आचार्य श्री विद्यासागर महाराज के जन्मदिवस शरद् पूर्णिमा के अवसर पर………।

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*तपता तन,शीतल होता मन*
*शरद् पूर्णिमा को चमका साधना का सूरज*
            *जीवन यात्रा के दो पड़ाव हैं*….. जन्म और मरण,जीव की यात्रा का  यह क्रम अनादि काल से चल रहा है और अनंत काल तक चलता रहेगा,जीवन का मतलब तो…… आना और जाना है……..।
        *जैन दर्शन* भारत में अनादिकाल से तप त्याग और संयम से आत्मा की शुद्धि कर अनंत कालीन यात्रा के स्थाई विराम का समाधान देता है। सिद्धत्व को पाकर आत्मलीन परमात्मा परमानंद दशा में आवागमन से जीव मुक्ति की दशा में लीन हो जाता है।मोह से मुक्त दोषों से रहित अनंत गुणयुक्त आत्मपद को पाना ही साधक का अंतिम और एकमात्र लक्ष्य है। आत्मा मोह के आवरण से अशुद्ध हो जाती है,मोह का आवरण अनंत काल से आत्मा के स्वरूप को ढके हुये है। खान से प्राप्त स्वर्ण के अयस्क को शोधन कर परिष्कृत करते हैं।उच्च ताप पर अशुद्ध अयस्क जल कर नष्ट हो जाता है और शुद्ध स्वर्ण निखर जाता है। ऐसे ही तप के माध्यम से अवांछनीय अशुद्धि का नाश कर आत्मशोधन से आत्मा का शुद्ध स्वरूप निखर जाता है, दोषों से दूर होकर शुद्ध आत्मा सिद्ध स्वरूप में समस्त बंधनों से मुक्त परमानंद परम पद को प्राप्त कर लेती है।
          *परिग्रह* से मोह का पालनपोषण होता है। परिग्रह का एक कण भी आत्मा की शुचिता में बाधक है। जैन श्रमण परिग्रह का पूर्ण परित्याग करते हैं। तन पर परिग्रह का एक भी धागा नहीं रखते और मौसम की गरमी ठंड और वर्षा का प्राकृतिक रूप में रहकर ही सामना करते हैं कृत्रिमता के किसी भी आलंबन का आश्रय नहीं लेते। जिन साधू दिगंबर मुद्रा में त्याग की कठिन तपस्या सहजता सरलता से कर स्वयं को निर्मल करते हैं।
       *तन का ताप मन को शीतल करता है*,संसार के साधन से सरोकार नहीं । मुक्ति पथ का साधन है साधना, मगर साधना मात्र साधन है साध्य नहीं ,साध्य तो सिध्द पद को  पाना है। आत्मकल्याण करते हुये भी पर कल्याण से विमुख नहीं होते इसीलिए जैन दर्शन में साधु का आचरण स्वपरहितकारी होता है।
      *सत्य* वह जो अहिंसा की रक्षा करे,अहिंसा धर्म करुणा और अभय की सर्वोच्च परिणति है। वचन में विनम्रता और साधन में कठोरता दिगंबर जैन साधु के लक्षण हैं।जो विलक्षण हैं।जैन दर्शन में जीव और अध्यात्म का सूक्ष्मतम विश्लेषण है।भगवान महावीर ने पंचव्रत संयम के माध्यम से जीवन के आदर्श को समझाया है। जियो और जीने दो,इस सूत्र के माध्यम से हम संपूर्ण जगत को अपना मित्र और हम जगत के मित्र बन सकते हैं/बनते हैं।
       *वर्तमान काल* में सुप्रसिद्ध दिगंबर जैनाचार्य संत शिरोमणि श्री विद्यासागर महाराज जैन दर्शन के ख्याति लब्ध आचार्य परमेष्ठी हैं।जैन और जैनेतर में समान रूप से उनकी साधना विद्वता के समर्थक अनुयायी हैं।आपकी लेखनी और चर्या ने मंत्रमुग्ध कर दिया है।आत्मानुशासक,अनासक्त, अपरिग्रही, अनाकांक्षी, अनियत विहारी,स्वपरहितकारी ,पदयात्री, करपात्री,निर्मोही (मोहरहित),निष्काम साधक,महाकवि, अहिंसा रवि आदि अनेक उपमाओं की झलक श्री विद्यासागरजी महाराज के व्यक्तित्व में झलकती हैं। तन को तपाकर आत्मशुद्धि की साधना में निमग्न सिद्धत्व के पथानुगामी एक ऐसे पथिक जो स्वयं चले और अन्य के लिये पथप्रदर्शन कर निर्दोष समाधि मरण अंगीकार किया। साधना से अपने लक्ष्य की ओर गमन किया और अपनी रचनाओं व प्रवचनों से संसार का भी मार्ग प्रशस्त कर दिया।
