आधुनिकता की चकाचौंध में अपनी संस्कृति और संस्कार को न करें दरकिनार -डॉ. सुनील जैन ‘संचय’, ललितपुर

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संस्कारों का हमारे जीवन में विशेष महत्व है। यदि संस्कार न हों तो हमारी सामाजिक जिम्मेदारियां और सामाजिक भागीदारी शून्य होगी।संस्कार का अर्थ अच्छे कार्यों, गुणों और नैतिक मूल्यों का पालन करने से है। संस्कार हमें श्रेष्ठ बनाते हैं। अपने कार्यों और व्यवहार से ही यह सुनिश्चित होता कि हम किस परिवेश से बाहर आए हैं। संस्कारों से व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है और समाज में सामंजस्यपूर्ण संबंध बनते हैं। संस्कारों से व्यक्ति नैतिक और सामाजिक रूप से विकसित होता है. संस्कारों के ज़रिए ही व्यक्ति समाज में अपना योगदान दे सकता है।
भारत की संस्कृति व सभ्यता में प्राचीन समय से ही प्रत्येक कार्य के पीछे तर्क व वैज्ञानिक आधार रहा है। हमारी संस्कृति पूरे विश्व को जीवन मार्ग पर चलना सिखाती थी, तभी भारत को विश्व गुरु जैसी उपमाओं से अलंकृत किया जाता रहा है। लेकिन देश-प्रदेश के वर्तमान परिदृश्य का आकलन करें तो आज समाज का अधिकांश वर्ग आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपनी संस्कृति व संस्कारों को भुला चुका है।
आजकल की युवा पीढ़ी नैतिकता तथा शिष्टाचार को भूल सी गई है। संस्कारों का अभाव कहीं भी देखने को मिल सकता है। युवा पीढ़ी में संस्कार, नैतिकता व शिष्टाचार की कमी न हो, इसके लिए हमें स्वयं से ही शुरुआत करनी होगी। संस्कार यानी हमारी जड़ें हमारी पहचान, संस्कार शिष्टाचार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तातरित होते आए हैं।
नैतिकता की आधुनिक युग में कमी होती जा रही है। अनैतिकता बढ़ने के कारण शिष्टाचार में कमी आ रही है। जैसे-जैसे इंटरनेट व सोशल मीडिया का प्रभाव बढ़ रहा है वैसे-वैसे हम नैतिकता को भूल रहे हैं। सोशल मीडिया का प्रयोग गलत नहीं है। यह हमारे ज्ञान के स्तर को बढ़ाता है, लेकिन आज कुछ बच्चे इसका गलत प्रयोग कर अपने संस्कारों को भूल रहे हैं। आजकल बच्चे बड़ों का आदर करना भूल रहे हैं। हमें आधुनिक बनना चाहिए, लेकिन अपने संस्कारों को नहीं भूलना चाहिए।
समाज में व्यक्ति की वह जड़ें संस्कृति है, जिससे जुड़ा रहना व्यक्ति के लिए आवश्यक होता है। संस्कृति से कटा हुआ व्यक्ति कटी डोर की पतंग की भांति होता है जो उड़ तो रहा होता है लेकिन मंजिल व रास्ता तय नहीं होता, न ही पता होता है कि वह कटा हुआ पतंग कहां जाएगा। वैसा ही हाल समाज में जब कोई व्यक्ति अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कट जाता है तो अपना आधार खो देता है। वर्तमान परिदृश्य में समाज को देखें तो देखने को मिल जाता है कि युवा पीढ़ी अपनी संस्कृति को दिन-प्रतिदिन पीछे छोड़कर आधुनिकता की अंधी दौड़ में दौड़ी जा रही है। संस्कृति-संस्कार समाज के ऐसे अभिन्न अंग हैं जिनसे समाज तय होता है। कहा जाता है कि जिस प्रकार की संस्कृति व संस्कार किसी समाज में प्रचलित होंगे, उसी तरह का समाज निर्माण होगा।
