उक्त टाइटल को सीधे-सीधे देखें तो हर कोई इसका विरोध करता ही नजर आएगा कि जब नारी नर को जन्म दे सकती है। नारी ही तीर्थंकर प्रभु को जन्म देती है तो फिर वह विष की बेल कैसे हो सकती है। नारी जिसे जननी का सबसे बड़ा पद प्राप्त होता है उसी की कुक्षी से बड़े-बड़े महापुरुष यहां तक की बड़े आचार्यो ने भी जन्म लिया है तो फिर नारी को किस प्रकार से हम इन शब्दों से उपमीत कर सकते हैं। सफलता की कहानी के पीछे नारी का महनीय योगदान सृष्टि के प्रारम्भ से ही स्वीकार किया गया है। कोई विरह में,कोई विग्रह में,कोई समर्थन में तो कोई नारी के उपहास के कारण कीर्तिमान रचने में कामयाब हुए हैं। इतिहासों के पन्ने स्वयं इस बात का सटीक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
अनेको विद्वानों, संतो, मनीषियों ने प्रथम गुरु की उपमा भी मां रूपी नारी को प्रदान की है। माँ ही स्वयं की कोख से जन्म लेने वाले बच्चों के भविष्य निर्माण में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है तो फिर हम जगत जननी मां को इन शब्दों से कैसे अपमानित कर सकते हैं।
लेकिन चिंतन मनन और मंथन इस बात पर भी होना चाहिए कि जब यह लाइन जिनवाणी की पूजन में जोड़ी गई है तो इसका कुछ ना कुछ गहरा मतलब होगा ही। हर शब्द कुछ अलग अर्थ लिए हुए होता है जिसे परिस्थिति के अनुसार उपयोग किया जाता है।
यह लाइन पूजन में आम व ग्रहस्थों के लिए उपयोग में नही ली जा सकती है। इसका वास्तविक अर्थ तो सन्तों के लिए ही सटीक उपयुक्त है। जो संसार मे भ्रमण कराने वाली नारी का परित्याग कर, स्वयं की आत्मा के कल्याण के लिए वैराग्य पथ के पथिक बन जाते हैं। सारी सांसारिक बेड़िया उनके लिए विष के ही समान है।
वैसे मेरी कलम की महत्त्वता शून्य के समान ही है फिर भी मैं सूर्य को दीपक दिखाने का कृत्य कर रहा हूँ। जिस प्रकार निर्वाण कांड में रावण के सुत आदिकुमार मुक्ति गए रेवा तट सार लिखा है इसमें भी कुछ भ्रांति होती है क्योंकि वाक्य से अर्थ पूर्ण स्पष्ट नही हो पाता है इसी प्रकार इस लाइन से भी कुछ भ्रांति होती है। सबका मत भिन्न होता है और हम उससे सहमत हो कोई जरूरी नही है इसी प्रकार आप मेरे मत से असहमत भी हो सकते हैं। इस लाइन को इस प्रकार वर्णित करने की आवश्यकता है। जिससे जगत जननी व विश्व की आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाली नारी का सम्मान कायम रह सके। क्षमा के साथ।
संजय जैन बड़जात्या कामां
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