रूई में दबी आग और मन में छुपा पाप बहुत भयानक है..! अन्तर्मना आचार्य श्री 108 प्रसन्न सागर जी महाराज. औरंगाबाद पियुष कासलीवाल नरेंद्र अजमेरा. भारत गौरव साधना महोदधि सिंहनिष्कड़ित व्रत कर्ता अन्तर्मना आचार्य श्री 108 प्रसन्न सागर जी महाराज एवं सौम्यमूर्ति उपाध्याय 108 श्री पीयूष सागर जी महाराज ससंघ का पदविहार
कुलचाराम हैदराबाद की और अहिंसा संस्कार पदयात्रा चल रहा है विहार के दौरान भक्तौ को प्रवचन मे कहाॅ आँख में पड़ा तिनका, पैर में लगा काँटा..
रूई में दबी आग और मन में छुपा पाप बहुत भयानक है..!
मन का स्वभाव है कि वह नया माँगता है। मन सदा नया नया चाहता है। वह पुनरूक्ति नहीं माँगता। कुत्ते की तरह मानव मन भटकता है, सूंघता है और आगे बढ़ जाता है। आप भोजन करते हैं। पहले ग्रास में जो आनन्द आता है, वो दूसरे ग्रास में नहीं आता। और जो दूसरे ग्रास में आता है, वो तीसरे में नहीं आता। मन परिवर्तन चाहता है, फिर वो विषय वासना, भोग विलास या खान पान की सामग्री क्यों ना हो।
एक पत्नी ने पति से पूछा-? जब अपनी शादी हुई थी, तब तो आप बडे़ प्रशंसनीय नामों से बुलाते थे, जैसे – रस मलाई, मेरी बर्फी, मेरी रबड़ी — लेकिन अब आप इस नाम से नहीं बुलाते, क्यों-? पति ने कहा – अरे पगली! दूध की मिठाई कितने दिन तक ताजी रहेगी। मन नये पदार्थ की तरफ उन्मुख होता है और पर पदार्थ की तरफ जो आकर्षण है, बस वही पाप है। इसलिए आदमी का आधे से ज्यादा जीवन श्री और स्त्री में ही गुजरता है, जहाँ सिर्फ समुद्र का खारा पानी है। पानी तो है पर प्यास का शमन नहीं है। भाग दौड़ तो है पर मन्ज़िल नहीं है। बेखबरी का जीवन तो बहुत जी लिया परन्तु हाथ कुछ भी नहीं लगा सिर्फ अफसोस के। अब बेखबरी का नहीं खबरदारी का जीवन जीना है।
मनुष्य जीवन में सफलता तभी मिल सकती है जब हम खुद अपने आप को मर्यादित करें। त्याग मय जीवन जीयें और अपने आपको जीव दया के लिये समर्पित कर दें…!!!पियुष कासलीवाल नरेंद्र अजमेरा औरंगाबाद