अच्छे लगते हैं गुरू जन तब जब वो हमारे बीच से गुजर जाते हैं..!

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इसलिए सन्त बनकर नहीं, साधक बनकर रहो। सन्त एक दिन बिदा हो जाते हैं, लेकिन साधक हमारे दिल में बस जाते हैं. अन्तर्मना आचार्य प्रसन्न सागर
 औरंगाबाद संवाददाता  नरेंद्र  अजमेरा पियुष कासलीवाल.                                                     मानकर जीने के अभ्यासी थे तपस्वी सम्राट
 कड़वे सच को मधुर औषधि बनाकर भक्त जन को दवा देने के अच्छे अभ्यासी थे तपस्वी सम्राट,
 नारिकेल के स्वभावतः जीने के अभ्यासी थे तपस्वी सम्राट
 शीशू सा निश्छल जीवन जीने के अभ्यासी थे तपस्वी सम्राट
 मधुर मुस्कान से भक्त जन को अपना बनाकर, अपने में जीने के अभ्यासी थे तपस्वी सम्राट
 अन्तरंग, बहिरंग, परिग्रह से मुक्त होकर जीने के अभ्यासी थे तपस्वी सम्राट
तपस्वी सम्राट, श्रमण साधना के महासूर्य बनकर जीये, जिसे युग ने तपस्वी सम्राट आचार्य श्री सन्मति सागरजी महाराज के रूप में पूजा, आराधा, और मोक्ष मार्गियों के बन गये तप आदर्श।
मुनि कुन्जर अंकलीकर आचार्य श्री आदि सागरजी महाराज के तृतीय पट्टाचार्य – श्री सन्मति सागरजी महाराज का माघ सुदी सप्तमी, संवत् 1995 तदनुसार सन् 1939 में एटा जिले के फफोतू ग्राम में जन्म हुआ। माँ जयमाला देवी, पिता प्यारेलाल जी थे। आपके तीन भाई, पांच बहिनों के बीच, बड़े लाड-प्यार से बचपन बीता। बचपन का नाम ओम प्रकाश था। आचार्य श्री महावीर कीर्ति जी से18 वर्ष की उम्र में ब्रह्मचर्य व्रत लेकर आजीवन नमक का त्याग कर दिया। आचार्य श्री विमल सागरजी महाराज से छुल्लक दीक्षा ली और नाम मिला क्षुल्लक नेमी सागर महाराज। 24 वर्ष की अल्पवय में मुनि दीक्षा हुई और कार्तिक शुक्ल द्वादशी संवत् 2019, सन् 1962 में तीर्थराज सम्मेद शिखर में मुनि सन्मति सागर महाराज बन गये। आचार्य महावीर कीर्ति गुरूदेव ने माघ वदी तृतीया वि. सं 2029, 03 जनवरी 1972, मेहसाणा में अपनी समाधि से तीन दिन पूर्व अपना आचार्य पद सन्मति सागर को देकर बना दिया आचार्य सन्मति सागर महाराज।
तपस्वी सम्राट समता के धनी थे, जीव मात्र के प्रति करूणा से ओतप्रोत रहते थे, छोटे-बड़े, गरीब-अमीर के भेदभाव से मुक्त थे, शास्त्रों की पारायणता ने आप में कूट-कूट कर विद्वता भर दी थी। आप सिद्धान्त, न्याय, व्याकरण, काव्य, छन्द, अलंकार, ज्योतिष, वास्तु, आयुर्वेद, मन्त्र-शास्त्र, आदि अनेक विधाओं के उद्भट विद्वान थे, परन्तु रन्च मात्र भी ज्ञान का अहंकार आपको स्पर्श नहीं कर पाया।
तपस्वी सम्राट निष्काम योगी थे, सर्वोत्कृष्ट आत्म आनंद के सागर में अवगाहन कर, सरस्वती की साधना में लीन होकर, संस्कृति की सुरक्षा के प्रेरणास्रोत रहे। आपने प्रचण्ड पुरूषार्थ के प्रवर्तन से, आत्म सिद्धि के स्वर्णिम राज पथ पर करते रहे सदैव आरोहण और समस्त विभ्रमों को, निंद्रा को हरा कर, शरीर की प्राकृतिक क्रियाओं पर नियंत्रण करते हुये, स्वानुशासन के सतत् अभ्यासी आचार्य प्रवर, सामायिक, प्रतिक्रमण और स्वाध्याय से कभी भी समझौता नहीं करते थे।
तपस्वी सम्राट ने जिन दीक्षा के बाद, लमसम 250 से ज्यादा साधु साध्वियों को मोक्ष मार्ग पर प्रवृत्त किया। आपने अपना आचार्य पद मुनि सुनील सागरजी को देकर आर्ष परम्परा को जीवन्त कर दिया। पियुष कासलीवाल नरेंद्र  अजमेरा  औरंगाबाद

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