       *हितमितप्रियभाषी आचार्य श्री विद्यासागर* का जन्म अठहत्तर वर्ष पूर्व कलाधर जब पूर्ण कला बिखेर रहा था, अवनि और अंबर धवल चांदनी से आलोकित थे शरद् पूर्णिमा को दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्य में बेलगाम जिला के ग्राम सदलगा में हुआ था। धर्मानुरागी पिता श्री मल्लप्पा जी अष्टगे माता श्रीमंती की द्वितीय संतान के रूप में अद्वितीय बालक का जन्म हुआ। बालक की आभा से आल्हादित माता पिता ने विद्याधर नाम दिया।
        *होनहार बिरवान के होत चीकने पात* उक्ति का प्रतिबिंब विद्याधर में बाल्यावस्था में दिखने लगा था।तीव्रगति से सायकिल चलाने में पारंगत अब पदविहारी हैं मगर गति में कोई कमी नहीं जब चलते हैं साथ चलने वालों को दौड़ना होता है। माता पिता के आज्ञाकारी पीलू,बचपन में सभी लाड़ से लाड़ले विद्याधर को इसी नाम से पुकारते थे,अनुशासित थे।गुल्ली डंडा खेलते हुये गुल्ली को दूर तक पहुंचाने की धुन आज भी है अब आपके गुन दूर दूर तक गाये जा रहे हैं।
       *बाल्यावस्था* में ही पीलू में वैराग्य की भावना दिखने लगी थी।साथियों के विवादों का समाधान बालक विद्याधर धर्मनीति के अनुसार ऐसे करते थे जैसे आज वीतरागी संघ का संचालन कर रहे हैं।सामायिक का अभ्यास तो विध्याधर को बचपन में हो गया था तब वे घंटों ध्यानस्थ मुद्रा में मंदिर जी में जिनबिम्ब के सम्मुख ध्यान मग्न हो जाते थे। लौकिक शिक्षा कृते हुये भी विध्याधर का मन संत समागम अधिक भाता था,गांव में मुनिमहाराज का विहार होता तो वैय्यावृत्ति में अग्रगण्य रहते।साधुओं की वाणी का विद्याधर पर प्रभाव उनके आचरण और विचारों में झलकने लगा था।
     *बचपन* में अंकुरित करुणा अहिंसा के भावों का पौधा आयु के साथ साथ विद्याधर के मन वचन में जड़ें गहरी करता गया। आचार्य श्री देशभूषण महाराज की लगन से सेवा करते हुये जैन धर्म के सिद्धांतों को आत्मसात करते गये और महाराज से आजीवन ब्रम्हचर्य का व्रत धारण कर सद्मार्ग की ओर अपना कदम बढ़ा दिया। ब्रम्हचारी विद्याधर भैया को सांसारिकता में असार दृष्टिगोचर होने लगा और वीतरागता की प्यास बढ़ने लगी। दक्षिण में उदित रवि के कदम राजस्थान में विराजमान दिगंबराचार्य ज्ञान सागर महाराज के चरणों की ओर बढ़ गये।अजमेर नगर में पारखी जौहरी ने रत्न को पहचान लिया और गुरू शिष्य का ऐसा संबंध स्थापित हुआ जिस पर जैन इतिहास गौरवान्वित है।
        *आचार्य श्री ज्ञानसागर महाराज* पारंगत जौहरी थे उन्हें दक्षिण के रत्न को क्षणभर में परख लिया और ये उनका जगत पर असीम उपकार है कि इस रत्न में रत्नत्रय की एक सी ज्योति जगाई जिससे यह जगत आलोकित है।साहित्य और साधना का ऐसा समागम अन्यत्र कहां ? आचार्य ज्ञानसागर महाराज ने जैन धर्म के त्याग और विनम्रता का वह स्वरूप दर्शाया जिसका वर्णन केवल आगम में मिलता है। अपनी काया की शिथिलता दुर्बलता से ये अनुभूति कर ली कि अब इस काया से धर्मसाधना संभव नहीं है,अतः अब इस तन को वेतन बंद किया जाये और समाधि लेकर असार संसार,क्षरण होती काया का त्याग किया जाये,इस श्रेष्ठ परिणति में आचार्य पद एक भार था। आचार्य श्री ज्ञानसागर महाराज ने तब अपने योग्य शिष्य को आचार्य पद देकर उच्च आसन पर विराजमान किया और नवीन आचार्य श्री विद्यासागर के चरणों में बैठ अपनी समाधि निवेदन किया।मानशून्यता का ऐसा दुर्लभ रूप अद्भुत और अलौकिक था।आचार्य श्री विद्यासागर महाराज ने अपने गुरू की साधना के श्रेष्ठ उपसंहार में पूरी लगन और समर्पण से सेवा कर निर्दोष और आदर्श समाधि कराई। संसार को जैन दर्शन के सर्वश्रेष्ठ रूप का दर्शन कराकर जैन इतिहास को स्वर्णमयी कर दिया।
