मान कषाय प्राणी मात्र को विवेक शून्य कर देती है -मुनिश्री विलोकसागर विधान के छठवें दिन 256 अर्घ समर्पित होगें

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मुनिश्री विलोकसागर

मान कषाय प्राणी मात्र को विवेक शून्य कर देती है -मुनिश्री विलोकसागर
विधान के छठवें दिन 256 अर्घ समर्पित होगें

मुरैना (मनोज जैन नायक) हम सभी श्री सिद्धचक्र विधान के अंतर्गत निरंतर सिद्धों की आराधना कर रहे हैं। विधान में पांचवे दिन हमने पूजन करते हुए जो अर्घ समर्पित किए हैं वो अपने अंदर बैठे मान कषायों को दूर करने के लिए किए हैं। जब हम भगवान की पूजन भक्ति करते हैं, तब हमारे अंदर मान कषाय नहीं होना चाहिए । मान कषाय से बचने के लिए ही भगवान की पूजा, अर्चना, आराधना, भक्ति की जाती है । मान कषाय ही हमें चार गति और चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता है और इस असार संसार से मुक्त नहीं होने देता, हमारे अंदर दिव्य शक्ति को जागृत नहीं होने देता, हमें परमात्मा नहीं बनने देता । इन मान कषायों के कारण ही हम दिन रात पाप कर्मों में लिप्त रहते हैं। यदि हमारे जीवन में मृदुता, सरलता आ जाए तो इस संसार में हमारा कोई शत्रु या दुश्मन नहीं होगा, हमारा किसी से बैर नहीं होगा । हम जब भी इष्ट की, जिनेंद्र प्रभु की आराधना, पूजा भक्ति करते हैं तब हमारा चिंतन होना चाहिए कि हे भगवन, जो दिव्य शक्ति आपके अंदर विराजमान है, वो मेरे अंदर भी प्रगट हो । हम निरंतर पूजा भक्ति आराधना करते हुए इष्ट की प्रतिमाओं को घिसते रहते हैं लेकिन अपने अंदर के मान कषाय को नहीं छोड़ते। भक्ति के द्वारा हमें अपनी मान कषायों को तोड़ना है लेकिन हम जाप मालाओं को तोड़ते रह जाते हैं। हमें प्रभु कृपा से जो मिला वह पर्याप्त था लेकिन कषाय के कारण हमें संतुष्टि नहीं हुई । तन की भूख तो आसानी से बुझ जाती है लेकिन मन की भूख, कषाय की भूख नहीं बुझ सकती । जिस प्रकार श्मशान की आग शरीर को जला देती है, उसी प्रकार कषाय की आग, वासना की आग, क्रोध की आग, हमारे ज्ञान और विवेक को जला देती है, हमें विवेक शून्य कर देती है । कषाय के कारण ही हम प्रभु और गुरुओं से दूर हो जाते है । अपने इष्ट की, श्री जिनेंद्र प्रभु की पूजा भक्ति आराधना हमें कषायों से बचाने में सहायक होती है । अतः हे भव्य आत्माओं हमें भक्ति पूर्वक पूजन, विधान, धार्मिक अनुष्ठानों के माध्यम से इन कषायों से बचकर जीवन का सही उपयोग कर अपने लक्ष्य को प्राप्त करना चाहिए । उक्त उद्बोधन जैन संत मुनिश्री विलोकसागरजी महाराज ने बड़े जैन मंदिर में श्री सिद्धचक्र महामंडल विधान के पांचवे दिन धर्मसभा को संबोधित करते हुए दिया ।
सिद्धों की आराधना में आज 256 अर्घ समर्पित किए जायेगें
प्रतिष्ठाचार्य बाल ब्रह्मचारी संजय भैयाजी (मुरैना वाले) ने पूज्य मुनिश्री द्वारा दिए गए उद्वोधन के संदर्भ में बताया कि व्यक्ति को दूसरे की नहीं अपनी ही कषाय बर्बाद करती है। व्यक्ति अपने ही स्वभाव के कारण बर्बाद होता है । उसकी कषाय उसे मृत्यु तक पहुंचने में सहायक हो जाती हैं। भगवान ने उन सभी कषायों को छोड़कर के अपनी आत्मा का अनुसरण किया और सम्यक पथ पर चलते हुए मोक्ष को प्राप्त किया। आज 128 अर्घ्य चढ़ाते हुए यही भावना की गई कि हम भी अपने आपसी बैर विरोध को छोड़कर कषायों को कम करते हुए अपने जीवन का कल्याण करें। यह जीव 108 प्रकार से कर्मों का आश्रव किया करता है । भगवान उन सब से रहित, परम शुद्ध आत्म को प्राप्त हो गए हैं । ऐसे उन सिद्धों की आराधना की गई । आज मंगलवार को सिद्धों की आराधना करते हुए 256 अर्घ समर्पित किए जायेगें।
विधान में हो रही है भक्तिरस की वर्षा
आठ दिवसीय श्री सिद्धचक्र विधान में भक्तिरस की वर्षा हो रही है । विधान के मुख्य पात्र अपने विशेष परिधान के साथ चांदी के हार, मुकुट एवं अन्य अलंकरणों से सुसज्जित होकर विधान का हिस्सा बने हुए हैं। पूज्य गुरुदेव के संघस्थ ब्रह्मचारी संजय भैयाजी बम्होरी वाले पूर्ण तन्मयता के साथ विधान में सहभागिता प्रदान कर रहे हैं।
विधानाचार्य ब्रह्मचारी अजय भैयाजी (ज्ञापन तमूरा वाले) दमोह अपने बुंदेलखंडी जैन भजनों से सभी को भक्ति नृत्य करने पर मजबूर कर देते हैं । साथ में भजन गायक एवं संगीतकार हर्ष जैन एंड कंपनी भोपाल अपनी संगीत लहरी से सभी को मंत्रमुग्ध करते हैं।
प्रातः 06.30 बजे से विधान की क्रियाएं प्रारंभ हो जाती हैं और निरंतर 10/11 बजे तक विधान का पूजन, अर्घ आदि का कार्यक्रम चलता है । शाम को गुरुभक्ति के समय महाआरती का आयोजन होता है । महाआरती के पुण्यार्जक घोड़ा बग्घी में सवार होकर ढोल तासे की धुन पर नृत्य करते हुए अपने निज निवास से सैकड़ों बंधुओं के साथ मंदिर जी में आरती का सुसज्जित थाल लेकर आते हैं और श्री जिनेंद्र प्रभु एवं पूज्य गुरुदेव की भक्ति के साथ संगीतमय महाआरती करते हैं।

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