जैन विचारधारा के अनुसार होली पर्व नहीं है, न ही उसका कोई धार्मिक महत्व है। अनेकांतिक सोच कहती है कि अगर ढूँढे तो हर दुर्योधन में कहीं न कहीं अल्प-मात्र में ही सही युधिष्ठिर भी होता है। होली हमारा पर्व न हो कर भी कुछ क्रिया-कलापों के परे सूक्ष्म रूप से ही सही हमारी विचारधारा को छूता है। “होली’ यानी भारतीय-जनमानस में लौकिक-संस्कृति का रंगों का त्यौहार। इस त्योहार के दो पक्ष हैं। एक होलिका-दहन के रूप में और दूसरा आपस में रंग-गुलाल लगाकर मनोमालिन्य दूरकर आपसी सौहार्द बढ़ाने के रूप में। होली के चंग की हुंकार से मन के रंजिश की गाँठें, दूरियाँ मिटती हैं।
इस रूप में होली हमारे क्षमावाणी का ही रूप तो दर्शाता है। होली बुराइयों के विरुद्ध उठा एक प्रयत्न है, इसी से जिंदगी जीने का नया अंदाज मिलता है, औरों के दुख-दर्द को बाँटा जाता है, बिखरती मानवीय संवेदनाओं को जोड़ा जाता है। यही तो हमारे सूत्र परस्परोपग्रहो जीवानाम् का भी संदेश है। होलिका-दहन बुराई के नष्ट होने के साथ अपनी बुरी आदतों का भी दहन करने का प्रतीक है। हम भी तो अग्नि में धूप क्षेपण कर अष्ट कर्मों का दहन करते हैं।
रंगों का भी अपना आध्यात्मिक महत्व है। रंगों से हमारे शरीर, मन, आवेगों, कषायों आदि का बहुत बड़ा संबंध है। रंगों के बिना अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। बाल्यावस्था में शिशु रंगों की सहायता से ही वस्तुओं को पहचानता है। युवक रंगों के माध्यम से ही संसार का सर्जन करता है। वृद्ध आँखें रंगों की सहायता से वस्तुओं का नाम की पहचान करती हैं। सूर्य की लालिमा हो या खेतों की हरियाली, आसमान का नीलापन या मेघों का कालापन, बारिश के बाद में बिखरती इन्द्रधनुष की अनोखी छटा, बर्फ की सफेदी और ना जाने कितने ही ख़ूबसूरत नज़ारे जो हमारे अंतरंग आत्मा को प्रफुल्लित करता है। एक दूजे पर रंग लगाने का अभिप्राय सबको प्रकृति के सभी रंगों के समान ऊर्जावान बनाना है। आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा प्रणित प्रेक्षाध्यान पद्धति में पर्यावरण की मर्यादा एवं उपभोग का आदर्श उपस्थित करने वाला लेश्या ध्यान कराया जाता है, जो रंगों का ही ध्यान है।
हमारे ध्वज में में पांच रंग होते हैं। लाल रंग हमारी आंतरिक दृष्टियों को जागृत करता है। पीला रंग हमारे मन को सक्रिय करता है। श्वेत रंग हमारी आंतरिक शक्तियों को जागृत करता है। हरा रंग शांति देता है तथा आत्म-साक्षात्कार में सहायक होता है। काला (कुछ विद्वान नीला) रंग साधना में लीन अपरिग्रही साधू का प्रतीक है। नीला रंग अवशोषक होता है। बाहर के प्रभाव को भीतर नही जाने देता।
अग्नि-दहन में जीव हिंसा और किसी कथा विशेष को लेकर ही हम जनमानष के एक बहुत बड़े भाग द्वारा हर्षोल्लास द्वारा मनाए जाने वाले होली के पर्व को सार्वजनिक रूप से अस्वीकरण कर उनकी भावनाओं को आहात करके उनसे अलग-थलग नहीं पड़ सकते हैं। हाँ जो भी हमें अपने हिसाब से वर्जित लगता है उसमें भागीदार न हों। सूक्ष्म दृष्टि से विचारें तो इस बात से नकार भी नहीं सकते कि होली कोरा किंवदंतियों पर आधारित आमोद-प्रमोद का ही नहीं, अध्यात्म का भी अनूठा अवसर है।
-डॉ. निर्मल जैन (से.नि. जज)