आचार्यश्री के उपकारों को भुलाया नहीं जा सकता -मुनिश्री विलोकसागर

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आचार्यश्री के उपकारों को भुलाया नहीं जा सकता -मुनिश्री विलोकसागर

मुरैना (मनोज जैन नायक) संपूर्ण विश्व को सत्य, अहिंसा, शाकाहार, जीवदया, परोपकार और जियो और जीने दो का संदेश देने वाले युग पुरुष, संत शिरोमणि समाधिस्थ दिगम्बराचार्य विद्यासागरजी महाराज भले ही आज शारीरिक रूप से हमारे बीच मौजूद नहीं हैं लेकिन उनके द्वारा दिए गए संस्कार, उपदेश, शिक्षाएं हमारे हृदय पटल पर अंकित हैं। आज हम सभी ऐसे युग पुरुष को याद कर रहे हैं जिन्होंने जीतेजी कभी भी अपना अवतरण दिवस नहीं मनाया, न हीं किसी अन्य को मनाने की स्वीकृति प्रदान की । पूज्य गुरुदेव ने सदैव ही विदेशी वस्तुओं को त्यागने एवं स्वदेशी को अपनाने का संदेश दिया । आपने अपने जीवन काल में लाखों लोगों से मांसाहार का त्याग करवाकर शाकाहार से जोड़ा साथ ही सैकड़ों श्रावक श्राविकाओं को जैन दर्शन से जोड़कर जैनेश्वरी दीक्षा देकर संयम पथ की ओर अग्रसर किया । पूज्य गुरुदेव के उपकार को हम सभी न कभी भूल सकते हैं, न कभी उनके उपकार को चुका सकते हैं। आने वाले समय में युगों युगों तक गुरुदेव आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को याद किया जाता रहेगा । उक्त उद्गार शरद पूर्णिमा के अवसर पर आचार्य श्री विद्यासागर अवतरण दिवस पर मुनिश्री विलोकसागरजी महाराज ने बड़े जैन मंदिर में धर्म सभा को संबोधित करते हुए व्यक्त किए ।
इस अवसर पर मुनिश्री विबोधसागर महाराज ने बताया कि आचार्यश्री विद्यासागरजी का बाह्य व्यक्तित्व भी उतना ही मनोरम था, जितना अंतरंग, तपस्या में वे वज्र से कठोर थे, पर उनके मुक्त हास्य और सौम्य मुखमुद्रा से कुसुम की कोमलता झलकती थी। वे आचार्य कुन्दकुन्द और समन्तभद्र की परम्परा को आगे ले जाने वाले आचार्य थे तथा यशोलिप्सा से अलिप्त व शोर-शराबे से कोसों दूर रहते थे। शहरों से दूर तीर्थों में एकान्त स्थलों पर चातुर्मास करते थे । आयोजन व आडम्बर से दूर रहने के कारण प्रस्थान की दिशा व समय की घोषणा भी नहीं करते थे। वे अपने दीक्षार्थी शिष्यों को भी पूर्व घोषणा के बिना ही दीक्षा हेतु तैयार करते थे। हाथी, घोड़े, पालकी व बैण्ड-बाजों की चकाचौंध से अलग सादे समारोह में दीक्षा का आयोजन करते थे।
परम पूज्य गुरुदेव आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज
जैनाचार्य विद्यासागरजी का जन्म कर्नाटक के बेलगाँव जिले के गाँव चिक्कोड़ी में आश्विन शुक्ल पूर्णिमा (शरद पूर्णिमा), संवत् 2003 को हुआ था। श्री मल्लप्पाजी अष्टगे तथा श्रीमती अष्टगे के आँगन में जन्मे विद्याधर (घर का नाम पीलू) को आचार्य श्रेष्ठ ज्ञानसागरजी महाराज का शिष्यत्व पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। राजस्थान की ऐतिहासिक नगरी अजमेर में आषाढ़ सुदी पंचमी विक्रम संवत् 2025 को लगभग 22 वर्ष की आयु में संयम धर्म के परिपालन हेतु उन्होंने पिच्छी कमंडल धारण करके मुनि दीक्षा धारण की थी। नसीराबाद (अजमेर) में गुरुवर ज्ञानसागरजी ने शिष्य विद्यासागर को अपने करकमलों से मृगसर कृष्णा द्वितीय संवत् 2029 को संस्कारित करके अपने आचार्य पद से विभूषित कर दिया और फिर आचार्यश्री विद्यासागरजी के निर्देशन में समाधिमरण हेतु सल्लेखना ग्रहण कर ली।
आचार्यश्री की प्रेरणा से उनके परिवार के छः सदस्यों ने भी जैन साधु के योग्य संन्यास ग्रहण किया। उनके माता-पिता के अतिरिक्त दो छोटी बहनों व दो छोटे भाइयों ने भी आर्यिका एवं मुनिदीक्षा धारण की।

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