(समसामयिक चिंतन ) दिगंबरत्व और नंगापन ! कौन श्रेष्ठ ?————- विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन भोपाल

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एक साधु और एक भिखारी दोनों नंगे हैं एक आशीर्वाद देते हैं और एक भीख मांगते हैं एक अपना हाथ सर पर रखते हैं और दूसरा हाथ पसारकर भीख मांगता हैं .बाह्य दृष्टि से दोनों नग्न हैं पर दोनों के भावों में ,दशा और दिशा में अंतर हैं .आज फिल्मों में या सामाजिक जीवन में नंगापन दिखाया जाता हैं उससे सबको क्या शिक्षा मिलती हैं ? उत्तेजना ,कामुकता , भौंडापन ,परिवार के लिए असहनीय और विवाद का कारण ,हिंसाजन्य कार्यों को बढ़ावा देना .जब बच्चा/बच्ची जन्म लेता हैं तब वह नग्न होता हैं और उसमे ऐसा कोई भाव नहीं होता हैं जिससे हमारा मन किसी भी प्रकार से दूषित होता हो .
कभी कभी कोई कोई अज्ञानी दिगम्बरत्व को हिकारत की नज़र से देखते हैं और कोई कोई उपहास करते हैं तो कोई कोई इसे निंदनीय कहते हैं तो कोई असभ्यता का घोतक बताते हैं और कोई निंदा करने से नहीं चूकते और नंगापन को सभ्यता .संस्कृति और जीवन शैली और फैशन का प्रतीक मानते हैं . यह विचित्र बात हैं की प्रकृति ,पशु पक्षियों को हम किस श्रेणी में रखेंगे . दिगम्बरत्व या नंगापन में ! फैशन बदलती रहती हैं जबकि दिगम्बरत्व अपरिवर्तनशील .
दिगम्बरत्व का इतिहास पर हम दृष्टि डाले तो हिन्दू ,मुस्लिम ,ईसाई जैन ,बुद्ध धर्मों में इसका वर्णन बहुत बृहद और प्रशंसनीय ,अतुलनीय बताया हैं . वैदिक साहित्य में दिगम्बर मुनियों को “वातरशना ” बताया हैं .उपनिषद में परमहंस ,भिक्षु,पारिव्राजक तथा सन्यासी को दिगम्बर बताया हैं
नारद परिव्राजक उपनिषद में लिखा हैं की “भिक्षु पुत्र मित्र कलत्र तथा कुटुंबियों को छोड़कर दिगम्बर होता हैं .”परिग्रह का त्याग महत्वपूर्ण हैं . परिग्रह आत्मस्वभाव से भिन्न होता हैं उसका संपर्क आत्मा में आकुलता उतपन्न करके विकास के प्रदीप को बुझाये बिना न रहेगा .
शायर जलालुद्दीन ने दिगमबर पद को दिव्य ज्योति से अलंकृत बताते हुए कहा हैं की वस्त्रधारी व्यक्ति की दृष्टि तो धोबी की ओर होती हैं ==
“मस्त बोला मुहतसिव से कामजा ,होगा क्या नंगे से ओहदा बरा.
है नज़र धोबी पै जामपोश की ,है तजल्ली ज़ेवरे उरीयांतानी.”
परमात्मा जिसमे दोष देखता हैं उसे वस्त्र पहना देता हैं किन्तु जो निर्दोष होते हैं उसे नग्न रहने देता हैं . इसी प्रकार ईसाई धरम ग्रंथों में भी दिगम्बरत्व के बारे में लिखा हैं ” आदम और उसकी पत्नी ईव नग्न उतपन्न हुए थे तथा उद्यान में नग्न रहते थे ,उनके मन में लज्जा ने स्थान नहीं बनाया था .जब उनने निषिध्द वृक्ष के फल को खाया ,तो उन्हें ज्ञान होने पर लगा की वे नग्न हैं इसलिए उन्होंने अंजीर के वृक्ष के पत्तों से अपने अंगों को ढांक लिया .”ईसाई साधु पीटर ने लिखा हैं “हमें अपने पास कुछ भी नहीं रखना चाहिए ,परिग्रह हम सबके लिए पापरूप हैं .इसका जैसे भी त्याग हो वह पापों से बचना हैं .
योग वशिष्ठ में राम ने कहा है की मैं वास्तव में राम नहीं हूँ तथा विषयों में मेरी लालसा भी नहीं हैं ,मैं तो जिन भगवान् के समान अपनी आत्मा की शांति प्राप्त करने की मनोकामना करता हूँ .इस सम्बन्ध में दिगम्बरत्व और नग्नपन का अंतर सिद्ध करने के लिए एक प्रसिद्ध दृष्टांत बताना जरुरी हैं भागवत पुराण में यह भी लिखा हैं ” एक सरोवर में नग्न अप्सराएं स्नान कर रहीं थी . .जब वहां से वस्त्रधारी व्यास निकले ,तब उन देवांगनाओं ने लज्जायुक्त हो वस्त्र धारण किये ,किन्तु जब व्यास मुनि के पुत्र नग्न रूपधारी शुकदेव मुनि वहां से निकले तब अप्सराओं में कोई भी चंचलता नहीं आयी ,न उनके मन में लज्जा का उदय नहीं हुआ ,न उनने वस्त्र धारण ही किया .इस सम्बन्ध ने व्यास मुनि के प्रश्न उन देवियों ने बताया की ‘शुकदेव मुनि दिगमबर थे .उनकी दृष्टि विकार रहित थी ,उसमे स्त्री पुरुष संबधी भेद भाव नहीं था ,इसलिए उनके आगमन पर हमारे मन में कोई विकार नहीं उतपन्न हुआ .ऐसी स्थिति आपकी नहीं थी .आपकी दृष्टि में स्त्री पुरुष सम्बन्धी भेद था इस कारण हमारे मन में लज्जा का भाव उतपन्न हुआऔर हमने वस्त्र धारण किये ” इस विवेचन से यह मनोवैज्ञानिक बात स्पष्ट होती हैं की विकार रहित दिगम्बर मुनि का दर्शन मातृ जाती के मन में विकार भाव को उतपन्न नहीं करता. मुनियों के शरीर को देखकर स्त्रियों के मन में राग के बदले वैराग्य भाव उतपन्न होता हैं ,क्योकि उनका शरीर मलिन ,संस्कार रहित तथा शव के समान दिखाई पड़ता हैं .