           *क्षमा वीरस्य भूषणम्*,तभी तो वीर भूमि राजस्थान के अजमेर नगर में रत्नत्रयी दीक्षा धारी और नसीराबाद में आचार्य पद पदवी पाई और राजस्थान ,उत्तरप्रदेश होते हुये मध्यप्रदेश में वीतरागता के पौधों का रोपण किया। आचार्य ज्ञानसागर महाराज ने जिस रत्न को तराशा था उसके प्रकाश की छाया में मध्यप्रदेश रत्नत्रयी हीरों की खान बन गई।आचार्य विद्यासागर महाराज द्वारा तराशे अन्यान्य हीरे भारत को जैन दर्शन से आलोकित कर रहे हैं। आचरण, अध्यात्म और साहित्य की ऐसी त्रिवेणी प्रवाहित हो रही है जिससे भारतीय वांग्मय सुशोभित है अलंकृत है।
         *लौट चलें*……ये समाधान दूरदृष्टा आचार्य श्री विद्यासागर महाराज ने 2003 के सर्वोदय तीर्थ अमरकंटक के पावस चातुर्मास में मेरी एक जिज्ञासा कि आचार्य श्री वर्तमान में जो विसंगतियां व्याप्त हो रही हैं करुणा क्रोध के सामने कांप रही है,सांस्कृतिक ताने तार तार हो रहे हैं,इनकी पुनर्स्थापना का क्या उपाय है का समाधान करते हुये दिया था।आपने कहा कि हमें अतीत के आइना में झांकना होगा और अतीत को ही भविष्य बनाना होगा।हमारा भारत जब तक गांवों का भारत था सोने की चिड़िया था। दो तीन सौ वर्ष पूर्व तक भारत देश संसार में समृद्ध सुसंस्कृत देश था।भारत के शिक्षा आयतन की गूंज संसार में गूंजती थी। शहरी चमक में भारत छूटता गया और इंडिया उभरने लगा।हमारी प्राचीनता ही भारत है भारत की आत्मा है।अंतरंग भारत है बहिरंग इंडिया। ये शाब्दिक नहीं है हमें अपनी अंतरंगता को प्रकाशमान करना है,गांवों को,प्राचीन संस्कृति को प्राचीन शिक्षा पध्दति को शिक्षा आयतनों के पुराने रूप को,प्राचीन आचरणिक चर्या को,आत्मनिर्भरता को पूर्व के संस्कारों की ओर लौटकर जाने से विसंगतियों पर विराम लगेगा, करुणा की फसल लहलहायेगी। भारत को प्रकाशमान करो अंतरंग को चमकाओ।भारत की ओर लौट चलो।
           *विरोधाभासों* को एक रंग में कर देना आपके व्यक्तित्व की अनोखी विशेषता रही है आचार्य श्री विद्यासागर जी मौन साधक के साथ ही प्रखर वक्ता भी थे। स्वयं कभी कोई प्रश्न नहीं किया पर प्रत्येक प्रश्न का समाधान करते थे। मुक्ति पथ के पथ पर चलते हुए अन्य को भी राह दिखाई । हम उनके लक्ष्य को उनकी पंक्तियों से समझते हैंः–
*काया का कायल नहीं,काया में हूं आज।*
*कैसे कायाकल्प हो,ऐसा कर तप काज।।*
*तन को तज स्वेच्छा मरण किया निर्दोष समाधि से*
 साधना पर पर चलते चलते काया की क्षीणता और क्षरण की अनुभूति होते ही उन्हें आभास हो गया कि ये काया अब धर्म साधना में साधन योग्य नहीं रही वरन् बाधक हो सकता है। काया के प्रति निर्मोही ने अंतरंग में काया तजने का निर्णय ले लिया और चारों आहार जल का पूर्ण त्याग कर *छत्तीसगढ़ के डोंगरगढ़* में समाधि लेकर 18 फरवरी 24 को समाधि मरण का वरण कर लिया। संसार की कोई बाधा उनके पथ को कभी न डिगा सकी। उनकी रचिच पंक्तियां हैं
*अटकी भटकी कब नदी,लौटी कब अधबीच*
*रे मन तू क्यों भटकता अटका क्यों अघकीच।*
उनका संकल्प तो सुदृढ़ था नदी की भांति अपने लक्ष्य को पाने का, इसीलिए न उन्होंने कभी आराम किया न विश्राम,निरंतर चलते ही रहे अपने पग पर अपने पथ पर अथक पथिक,स्वयं चले और अन्य को भी राह दिखाई,जीवन की और मरण की भी।
*वेदचन्द जैन*
*गौरेला (छत्तीसगढ़),जिला जीपीएम 495117*
मो.  *9425434428*

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