की व्यवस्था समाप्त हुई तब कर्मभूमि में कर्म करके जीवनोपयोगी सामग्री प्राप्त करने की कला भगवान के पिता नाभिराय ने एवं स्वयं भगवान ऋषभदेव ने दिखाई। असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प एवं वाणिज्य करके जीवन जीने का मार्ग बतलाया। सब कुछ बताया किन्तु दिगम्बर मुनियों को किस विधि से आहार दिया जाए इस विधि को नहीं बतलाया। जिस इन्द्र ने भगवान ऋषभदेव के गर्भ में आने से छह माह पहले गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी से रत्न वृष्टि प्रारंभ कर दी थी। पाँचों कल्याणकों में स्वयं इन्द्र प्रतिक्षण उपस्थित रहता था, किन्तु जब भगवान प्रासुक आहार प्राप्त करने के लिए भ्रमण कर रहे थे तब वह भी नहीं आ पाया। डा. अनुभा जैन ने आगे बताया कि सम्पूर्ण प्रदेशों में भ्रमण करने के पश्चात हस्तिनापुर आगमन से पूर्व रात्रि के पिछले प्रहर में यहाँ के राजा श्रेयांस को सात स्वप्न दिखाई दिए, जिसमें प्रथम स्वप्न में सुदर्शन मेरु पर्वत दिखाई दिया। प्रात:काल उन्होंने ज्योतिष को बुलाकर उन स्वप्नों का फल पूछा, तब ज्योतिषी ने बताया कि जिनका मेरु पर्वत पर अभिषेक हुआ है जो सुमेरु के समान महान है ऐसे तीर्थंकर भगवान के दर्शनों का ताम प्राप्त होगा। कुछ ही देर बाद भगवान ऋषभदेव का हस्तिनापुर में मंगल पदार्पण हुआ। भगवान का दर्शन करते ही राजा श्रेयांस को आठ भव पूर्व का जाति स्मरण हो आया। जब भगवान ऋषभदेव राजा बजजंघ की अवस्था में थे तब राजा श्रेयांस वज्रजंघ की पत्नी रानी श्रीमती की अवस्था में थे और उन्होंने चारण ऋद्धिवारी मुनियों को नवधा भक्ति पूर्वक आहार दान दिया था, तभी राजा श्रेयांस समझ गये कि भगवान आहार के लिए निकले हैं। यह ज्ञान होते ही वे अपने राजमहल के दरवाजे पर खड़े होकर मंगल वस्तुओं को हाथ में लेकर भगवान का पडग़ाहन करने लगे। हे स्वामी, नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु अत्र तिष्ठ तिष्ठ….. विधि मिलते ही भगवान राजा श्रेयांस के आगे खड़े हो गये। राजा श्रेयांस ने पुन: निवेदन किया मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काम शुद्धि, आहार जल शुद्ध है भोजनशाला में प्रवेश कीजिये। चौके में ले जाकर पाद प्रक्षाल करके पूजन की एवं इक्षुरस का आहार दिया। आहार होते ही देवों ने पंचाश्चर्य की वृष्टि की। चार प्रकार के दानों में से केवल आहार दान के अवसर पर ही पंचाश्चर्य की वृष्टि होती है। भगवान जैसे पात्र का लाभ मिलने पर राजा श्रेयांस की भोजनशाला में उस दिन भोजन अक्षय हो गया। शहर के सारे नर-नारी भोज कर गये तब भी भोजन जितना था उतना ही बना रहा। एक वर्ष के उपवास के बाद हस्तिनापुर में जब भगवान का प्रथम आहार हुआ तो समस्त पृथ्वी मंडल पर हस्तिनापुर के नाम की धूम मच गई सर्वत्र राजा श्रेयांस की प्रशंसा होने लगी। अयोध्या से भरत चक्रवर्ती ने आकर राजा श्रेयांस का भव्य समारोपूर्वक सम्मान किया तथा उन्हें दानतीर्थ की पदवी से अलंकृत किया। प्रथम आहार की स्मृति में उन्होंने यहां एक विशाल स्तूप का निर्माण भी कराया। उस आहार दान के कारण ही आज भी हम लोग भगवान ऋषभदेव के साथ राजा श्रेयांस को भी याद करते हैं। जिस दिन यहां प्रथम आहार दान हुआ वह दिन वैशाख सुदी तीज का था। तब से आज तक वह दिन प्रतिवर्ष पर्व के रूप में मनाया जाता है। अब उसे आखा तीज या अक्षय तृतीया कहते हैं।
फोटो नं. 4 एच.
जानकारी देती डा. अनुभा जैन…………….(डा. आर. के. जैन)