शहंशाह अक्ल तेरी मारी गयी हैं
फकीरों को दौलत की परवाह नहीं हैं .
तमन्ना फकीरी में लाज़िम नहीं हैं ,
धब्बा सफेदी में लाना नहीं हैं .
दिगम्बर मुनि की मनोवृत्ति पर नज़र डालें ===
चाह घटी चिंता हटी मनुआ वेपरवाह .
जिन्हे कछु नहीं चाहिए ,वे शाहनपति शाह.
वर्त्तमान में सर्वत्र धर्माराधन को भार रूप समझने लगे हैं ,इस कारण प्रायः धर्म के नियंत्रण को दूर फेंक कर धर्मशून्य जीवन से अपने को गौरवान्वित अनुभव करते हैं .आज जब कोई शासन ड्रेस कोड के बारे में किसी कॉलेज ,स्कूल,धार्मिक स्थलों में नियम बनाये जाते हैं तो विरोध के स्वर सुनाई देते हैं आखिर क्यों ? परिधान और यूनिफार्म में बुनियादी अंतर हैं परिधान पहनने की सबको स्वंत्रता हैं पर परिधान ऐसा हो जिसमे पहनने वाला स्वयं असहज महसूस न करे .हम देखते हैं जब कोई परम्परा से हट कर कोई ऐसा लिबास /परिधान /पोशाक /पहिनावा पहनता हैं तो वह स्वयं पहले असहज महसूस करता हैं और फिर देखने वालों की निगाहों से वह बच नहीं पाता हैं .टी.वी .फिल्मों में ,पर्यटन में सब अपने अपने मुक्त वातावरण में स्वछन्द घूमते हैं पर वही परिधान अपने कुटुम्बियों ,नजदीकी रिश्तेदारों ,.भाई आदि के सामने क्यों नहीं पहनती कारण उसमे लज्जा महसूस होती हैं ! जबकि पुलिस ,मिलिट्री ,जिन संस्थायोंमे यूनिफार्म होती हैं वहां कोई किसी से न लज्जा करता हैं और न हीन भावना से ग्रसित रहते हैं .
जब कोई नेता .समाज शास्त्री ,धार्मिक गुरु पोशाक के सम्बन्ध में कोई उपदेश या मानवीय पहलु को दृष्टिगत बात करते हैं तब विरोध के स्वर उभर के आतें हैं .क्योंकि हममे अनुशासनहीनता अधिक आ गयी. किसी ने सही कहा हैं की हम अपनी कुरूपता को छिपाने वस्त्र पहनते हैं और अंगों को उभारने के लिए चुस्त कपडे पहनते हैं जबकि पोशाक सौम्य ,शालीन और आरामदायक हो और उचित स्थान,समय के हिसाब से मर्यादित पहनावा पहनना उचित हैं .आज कोई कोई दिगम्बर मुनि राज की आलोचना करते हैं की उनकी नग्नता से अन्य समाज में विपरीत प्रभाव पड़ता हैं वह उनकी अज्ञानता का प्रतीक हैं .
जो मुनिराज वस्त्र रहित होते हैं ,उन्हें यह चिंता नहीं रहती की मेरा वस्त्र फट गया ,मुझे दूसरा कपड़ा चाहिए ,कपड़ा सीने के लिए सुई धागा चाहिए .उसे यह चिंता नहीं रहती की मुझे कपडे रखना हैं या फटे वस्त्र सीना हैं ,जोड़ना हैं ,पृथक्क करना हैं ,पहिनना हैं या मलिन वस्त्र को धोना हैं . वस्त्र सहित साधु दुखी रहता हैं और वस्त्र रहित सुखी होता हैं .
नित्य नए पोशाकों के कारण होता क्यों तनाव
नित्य नए फैशन से क्यों होते परेशान
कितने लुटते पिटते हैं हम कपड़ों की चाह में
फिर क्यों हो जाते पुराने एक बार के पहनाव में
कितने कितने पोशाकों के कारण होती आपस में स्पर्धा
पर वे कितने निश्छल होते शिशु न पहने भी कपडे
पर नग्न दिगम्बर वेश आज भी विश्व भर में अभिन्दनीय
हर धर्मों ,महजबों में इसको स्वीकारा हैं सबने
निर्ग्रन्थ बने ना और निश्छल सौम्य बने ना
किसी का भी जीवन नहीं बना सुफल ,सरल
बिना विचारे न कोई बोले दिगम्बरत्व कोनग्नता
सब कपड़ों में कितने इन्द्रियों के विजेता
वे होते हैं निर्भीक , निडरता से बढ़ते हैं आगे
विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन संरक्षक शाकाहार परिषद् A2 /104 पेसिफिक ब्लू ,नियर डी मार्ट, होशंगाबाद रोड, भोपाल 462026 मोबाइल ०९४२५००६७५३

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