आज के समाज में संस्कारों का ह्रास हो रहा है. संस्कारों के अभाव के कारण युवा पीढ़ी नशे और अपराधों में घिरती जा रही है. संस्कारों की कमी के कुछ कारण ये हैं: बड़ों के प्रति अनादर, कुतर्क और मनमानी, संवेदनहीनता, पाश्चात्य संस्कृति को अपनाने की होड़, माता-पिता का संस्कारों के प्रति उदासीन रवैया।
आधुनिकता की होड़ में आज युवा पीढ़ी न जाने कितने कुकर्म की आदि होती जा रही है।दुल्हन सुट्टा लगाते, चिलम फूंक रही है, हाथ में शराब का गिलास हैं, तो कभी नीचे से लहँगा गायब, शॉर्ट्स पहन फोटोशूट कराया जा रहा है। हम देख रहे हैं  बाते बना रहे है किंतु रोक नही पा रहे। आधुनिकता के फेर में बच्चे अब बड़ों की बात नही सुनते। पर हम इसका विरोध नहीं कर पाते बल्कि हमारे घर की बेटियाँ प्री-वेडिंग शूट के नाम पर इनका अनुकरण करने लगी हैं। विवाह एक गरिमामयी पवित्र बंधन और  संस्कारों में सबसे प्रमुख संस्कार है यह भी भूल चले हैं। अब इवेंट्स मैनेजमेंट, प्री वेडिंग शूट जैसे चोंचलों की आड़ में हर तरह की अश्लीलता का सरेआम प्रदर्शन हो रहा है।
हम हमारे संस्कारों की धज्जियां उड़ाने वाले टीवी सीरियल, नौटंकी, फिल्मों और फिल्मी लोगों की शादियों से प्रभावित हो कर अपने पवित्र संस्कारों को नष्ट करने पर तुले हैं। फ़ोटोग्राफ़र के कहने पर सबके सामने जैसा वो करवाता है करते जा रहे हैं…।
यह ऐसा अंधानुसरण है जिसका परिणाम टूटते परिवारों और विवाह विच्छेद के बढ़ते प्रकरणों के रूप में सामने आने लगा है और इसके पीड़ित ही इसके अप’राधी भी हैं।
आधुनिक होने की बातें की जाती हैं, मगर ये आधुनिक और स्मार्ट व्यक्ति नहीं बल्कि इनके महंगे-महंगे स्मार्टफोन हैं जिनसे लोगों को लगता है कि वे भी इन मोबाइलों की तरह स्मार्ट हैं, लेकिन यह सबसे बड़ा भ्रम है। आज का मनुष्य इतना निर्भर प्रवृत्ति में लीन हो गया है कि केवल सब कुछ आर्टिफिशियल चाहिए, स्वयं कुछ भी नहीं करना है। वो कहा जाता है न कि आज के मनुष्य सोशल मीडिया में तो सोशल होना चाहते हैं, मगर सामाजिक नहीं बनना चाहते। केवल नाम से आधुनिकतावादी कहलाना चाहते हैं। यह आधुनिकतावादी होने का भ्रम लोगों को अपने मस्तिष्क से निकालकर व्यावहारिक जीवन में चिंतन करके अपनी जड़ों से जुड़कर अपनी संस्कृति व सभ्यता को जानना चाहिए, तभी आधुनिकतावादी कहलाने का कोई औचित्य रह पाता है, अन्यथा मानव इतना अधिक व्यक्तिवादी हो रहा है कि उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि साथ वाले घर में रह रहे व्यक्ति को क्या समस्या है?
संस्कारों के महत्व को समझते हुए, समाज में संस्कारों को फिर से लाने के लिए  नैतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक मूल्यों का प्रचार-प्रसार करना होगा । ईश्वर में आस्था, धर्म में निष्ठा, परोपकार, दया-करुणा जैसे मूल्यों को समावेश करना होगा।
सब कुछ कॉपी हो सकता है लेकिन चरित्र, व्यवहार, संस्कार और ज्ञान नही। बच्चों को अगर उपहार ना दिए जाए तो वह कुछ ही समय तक रोएगा लेकिन संस्कार ना दिए जाए तो वह जीवन भर रोएगा। गाड़ी में अगर ब्रेक ना हो तो दुर्घटना निश्चित है, जीवन में अगर संस्कार और मर्यादा ना हो तो पतन निश्चित है। अच्छे संस्कार किसी मॉल से नही परिवार के माहौल से मिलते है।

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